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Sunday, 28 April, 2024
होममत-विमतकोरोना के कारण लॉकडाउन ने भारत में विपक्ष की राजनीति पर ताला लगा दिया मगर भाजपा की दुकान चल रही है

कोरोना के कारण लॉकडाउन ने भारत में विपक्ष की राजनीति पर ताला लगा दिया मगर भाजपा की दुकान चल रही है

जिस युद्ध ने इंदिरा गांधी को शिखर पर पहुंचाया था उसी ने उनके पतन का बीज भी बोया था, मगर आज विपक्ष के लिए बेहतर तो यही होगा की वह चुप न बैठे और इस महामारी में मोदी सरकार को अपनी जवाबदेही से कतरा कर निकलने का मौका न दे.

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इनदिनों हमें समझाया जा रहा है कि चूंकि हम कोरोना महामारी से लड़ रहे हैं इसलिए भारत में राजनीति को फिलहाल स्थगित कर दिया गया है. लेकिन ऐसा लग रहा है कि केवल विपक्ष की राजनीति को ही स्थगित किया गया है, भाजपा इस महामारी के बहाने मिले मौके का अच्छा लाभ उठाते हुए अपनी राजनीतिक पूंजी को बढ़ाए जा रही है.

पिछले एक महीने के लॉकडाउन के दौरान सार्वजनिक विमर्श पर दो थीम हावी रहे हैं. ये दोनों थीम भाजपा की राजनीतिक रणनीति के इन दो मुख्य पहलुओं को प्रतिबिंबित करते हैं— प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की व्यक्तिपूजा, और हिन्दू-मुस्लिम विभाजन.

पहला आख्यान वह है, जो मोदी को संरक्षक और पितातुल्य बताता है. इस आख्यान के मुताबिक, मोदी ने बिलकुल सटीक समय पर लॉकडाउन लागू करके हजारों लोगों की जान बचा ली. विपक्षी दलों और राज्य सरकारों तक से सलाह-मशविरा किए बिना लॉकडाउन की अचानक घोषणा दरअसल इस आख्यान को मजबूती देने और यह जताने के लिए की गई कि यह फैसला करने का राजनीतिक अधिकार सिर्फ मोदी को ही था. थाली बजाने और दीये जलाने के तमाशे ने भी सभी तबकों और क्षेत्रीय हलक़ों में मोदी की पैठ और लोकप्रियता के दावे को मजबूत ही किया.

दूसरे, हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को पिछले एक महीने में और बढ़ावा मिला है. भाजपा खुद को देशहित को नुकसान पहुंचाने पर आमादा ‘विश्वासघाती’ मुसलमानों का मुक़ाबला करने वाली एकमात्र राजनीतिक पार्टी के रूप में पेश करती रही. उसने तबलीगी जमात से जुड़े विवाद और महाराष्ट्र के पालघर लिंचिंग मामले को लपक लेने में कोई देर नहीं की और मीडिया में अपने समर्थकों के जरिए इन मुद्दों को जनता के बीच जिलाए रखने के संकेत दिए.


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विपक्ष जबकि आजीविका और भूख जैसे अहम मसलों पर मोदी सरकार से टक्कर लेने से कतराती दिख रहा है, सांप्रदायिकता के रंग में रंगे मुद्दे राष्ट्रीय बहस पर हावी हो गए हैं. दिल्ली के निज़ामुद्दीन मरकज़ में जमात के जमावड़े को लेकर प्रोपगैंडा खास तौर से कारगर हुआ है, और जो मतदाता भाजपा समर्थक नहीं हैं वे भी उसके पक्ष में होते दिख रहे हैं. इसलिए आश्चर्य नहीं कि ‘कोरोना जिहाद’ जैसे जुमलों में लिपटी कहानी के साथ यह आम धारणा भी तेजी से फैली (सी-वोटर के सर्वे के मुताबिक) कि इस महामारी का मोदी ने बहुत अच्छी तरह मुक़ाबला किया है.

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विपक्ष के लिए नया मौका

लेकिन यह जनसमर्थन अल्पकालिक साबित हो सकता है. चूंकि सरकार इस संकट को युद्ध के तौर पर पेश करने को आमादा है, तो याद रहे कि जिस युद्ध ने इंदिरा गांधी को शिखर पर पहुंचाया था उसी ने उनके पतन के बीज भी बो दिए थे. पाकिस्तान से युद्ध के आर्थिक नतीजों ने देश में महंगाई और बेरोजगारी को बढ़ा दिया था और चंद वर्षों में ही उनकी लोकप्रियता ने गोता लगा लिया था.

इसलिए, लॉकडाउन खत्म होने के बाद जैसे ही हालात कुछ सामान्य होंगे, इन कदमों के आर्थिक नतीजे सामने आने लगेंगे. आर्थिक वृद्धि दर तो पहले से ही गिर रही थी, आगामी महीनों में वह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश (आइएमएफ) की भविष्यवाणी के मुताबिक और गिरेगी. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन एकोनोमी (सीएमआइई) का अनुमान है कि बेरोजगारी बढ़कर 26 प्रतिशत पर पहुंच गई है, जबकि लॉकडाउन के पहले चंद हफ्तों में ही 14 करोड़ लोग बेरोजगार हो गए थे. इसके कुप्रभावों से समाज का शायद ही कोई तबका अछूता रह पाएगा.

प्रमुख अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इस स्थिति के मद्देनजर मोदी सरकार ने राहत देने के जो कदम उठाए हैं वे बुरी तरह अपर्याप्त हैं और शहरी गरीबों के बड़े तबके के लिए कुछ नहीं किया गया है. इसलिए, जिस संकट ने भाजपा को ‘ब्रांड मोदी’ और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बहाने अपनी सियासत चमकाने का मौका दिया, वह विपक्ष के लिए मौके उपलब्ध करा रहा है.

विपक्ष के लिए असमंजस की स्थिति है. ऐसे समय में राजनीति को स्थगित करना एक सुरक्षित रणनीति है. लेकिन यह मोदी को जवाबदेही से बचने का और बड़ा मौका देगा. भाजपा की कहानी के साथ जो वर्चस्ववादी तेवर जुड़ा है उसके चलते उसके विरोध को बेलगाम अवसरवाद और ‘राष्ट्र विरोधी’ कदम तक कहा जा सकता है.

कोरोना संकट ने मरणासन्न विपक्ष को फिर से जी उठने का मौका तो दिया है लेकिन वह इतना डरपोक हो चुका है कि इसका शायद ही फायदा उठा सके.


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लेकिन, जोखिम मोल लेना आज बेहद अहम हो गया है, वरना कांग्रेस जैसी विपक्षी पार्टियां और ज्यादा हाशिये पर चली जा सकती हैं. महामारी की सबसे बड़ी आर्थिक कीमत भुगत रहे शहरी और ग्रामीण गरीब ऐसे तबके के रूप में उभरेंगे जिससे विपक्ष सीधे मुखातिब हो सकता है. बेरोजगार या हाल में बेरोजगार हुए कामगार भी अपनी आवाज़ बुलंद करना चाहेंगे. यह कहना द्वेषपूर्ण लग सकता है, लेकिन यह संकट विपक्ष में भी जान डाल सकता है. उसके सामने गरीबों और हाशिये पर पड़े लोगों की आवाज़ बनकर ऐसे मतदाताओं के बीच अपनी अहमियत जताने का विशिष्ट अवसर प्रस्तुत हुआ है.

2016 में की गई नोटबंदी से मोदी बेदाग इसलिए बच निकले क्योंकि गरीबों को लगा कि इसका नतीजा उनसे ज्यादा भ्रष्ट अमीरों को भुगतना पड़ा है. लेकिन इस बार गरीबों को ऐसा कोई भ्रम नहीं है. गरीब वर्ग की विपत्ति के सवाल पर विपक्ष को एकजुट होने का एक दुर्लभ और अनूठा मौका मिला है. जैसा कि जेफर्लट ने कहा है, ‘…लॉकडाउन का असर यह होगा कि सामाजिक मुद्दे जाति, सांप्रदायिक पहचानों और प्रवृत्तियों को परे करके वर्ग के लिहाज से अधिक प्रमुखता हासिल कर लेंगे.’

मोदी ने लॉकडाउन के बढ़ते राजनीतिक नुक़सानों का अंदाजा लगा लिया है और हमें यह संकेत दे दिया है कि लॉकडाउन खत्म होने के बाद उनकी राजनीतिक रणनीति का आधार क्या होगा. लॉकडाउन को दो हफ्ते बढ़ाने के फैसले में सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को शामिल करके मोदी ने इसके राजनीतिक नतीजे से उभरने वाले जोखिम को संघीय रूप से बांटने की कोशिश की है. देश के नाम उनका सीधा संदेश भी, जो स्पष्टता और ब्योरों की कमी के कारण निराश करता रहा है, उन्हें लॉकडाउन को सचमुच लागू करने की उलझन से बड़ी सफाई से अलग करता रहा है.

इसलिए, इसे लागू करने में गड़बड़ी, और भूख तथा प्रवासी मजदूरों की समस्या के लिए जवाबदेह तो मुख्यमंत्रियों को ठहराया जा रहा है, और वायरस को फैलने से रोकने के लिए समय पर लॉकडाउन करने का श्रेय प्रधानमंत्री लूट ले रहे हैं. अमेरिका, इटली और स्पेन जैसे विकसित देशों के हालात से भारत के हालात की तुलना मोदी के लिए और ज्यादा फायदेमंद ही है.

विपक्ष के लिए वक़्त कम है

निष्क्रिय विपक्ष इस संकट के बाद सरकार को घेरने की कोई चमत्कारी उम्मीद नहीं कर सकता, उसे मौजूदा हालात में सक्रिय रहना ही पड़ेगा. कांग्रेस ने हाल में ‘रचनात्मक सुझाव’ देते हुए जो आलोचनात्मक रुख दिखाने की कोशिश की है वह प्रभावकारी राजनीतिक प्रतिवाद न होकर कमजोर व अहानिकर सलाह भर बनकर रह गया. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी सरीखे दूसरे दल तो मैदान ही छोड़ चुके हैं.


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जवाबदेही के बिना लोकतन्त्र चल नहीं सकता. और जब करोड़ों नागरिक अपना वजूद बचाने के लिए जूझ रहे हों तब विपक्ष का फर्ज़ बनता है कि वह राजनीतिक जवाबदेही की मांग तुरंत उठाए. इस फर्ज़ से विपक्ष का मुंह मोड़ना न केवल कायरता और प्रतिगामी कदम होगा बल्कि उसके अपने राजनीतिक हितों के लिए नुकसानदेह होगा. वह गरीबों की खातिर ज्यादा कुछ नहीं कर सकता तो कम-से-कम अपने राजनीतिक भविष्य को बचाने के लिए तो कुछ करे.

(आसिम अली और अंकिता बर्थवाल सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में रिसर्च एसोसिएट्स हैं, यहां व्यक्त उनके विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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1 टिप्पणी

  1. Opposition ko only Satya se Matlab hai bo public ki politics bhul gay hai…sare opposition apne family owned business hai isliy bo kabhi public ki bat nahi karenge …..unki sal roti chalti rahe bad bo yahi karnge

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