शेखर गुप्ता ने कांग्रेस पार्टी पर एक दुर्लभ एहसान किया है. ऐसी राजनीतिक संस्कृति में, जहां ज़्यादातर “सलाह” भारी फीस लेने वाले सलाहकारों से आती है जिनकी रीढ़ बहुत कमज़ोर होती है, उन्होंने साफ, सटीक और बिना किसी लाग-लपेट के सलाह दी है. कई पेशेवर चुनाव रणनीतिकार इतनी साफ बात कह नहीं सकते या फिर सिर्फ आधी बात कहने के लिए भी बहुत बड़ी फीस ले लेते. इसी वजह से मिस्टर गुप्ता का कॉलम विपक्ष की एक और “शोक-सभा” की तरह नहीं, बल्कि एक ऐसा ‘टफ-लव’ वाला नोट है जिसे कांग्रेस नेताओं को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए.
कुल मिलाकर, मिस्टर गुप्ता कांग्रेस को पांच बातें बताते हैं.
पहली — कांग्रेस के मजबूत हुए बिना नरेंद्र मोदी की बीजेपी को पूरे भारत में कोई मज़बूत चुनौती नहीं मिल सकती, क्योंकि क्षेत्रीय पार्टियां भौगोलिक और सामाजिक आधार से सीमित होती हैं.
दूसरी — कांग्रेस के पास अब भी 20 प्रतिशत से ज़्यादा राष्ट्रीय वोट हैं, यानी हर पांच में से एक वोटर उसके साथ है. किसी भी नई राजनीतिक “स्टार्टअप” के लिए यह सपना जैसा नंबर है, लेकिन कांग्रेस इसे बढ़ाने वाली पूंजी मानने के बजाय वंशानुगत हक की तरह देखती है.
तीसरी — पार्टी में सबसे ज़रूरी चीज़ की कमी है जो है विनम्रता. कांग्रेस अब भी खुद को सत्ता की स्वाभाविक पार्टी मानती है और यह ईमानदारी से पूछने से बचती है कि नरेंद्र मोदी लगातार क्यों जीतते जा रहे हैं और वह खुद क्यों हार रही है.
चौथी — राहुल गांधी की राजनीति ज़्यादातर नकारात्मक है, गुस्सा, आरोप और विरोधियों पर हमलों पर टिकी हुई. उनके पास “अच्छे दिन” या “विकसित भारत” जैसे भविष्य की ओर देखने वाले सकारात्मक नारे का कोई जवाब नहीं है.
और पांचवीं — अगर कांग्रेस खुद को नहीं बदलेगी, तो उसके सहयोगी भी उसे बोझ की तरह देखने लगेंगे और धीरे-धीरे मोदी के साथ किसी न किसी समझौते की तरफ बढ़ सकते हैं.
इस विश्लेषण के बड़े हिस्से से हम सहमत भी हो सकते हैं और होना चाहिए, लेकिन अगर हम मिस्टर गुप्ता की यह बात मान लें कि कांग्रेस के पास वोटों में “स्टार्टअप की पूंजी” है, पर नेतृत्व में “पुरानी कंपनी की आदतें” हैं, तो नुस्खा भी थोड़ा और आगे बढ़ाना होगा.
एक स्टार्टअप सिर्फ अपने नारे नहीं बदलता, वह अपना बिज़नेस मॉडल बदलता है, अपनी साझेदारियां, अपनी प्रक्रियाएं और कानूनी जोखिम देखने का तरीका भी बदलता है. कांग्रेस को भी वैसा ही, इससे भी ज़्यादा बड़ा बदलाव चाहिए, जितना गुप्ता ने सुझाया है.
अस्थायी गठबंधनों से दीर्घकालिक साझेदारियों तक
पहला बदलाव सोच का है. कांग्रेस को तुरंत बनने वाले, एड-हॉक गठबंधनों की सोच छोड़कर लंबी अवधि की साझेदारियां बनानी होंगी. जैसा कि हमने कई राज्यों में देखा है, गठबंधन चुनाव से ठीक पहले जल्दबाज़ी में बनते हैं और हार मिलते ही झगड़ों के साथ दोबारा तय किए जाते हैं. इसके विपरीत, साझेदारियां एक साझा लक्ष्य, काम के साफ बंटवारे और कई चुनावी चक्रों की योजना पर आधारित होती हैं.
असल में इसका मतलब यह है कि पार्टी को अपने जैसे सोच रखने वाली क्षेत्रीय पार्टियों के साथ बैठकर 5-10 साल की रूपरेखा बनानी चाहिए, न कि सिर्फ 5-10 महीने के सीट-बंटवारे. कहां कौन लीड करेगा? कहां से कौन पीछे हटेगा? बीजेपी को हराने के अलावा न्यूनतम समान कार्यक्रम क्या होगा? विवादों को बिना सार्वजनिक लड़ाई-झगड़े के कैसे सुलझाया जाएगा?
अगर हर चुनाव को अहंकारों का नया बाज़ार समझा जाएगा, तो इंडिया ब्लॉक, या जो भी उसका हिस्सा बचेगा, दबाव के पहले ही संकेत पर टूटता रहेगा.
विधानसभा में जूनियर, लोकसभा में सीनियर
नई रणनीति का दूसरा पहलू यह है कि कांग्रेस को ईमानदारी से समझना होगा कि वह कहां स्वाभाविक रूप से मजबूत आकर्षण का केंद्र है और कहां नहीं. कई राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों ने विधानसभा स्तर पर बहुत मजबूत ब्रांड और नेटवर्क बना लिए हैं, जिन्हें कांग्रेस कम समय में मैच नहीं कर सकती, लेकिन इन्हीं राज्यों में, जब बात केंद्र सरकार, प्रधानमंत्री या राष्ट्रीय नीति की आती है, तो कांग्रेस अब भी ज़्यादा असर रखती है.
इससे साफ है कि कांग्रेस को विधानसभा राजनीति में जूनियर पार्टनर बनने के लिए तैयार होना चाहिए, जबकि लोकसभा सीटों में बड़ा हिस्सा मांगना चाहिए. यह खास तौर पर उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड पर लागू होता है, लेकिन राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे अन्य हिंदी राज्यों पर नहीं. एक ऐसा मॉडल, जहां क्षेत्रीय साथी मुख्यमंत्री पद की लड़ाई लीड करे और कांग्रेस राष्ट्रीय नैरेटिव लीड करे और संसद की अधिक सीटों पर चुनाव लड़े, कमज़ोरी की निशानी नहीं है, बल्कि अपनी-अपनी ताकत को पहचानने का तरीका है.
आज पार्टी की प्रवृत्ति अक्सर इसके उलट होती है: उन राज्यों में विधानसभा सीटों के लिए ज़रूरत से ज़्यादा मोलभाव करना जहां उसका ज़मीनी ढांचा कमज़ोर है, और लोकसभा की गंभीर रणनीति बनाने में कम निवेश करना. मिस्टर गुप्ता ठीक कहते हैं कि कांग्रेस को अहंकार छोड़ना चाहिए, लेकिन विनम्रता सिर्फ भाषा में नहीं, सीट-बंटवारे की संरचना में भी दिखनी चाहिए.
हारी हुई लड़ाइयों पर गोला-बारूद बर्बाद करना बंद करें
तीसरा, अगर कांग्रेस सच में 21 प्रतिशत से बढ़कर 27 प्रतिशत वोट चाहती है, तो उसे एक ऐसी पार्टी की तरह सोचना होगा जो फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम की गणित को समझती है. अक्सर पार्टी अपने सीमित संसाधन उन सीटों पर फैला देती है जहां जीत की संभावना लगभग शून्य है, सिर्फ “मौजूदगी दिखाने” या स्थानीय नेताओं को खुश रखने के लिए.
एक प्रोफेशनल पार्टी अपनी मार्जिनल सीटों की पहचान करती है. वह सीटें जहां वह कम अंतर से हारी या जहां उसकी सामाजिक गठजोड़ की स्थिति निर्णायक स्तर के पास है और फिर पूरी ताकत वहीं झोंकती है. उम्मीदवार चयन, कैडर की तैनाती, फंडिंग और शीर्ष नेतृत्व का समय, इन सबको ऐसी सीटों पर प्राथमिकता देनी चाहिए. बार-बार ऐसी सीटों पर उम्मीदवार उतारना जहां कोई बूथ स्ट्रक्चर नहीं है और जीत की कोई संभावना नहीं है, यह दृढ़ता नहीं, बल्कि महंगी गलतफहमी है.
यहां मिस्टर गुप्ता का स्टार्टअप वाला उदाहरण बिल्कुल सही बैठता है: कोई भी गंभीर स्टार्टअप उस प्रोडक्ट में पैसा लगाता नहीं रहता जिसका मार्केट से कोई मेल नहीं. वह वहीं दोगुना निवेश करता है जहां डेटा बताता है कि ब्रेकथ्रू की संभावना है. कांग्रेस को भी अपने चुनावी नक्शे पर यही साफ दृष्टि अपनानी होगी.
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चुनावों के बीच की राजनीति
चौथा, पार्टी को इस सोच से बाहर आना होगा कि “राजनीतिक गतिविधि” सिर्फ चुनाव प्रचार का ही दूसरा नाम है. यही वह जगह है जहां यात्राएं, चाहे नीयत कितनी भी अच्छी हो, एक जाल बन सकती हैं. अगर भारत जोड़ो यात्रा या बिहार की पदयात्रा एक ही नेता की छवि बनाने का मंच बनकर रह जाए और उसके बाद संगठन को मज़बूत करने का कोई फॉलो-अप न हो, तो ये तस्वीरें अगले चुनाव आने से पहले ही धुंधली हो जाती हैं.
चुनावों के बीच की राजनीति का मतलब होना चाहिए, लगातार मुद्दों पर काम करना: लोगों को कल्याणकारी योजनाओं का लाभ दिलाने में मदद करना, स्थानीय ज़मीन, पानी और कानून-व्यवस्था के विवादों में साथ खड़ा होना और पंचायतों, नगरपालिकाओं और ज़िला मुख्यालयों में लगातार मौजूद रहना. बूथ कमेटियां असली समस्याएं हल करने के लिए मिलें, न कि सिर्फ टीवी पर हाई कमान के भाषण सुनने के लिए.
वोटर से छह महीने चुनाव से पहले बातचीत शुरू करना और मतगणना वाले दिन के बाद उसे बंद कर देना, यह राजनीति नहीं, मौसमी विज्ञापन है.
इस मायने में “स्टार्टअप” वाला उदाहरण फिर काम आता है. ग्राहक (वोटर) वह नहीं है जिसे आप पांच साल में एक बार विज्ञापन दिखाएं. वह वह व्यक्ति है जिसे आप हर महीने सेवा दें, उसकी सुनें, उससे सीखें, और अपने “प्रोडक्ट” को बेहतर बनाते रहें.
‘वोट चोरी’ से गंभीर कानूनी रणनीति तक
आखिर में और सबसे ज़रूरी, कांग्रेस को चुनावों के लिए एक प्रोफेशनल कानूनी और संस्थागत रणनीति बनानी होगी. चुनावी सूची के विशेष पुनरीक्षण को चुनौती देना, संदिग्ध डिलीशन या ऐडिशन पर सवाल उठाना और फर्जी वोटरों पर चिंता जताना, ये सब पार्टी का अधिकार है, लेकिन इसे सिर्फ भाषणों तक सीमित रखना—जनसभाओं में इसे “वोट चोरी” कहना, काफी नहीं है.
पार्टी को अपने कैडर को चुनावी सूची की पूरी प्रक्रिया, दावे, आपत्तियां और अपील, के हर चरण में सक्रिय करना चाहिए. इसका मतलब है कि कार्यकर्ताओं को सिखाया जाए कि आपत्तियां कैसे दर्ज करनी हैं, सुनवाई कैसे ट्रैक करनी है, अनियमितताओं को कैसे दर्ज करना है और अंतिम सूची प्रकाशित होने के बाद फॉलो-अप कैसे करना है. हर बूथ-स्तर के कार्यकर्ता को पता होना चाहिए कि मतदाता सूची की शुचिता की रक्षा करना उतना ही राजनीतिक काम है जितना पोस्टर लगाना.
इसके अलावा, कांग्रेस को एक मज़बूत केंद्रीय कानूनी सेल बनानी चाहिए जो सिर्फ चुनावी कानून पर काम करे. अगर पार्टी के नेता सच में मानते हैं कि उदाहरण के तौर पर, मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट के दौरान नई घोषित योजना के नाम पर सरकारी फंड से महिलाओं के खातों में 10,000 रुपये डालना, एक भ्रष्ट आचरण है, तो यह बात सिर्फ प्रेस कॉन्फ्रेंस का मुद्दा बनकर नहीं रहनी चाहिए. इसे कई चुनाव याचिकाओं का साझा आधार बनना चाहिए, ध्यान से तैयार की हुई, सबूतों पर आधारित और समय सीमा में अलग-अलग सीटों पर दायर.
मिस्टर गुप्ता सही कहते हैं कि भारत में फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली है. इसका मतलब है कि कुल वोट शेयर पर परिणाम के बाद रोना-धोना ज़्यादा मायने नहीं रखता. मायने रखता है, कानून के तहत विशिष्ट, साबित की जा सकने वाली अनियमितताओं को सीट दर सीट चुनौती देने की इच्छा और चुनावों में राज्य की शक्ति के दुरुपयोग पर ठोस न्यायशास्त्र बनाना. जो पार्टी कानून के राज के बारे में गंभीर है, वह कानूनी मैदान छोड़कर सिर्फ टीवी पर लड़ाई नहीं लड़ सकती.
वही पुराना चक्का फिर से बनाने का जोखिम
अगर कांग्रेस नेतृत्व फिर वही पुराना चक्का बनाना चाहे, एक और यात्रा, राहुल गांधी के लिए एक और व्यक्तिगत छवि-निर्माण अभियान, ईवीएम या चुनाव आयोग पर एक और गुस्से का मौसम, तो यह मिस्टर गुप्ता की सबसे बड़ी चेतावनी को सच कर देगा. पार्टी न सिर्फ ठहर जाएगी; बल्कि और बुरी स्थिति में जा सकती है.
एक स्टार्टअप जो बार-बार ब्रांड विज्ञापन में पैसा झोंकता रहे, लेकिन प्रोडक्ट, वितरण और कंप्लायंस की अनदेखी करे, वह सिर्फ इसलिए सफल नहीं हो जाता कि उसका लोगो ज़्यादा दिखने लगा. वह गिर जाता है.
मिस्टर गुप्ता का कॉलम इस मायने में एक शुरुआत है, न कि अंत. उन्होंने कांग्रेस को याद दिलाया है कि विनम्रता और सकारात्मक दृष्टि अनिवार्य हैं. अगला कदम होना चाहिए, साझेदारियों के ढांचे को फिर से बनाना, जहां पार्टी कमज़ोर है वहां जूनियर भूमिका स्वीकार करना और जहां मज़बूत है वहीं सीनियर बनना, मार्जिनल सीटों पर समझदारी से लड़ना, राजनीति को हर दिन जीना न कि सिर्फ चुनाव के मौसम में और कानून को परेशानी नहीं बल्कि एक औज़ार की तरह इस्तेमाल करना.
अगर कांग्रेस यह कर पाती है, तो उसका “वन-इन-फाइव” पूंजी वास्तव में एक नए राष्ट्रीय विकल्प का बीज बन सकता है. अगर नहीं, तो भारतीय राजनीति में जो “कांग्रेस के आकार का खालीपन” है, जैसा मिस्टर गुप्ता कहते हैं, वह किसी चमत्कार से नहीं भरेगा. उसे कोई और भर देगा, या वह एक खतरनाक खालीपन बन सकता है ऐसे लोकतंत्र में जिसे एक से अधिक विश्वसनीय ध्रुवों की सख्त ज़रूरत है.
(के बी एस सिद्धू पंजाब के पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और स्पेशल चीफ सेक्रेटरी के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं. उनका एक्स हैंडल @kbssidhu1961 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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