ज़रा फरवरी 2020 की स्थिति पर गौर करें. नरेंद्र मोदी सरकार ‘क्रमबद्ध’ सीएए, एनपीआर और एनआरसी पर नरमी दिखाने को तैयार नहीं थी, जिनसे कि लाखों भारतीय मुसलमानों की नागरिकता छिनने का खतरा था.
सरकार 2019 की गर्मियों में लोकसभा चुनावों में शानदार जीत दर्ज कराने के बाद पहले ही कश्मीर और राम मंदिर के मुद्दों पर सफलता का स्वाद चख चुकी थी.
भाजपा नेता कपिल मिश्रा के भाषणों से, बहुतों के अनुसार, दिल्ली में भड़के दंगों में 50 से अधिक लोग जान गंवा चुके थे. ये नागरिकता संशोधन कानून विरोधी प्रदर्शनों को लेकर सत्ता प्रतिष्ठान की प्रतिक्रिया थी. सरकार प्रदर्शनकारियों से बात करने तक को तैयार नहीं थी.
मुख्य विपक्ष कांग्रेस समेत विपक्षी पार्टियां कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थी क्योंकि राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श हिंदू-मुस्लिम के मुद्दों पर केंद्रित था, जिसे वे अपना सबसे कमज़ोर पक्ष मानती हैं. अर्थव्यवस्था की हालत खराब होने के बावजूद वे बहस को रोज़ी-रोटी के मुद्दे की तरफ मोड़ने में नाकाम रहे थे.
जब नरेंद्र मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप को अपने व्यापक समर्थन के सबूत के तौर पर अहमदाबाद में घुमा रहे थे तो निश्चयपूर्वक कोई नहीं बता सकता था कि क्या भाजपा का हिंदू एजेंडा पूरा हो चुका है. क्या आगे समान नागरिक संहिता और जनसंख्या नियंत्रण कानून लाए जाने की योजना थी?
कोरोनावायरस महामारी हिंदुत्व के एजेंडे लिए एक बड़ा झटका साबित हुआ. हालांकि हिंदुत्व की ताकतों ने महामारी को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की, लेकिन उनका प्रयास अधिकतम दो हफ्ते तक ही चल पाया. मनहूस वायरस एक दीर्घकालिक समस्या है जिसका ध्यान बंटाने या चुनावी जीतों का ज़ोर दिखाने या दंगे भड़काने या स्टेडियमों में भीड़ जुटाने भर से समाधान नहीं होने वाला है. भले ही वायरस के लिए टीके क्यों ना आ जाते हों.
दूसरे शब्दों में, ये कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के लिए एक जीवनदायिनी अवसर था. हालांकि अन्य विपक्षी दलों को कोसने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि उनमें से कोई भी अपनी राष्ट्रीय भूमिका के लिए प्रयासरत नहीं है. यहां तक कि अरविंद केजरीवाल भी औपचारिक रूप से हथियार डाल चुके हैं.
परेशान हाल कांग्रेस के लिए ये यूपीए-1 काल की अपनी गरीब समर्थक छवि को फिर से स्थापित करने का एक ईश्वर प्रदत्त अवसर था. यदि मोदी ने महामारी को लेकर ऐसा कोई मौक़ा नहीं भी छोड़ा हो तो भी कांग्रेस के लिए श्रमिकों का संकट मौजूद था जिसको लेकर नीति आयोग के अमिताभ कांत तक का मानना है कि सरकार का प्रदर्शन कमज़ोर रहा है.
मुश्किलों में घिरे और घरों से दूर फंसे श्रमिकों के लिए मोदी सरकार द्वारा घड़ियाली आंसू तक नहीं बहाने के मद्देनज़र कांग्रेस आसानी से इस मौक़े का फायदा उठा सकती थी. लेकिन वह ऐसा कर नहीं पाई. उसकी प्रतिक्रिया तात्कालिक, अनियोजित, अनिश्चित, भ्रमित, क्रमिक तथा देर से आई अपर्याप्त प्रतिक्रिया थी. इस नाकामी के कम से कम तीन कारण हैं.
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1. एक, या दो अनौपचारिक विभाजन
इन दिनों कांग्रेस के भीतर ही तीन कांग्रेस हैं. कांग्रेस (एस), कांग्रेस (आर) और कांग्रेस (पी). और ऐसा लगता है कि इनमें से किसी को मालूम नहीं कि दूसरा क्या कर रहा है.
सोनिया गांधी घोषणा करती हैं कि पार्टी श्रमिकों के ट्रेन टिकट का खर्च उठाएगी, और राहुल गांधी इस बारे में ट्वीट तक नहीं करते, ज़ूम कॉन्फ्रेंस की बात ही जानें दें. वास्तव में, उन्हें दिल्ली में रेलवे स्टेशन पर होना चहिए था, इस मुद्दे पर आगे बढ़कर नेतृत्व देना चाहिए था.
राहुल गांधी और उनके लोग पार्टी में इस कदर हाशिए पर पड़े हैं कि शायद निजी तौर पर वे इस बात का विलाप करते हों कि ज़्यादातर शीर्ष नेता उन्हें रीट्वीट तक नहीं करते. और प्रियंका गांधी उत्तरप्रदेश में अपने मन का काम करती हैं, क्योंकि उनके ताक़तवर सहयोगी संदीप सिंह को ये दिखाना है कि उनके पास डीके शिवकुमार और अहमद पटेल से बेहतर आइडिया हैं.
इसका परिणाम स्वरूप अक्सर ऐसा लगता है मानो अपनी राजनीतिक छाप छोड़ने के लिए तीनों धड़े एक-दूसरे से होड़ में लगे हों.
वास्तविक विभाजन के अभाव में, ऐसा प्रतीत होता है कि पार्टी को पता ही नहीं है कि वह क्या कर रही है या किस दिशा में बढ़ रही है.
2. राजनीतिक अभियान को समझने में नाकामी
कांग्रेसी नेताओं को सिर्फ एक ही बात प्रेरित करती है कि पार्टी के अन्य नेताओं को सफल होने नहीं दिया जाए. वैसे ये स्वस्थ प्रतिस्पर्धा भी साबित हो सकती है, क्योंकि इसके कारण उन्हें कुछ करने की प्रेरणा तो मिलती है.
लेकिन तीनों खेमों में से किसी को भी सफलता मिलती नहीं दिखती है क्योंकि उनमें से किसी को भी ‘राजनीतिक अभियान’ की समझ नहीं है या ये तक नहीं पता है कि सार्वजनिक रूप से कोई बात सामने रखने के लिए एक प्रचार अभियान की ज़रूरत होती है.
महात्मा गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक, विभिन्न विचारधाराओं के सफल राजनेताओं ने आम जनता के मन में किसी बात को बिठाने के लिए राजनीतिक अभियान की ज़रूरत को समझा है. राजनीतिक अभियान नियोजित कार्यक्रमों की एक श्रृंखला है जिसके ज़रिए एक या कुछेक सुसंगत विचार पेश किए जाते हैं; यह बारंबार दोहराए जाने के कारण विचार विशेष को लोगों को समझने में मदद करता है; इसमें पहले से तय नाम, कीवर्ड और हैशटैग होते हैं; और इसे न्यूनतम दो सप्ताहों तक चलाया जाता है.
गांधी निकटतम समुद्र तट तक पहुंचकर नमक बना सकते थे. लेकिन इसकी बजाय उन्होंने दांडी का लंबा रूट चुना और उस मार्च की बारीकी से योजना बनाई ताकि नागरिक अवज्ञा के उनके संदेश को आम जनता पूरी तरह आत्मसात कर सके. इस तरह, नरेंद्र मोदी राजनीतिक को इवेंट मैनेजमेंट का रूप देने वाले कोई पहले व्यक्ति नहीं हैं. स्मार्ट राजनीति हमेशा से ऐसी ही रही है क्योंकि मूलत: ये जनता से संवाद का उपक्रम है.
लगता नहीं है कि गांधी की विरासत का दावा करने वाली कांग्रेस पार्टी (सच में करती भी है?) इस बात को समझती है. सोनिया गांधी (मतलब अहमद पटेल) घोषणा करते हैं कि कांग्रेस सभी प्रवासी श्रमिकों के टिकट का भुगतान करेगी. शानदार आइडिया. मोदी सरकार घबराकर एक फर्जी दावा करती है कि केंद्र टिकट का 85 प्रतिशत दे रही है, जबकि शेष 15 प्रतिशत राज्यों की जिम्मेवारी है.
ये कांग्रेस का एकदिवसीय आयोजन, या कहें कि प्रेस-रिलीज आयोजन साबित हुआ. यदि इसी को अभियान की तरह चलाया जाता तो हर किसी को पता चलता कि कांग्रेस ने कितने टिकट खरीदे; कांग्रेसी सरकारों ने क्या किया, आदि-आदि.
इसी तरह राहुल गांधी ने दो अर्थशास्त्रियों – रघुराम राजन और अभिजीत बनर्जी – के साथ ज़ूम पर चैट किया और फिर उस बारे में भूल गए. उनसे क्या निकला? परिणाम क्या रहे? आगे क्या कदम उठाए गए? कुछ प्रवासी श्रमिकों से मिलने में उन्हें कई हफ्ते लग गए, और वो भी अपने आप में एक अकेला कार्यक्रम था जिसे ‘वृतचित्र’ की तरह पेश किया गया जिसे किसी ने नहीं देखा.
इसी तरह, प्रियंका गांधी ने एकबारगी दावा किया कि कांग्रेस मज़दूरों के लिए बसें उपलब्ध करा रही हैं और योगी आदित्यनाथ ने ये कहते हुए उनकी पोल खोल दी कि वो तुरंत बसें भिजवाएं. बारंबार, हम अभियान वाले दृष्टिकोण का अभाव देखते हैं जोकि इस तरह की नाकामियों से बचा सकता था.
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3. वातानुकूलित हवाई किला
महामारी/लॉकडाउन के दौरान राजनीतिक गतिविधियों पर रोक कांग्रेस पार्टी के आलसी लुटियंस नेताओं के लिए वरदान साबित हुई है. उन्हें अब बाहर निकलने की भी ज़रूरत नहीं है, सुबह सात बजे से शाम सात बजे तक भी नहीं. क्योंकि राजनीतिक धरना-प्रदर्शन की इजाज़त नहीं है.
घरों से दूर फंसे मजदूर जब ज़िंदा रहने की जद्दोजहद में लगे हों, राहुल गांधी इंस्टाग्राम पर अपनी एक तस्वीर लगाते हैं, जिसका शीर्षक है- ‘कार्यालय में एक शांत शाम’. इतनी बेवकूफी के लिए निश्चय ही बहुत प्रयास की ज़रूरत होती होगी.
प्रवासी श्रमिकों से मिलने में राहुल गांधी को 50 दिनों से अधिक का समय लगता है. और प्रियंका गांधी ने अपना काम अपने ‘निजी सचिव’ को सौंप रखा है जो कम्युनिस्ट पृष्ठभूमि से आते हैं. क्या किसी को पता है कि नरेंद्र मोदी का निजी सचिव कौन है? या अमित शाह का? नहीं, क्योंकि ये नेता राजनीति की मूल बातें जानते हैं, जैसे ये बात कि नेता का काम है नेतृत्व करना.
तीनों कांग्रेस पार्टियां कांग्रेस (एस), कांग्रेस (आर) और कांग्रेस (पी) उनके नेताओं द्वारा नहीं, बल्कि एक भी प्रत्यक्ष चुनाव नहीं जीतने वाले सहायकों द्वारा चलाई जाती दिखती हैं.
राहुल गांधी को प्रवासी मज़दूरों के साथ दिल्ली से अमेठी तक चलके जाना चाहिए था. जिम में इतना व्यायाम करना भला किस दिन काम आएगा? और मज़दूरों के लिए बस चलाने देने से योगी आदित्यनाथ के इनकार के खिलाफ एक भावपूर्ण भाषण देने के लिए प्रियंका गांधी को खुद दिल्ली या राजस्थान से लगने वाली उत्तरप्रदेश की सीमा पर जाना चाहिए था. उन्हें अपनी गिरफ्तारी देनी चाहिए थी. इसकी बजाय पार्टी के उत्तरप्रदेश प्रमुख गिरफ्तार किए जाते हैं और पार्टी नेता, हमेशा की तरह, ट्वीट कर इसकी निंदा करते हैं.
जरा कल्पना करके देखें कि अशोक गहलोत ने यदि भाजपा के राजस्थान प्रमुख को जेल भेजा होता तो भाजपा की क्या प्रतिक्रिया होती.
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(लेखक दिप्रिंट के कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. व्यक्त विचार उनके अपने हैं.)