ये कार्ल मार्क्स ही थे जिन्होंने (शायद जर्मन दार्शनिक हेगेल के कथन को स्पष्ट करते हुए ) कहा था कि इतिहास खुद को दोहराता है, पहले एक त्रासदी के रूप में और फिर एक छलावे के रूप में.
कांग्रेस ने मार्क्स को गलत साबित कर दिया है. वह अपना इतिहास दोहरा तो रही है लेकिन त्रासदी वाले हिस्से से छलांग मार कर सीधे छलावे वाले हिस्से में पहुंच गई है.
पार्टी से गुलाम नबी आज़ाद के इस्तीफे के बाद राहुल के समर्थक सोशल मीडिया पर जो कुछ कह रहे हैं उस पर आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि वे पुराने नेताओं को पार्टी से बाहर निकालने की बात कर रहे हैं. उनका कहना है कि ये पुराने नेताओं के कारण ही पार्टी खुद को संकट में पा रही है. इसलिए पार्टी को इन बदनाम, दक़ियानूसी बुड्ढों से मुक्त करने और नयी, ज्यादा युवा कांग्रेस बनाने का वक़्त आ गया है.
‘जी-23’ नया सिंडीकेट?
यह सब हम पहले भी सुन चुके हैं. बिलकुल इसी तरह के दावों के कारण इंदिरा गांधी ने 1969 में कांग्रेस को तोड़ने का फैसला किया था. उस समय वे काफी परेशानी में घिरी थीं. कांग्रेस के कई दशकों पुराने नेताओं के एक गुट ने उन्हें प्रधानमंत्री मनोनीत किया था लेकिन 168/69 आते-आते वे उनसे ऊब चुके थे और उन्हें प्रधानमंत्री पद से हटाने की फिराक में थे.
ऐसे में आक्रामक मुद्रा अपनाना ही इंदिरा के लिए एक रास्ता बचा था. उन्होंने राष्ट्रपति पद के चुनाव में पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार को हराने की साजिश रची. अपने परोक्ष समर्थन से वे स्वतंत्र उम्मीदवार वी.वी. गिरि को जिताने में सफल हो गईं तो ‘सिंडीकेट’ नाम से मशहूर हुए कांग्रेसी नेताओं का गुट नाराज हो गया और उसने इंदिरा को पार्टी की प्राथमिक सादस्यता से निष्कासित कर दिया.
इसने उन्हें प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने को मजबूर कर दिया होता और उनका राजनीतिक केरियर खत्म हो गया होता. वे सिंडीकेट से ज्यादा ‘स्मार्ट’ निकलीं. उन्होंने इस्तीफा देने से मना कर दिया और कॉंग्रेस को तोड़ दिया. चूंकि वे कॉंग्रेस संसदीय दल के एक टुकड़े को ही अपने साथ ले जा सकीं इसलिए लोकसभा में उनका बहुमत नहीं रह गया. लेकिन कम्युनिस्टों आदि के समर्थन से उन्होंने अपनी सरकार बचा ली और बाद में समय से पहले यानी मध्यावधि चुनाव करवाया (तब तक आम चुनाव अपने समय पर ही हो रहे थे).
कांग्रेस का संगठन सिंडीकेट गुट के कब्जे में रहा और उसने अपनी पार्टी को कॉंग्रेस (ओ) नाम दिया और स्वतंत्र पार्टी, जनसंघ आदि के साथ मिलकर उनके मुक़ाबले में खड़ी हुई. लेकिन इंदिरा ने भारी बहुमत से चुनाव जीता और सिंडीकेट को हमेशा के लिए दफन ही कर दिया. इसके बाद उन्होंने पार्टी को निजी जागीर ही बना लिया ताकि उसे अपनी संतानों को सौंप सकें.
राहुल के समर्थक जब कांग्रेस को पुराने नेताओं से मुक्त करने की जरूरत पर ज़ोर देते हैं तब उनमें से कुछ तो जान-बूझकर और कुछ अनजाने में इसी प्रकरण की मिसाल देते हैं. उनके दिमाग में यही होता है कि ‘जी-23’ एक नया सिंडीकेट ही है. गुलाम नबी, आनंद शर्मा, आदि नेता कांग्रेस के पुराने, समय से पीछे छूट गए अवतार के ही नुमाइंदे हैं. राहुल भी अपनी दादी की तरह नये नेताओं के साथ एक नई कांग्रेस बनाएंगे.यह इतनी तरह से एक मुगालता है कि मैं समझ नहीं पा रहा कि शुरू कहां से करूं.
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कोई तुलना ही नहीं हो सकती
सबसे पहली बात तो यह है कि राहुल गांधी और इंदिरा गांधी में कोई तुलना हो ही नहीं सकती. इंदिरा जैसा चतुर राजनेता भारत में शायद ही दूसरा कोई हुआ है. उन्होंने एक नयी कॉंग्रेस पार्टी खड़ी कर दी थी. उनकी उंगली भारतीय गणतंत्र की नब्ज पर रहती थी. गलती करने (इमरजेंसी लगाने जैसी) और जनता पार्टी सरकार द्वारा दबाव में आने के बाद भी उन्हें मालूम था कि भारत को फिर से कैसे जीता जा सकता है. इमरजेंसी के बाद हार का मुंह देखने के तीन साल के अंदर ही उन्होंने 1980 में नया आम चुनाव करवाने के लिए मजबूर किया और उसे आसानी से जीत लिया.
इसके विपरीत, राहुल चाहे जो कुछ हों, वे चतुर तो नहीं ही हैं. नयी कॉंग्रेस तैयार करना तो दूर रहा, वे तो विरासत में मिली पार्टी को बरबाद ही कर रहे हैं. उनका हाथ भारत की नब्ज पर नहीं है, जनता के मूड को पढ़ने में वे निरंतर गलती करते रहे हैं. उनकी दादी ने तो अपने नेतृत्व में पार्टी को कई बार भारी जीत दिलाई, जबकि राहुल ने अपने नेतृत्व में पार्टी को एक के बाद एक हार ही दिलाई है.
दूसरे, इंदिरा ने सिंडीकेट के साथ बेमानी टक्कर मोल नहीं ली. उन्होंने इसलिए टक्कर ली क्योंकि पार्टी चलाने वाले नेता उन्हें अपनी कठपुतली बनाना चाहते थे. आज की कांग्रेस में गांधी उपाधि के प्रति स्वैच्छिक आज्ञाकारिता इस कदर हावी है कि आज निराश हो चुके नेता भी राहुल के खिलाफ कुछ भी बोलने से परहेज करते हैं. ‘जी-23’ ने अंततः इसलिए मुंह खोला क्योंकि उसका मानना था कि कांग्रेस चोटी से गिरने ही वाली है. सिंडीकेट के साथ इंदिरा का जो द्वंद्व था वैसा आज कुछ भी नहीं है.
तीसरे, इंदिरा इतनी कुशल थीं कि उन्होंने सिंडीकेट से अपनी लड़ाई को सैद्धांतिक रूप दे दिया था. उन्होंने कहा कि सिंडीकेट वाले पूंजीवादी हैं, जबकि वे समाजवाद के लिए लड़ रही हैं. यह दावा कमजोर भले रहा हो मगर कारगर साबित हुआ.
दूसरी ओर, राहुल और उनकी मंडली ऐसा एक भी सैद्धांतिक मुद्दा नहीं पेश कर पाई है जो उसे पार्टी के तथाकथित ‘पुराने’ नेताओं से अलग साबित करता हो. वे एक ही मुद्दे पर असहमत नजर आते हैं, वह यह है कि क्या राहुल को मालूम है कि किसी राजनीतिक दल का नेतृत्व कैसे किया जाना चाहिए. इतने सारे चुनावों के नतीजे तो ‘जी-23’ को ही सही ठहराते हैं.
चौथी बात, इंदिरा जानती थीं कि कदम कब वापस खींचना है. इमरजेंसी के बाद 1977 में हार का सामना करने के बाद वे चुप बैठकर संतुष्ट थीं. कांग्रेस ने उनके बिना ही खुद को खड़ा करने की कोशिश की और उन्होंने उसे ऐसा करने दिया. लेकिन जनता सरकार ने जब उनसे बदला लेने और उन्हें जेल भेजने की कोशिश की तो वे मुक़ाबले के लिए राजनीति में फिर कूद पड़ीं.
राहुल के मामले में उलटा ही हुआ. उन्हें कुछ साल पहले ही संन्यास ले लेना चाहिए था लेकिन वे सक्रिय रहे, और पार्टी से अलग रहने का दिखावा करते हुए उस पर अपने फैसले भी थोपते रहे. भाजपा ने उन्हें जेल भेजने जैसी कोई गंभीर कोशिश नहीं की (जैसी कि जनता सरकार ने उनकी दादी के मामले में की थी). बल्कि राहुल जीतने लंबे समय तक विपक्ष का चेहरा बने रहेंगे, नरेंद्र मोदी के लिए यह मुफीद ही होगा.
कांग्रेस में आज जो कुछ हो रहा है उसका यह सचमुच में एक तमाशाई पहलू है. इसे इंदिरा गांधी, और उन्होंने कॉंग्रेस का जो पुनराविष्कार किया उसके समान कतई नहीं माना जा सकता चाहे राहुल के आदमी ‘पुराने’ नेताओं को जो भी भला-बुरा कहें.
सोनिया गांधी ने कांग्रेस को एक दशक तक सत्ता में रखा और पार्टी के लिए मूल्यवान काम किए. उनके बच्चे ऐसा नहीं कर पा रहे हैं. बल्कि उन्होंने पार्टी को नुकसान ही पहुंचाया है. समय आ गया है कि गांधी परिवार इस सच को कबूल करे और पार्टी को आगे बढ़ने दे. वरना आज की कांग्रेस के बारे में हम इतना ही कह सकते हैं कि उसने मार्क्स की इस उक्ति को उलटपलट दिया है कि इतिहास खुद को पहले एक त्रासदी के रूप में दोहराता है और फिर एक छलावे के रूप में.
आज इतिहास खुद को एक छलावे के रूप में दोहरा रहा है. मार्क्स ने जिस त्रासदी की बात की वह पहले सामने आनी चाहिए थी लेकिन उससे शायद छ्लांग लगा ली गई है. लेकिन इसमें शक नहीं है कि जब यह महान राष्ट्रीय दल नष्ट हो जाएगा तब छलावे के बाद त्रासदी भी सामने आएगी.
(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)
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