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Sunday, 22 December, 2024
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विपक्षी एकता का पुराना चश्मा उतारिये, ‘INDIA’ वोट और सीट से ज्यादा उम्मीदों और संघर्षों को जोड़ने का नाम है

नाम तो बेजोड़ है, अब काम की बारी है. INDIA तभी कामयाब होगा अगर मत की बजाय जनमत और संसद की बजाय सड़क पर एकजुटता को प्राथमिकता बनाये

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‘INDIA’ (भारतीय राष्ट्रीय विकास समावेशी गठबंधन) का गठन साल 2024 में भारत के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हो सकता है, बशर्ते यह सिर्फ विपक्षी दलों की एकता साधने की कवायद भर बनकर ना रह जाये. पुराने ढर्रे यानी चुनाव-पूर्व या चुनाव-बाद के गठबंधन के रूप में `इंडिया` कोई करिश्मा नहीं करने जा रहा.  मत विभाजन को रोकने या फिर जीत ली गई सीटों की संख्या आपस में मिलकर बढ़ाने की पुरानी सोच से फिलहाल बहुत कुछ हासिल होने वाला नहीं है. लेकिन जो विचार भारत की नींव है, अगर इंडिया का नाम का गठबंधन उसे फिर से रचने-गढ़ने और मुखर करने की राजनीति करता है, जनता-जनार्दन की छिपी हुई ताकत को उभारने और दिशा देने और कतार में सबसे पीछे खड़े लोगों के सपनों को उड़ान देने का काम करता है और इस तरह `जुड़ेगा भारत-जीतेगा इंडिया` के अपने नारे पर खरा साबित होता है तो समझिए कि साल 2024 में बिसात पलटने वाली है.

गठबंधन (INDIA) भारत इस दिशा में दो कदम पहले ही उठा चुका है. पटना में 23 जून को हुए जुटान से साबित हुआ कि विपक्षी दल वैसे बिखराव और पस्ती के शिकार नहीं जितना की जान पड़ता है. इस जुटान ने साबित किया कि विपक्षी दल सिर्फ मंच ही साझा नहीं कर सकते बल्कि आपसी एकजुटता कायम करने की दिशा में सुसंगत कोशिश भी कर सकते हैं. फिर 17-18 जुलाई को बेंगलुरु में हुई जुटान ने विपक्षी दलों के इस साझे सामर्थ्य को दिखाया कि आपस के छोटे-मोटे मत-मतांतर भुलाकर वे न सिर्फ सहमति का साझा बयान गढ़ सकते हैं बल्कि अपनी एकजुटता को एक नया नाम भी दे सकते हैं. तकरीबन खात्मे के कगार तक पहुंच चले एनडीए में बुझे मन से जान फूंकने की बीजेपी की कोशिश और प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया से पता चलता है कि सत्ताधारी दल विपक्षी दलों की एकजुटता की इस पहल से परेशानी में हैं. और, अगर ऐसा है तो समझिए कि INDIA की शुरुआत शुभ रही.

`INDIA` नाम के हिज्जे के विस्तार मत जाइए कि इंडियन नेशनल डेवलपमेंट इन्क्लूसिव अलायंस सरीखा इतना बड़ा नाम भला एक सांस में कौन बोल पायेगा. बेशक लोगों को बड़े नाम याद नहीं रहते लेकिन बड़े नाम का छोटा रूप (जैसे इंडिया) हर किसी को याद हो जाता है. और, इस लिहाज से देखें तो `इंडिया` बेजोड़ है. यह नाम देकर विपक्षी दलों ने बड़े दिनों बाद उम्मीद जगाई है कि चुस्त जुमले गढ़ना उन्हें भी आता है. एक तो गठबंधन को `इंडिया` कहकर पुकारने से ये झलक मिलती है कि भारत सिर्फ एक भूगोल का नाम नहीं बल्कि वह एक बुनियादी विचार का भी नाम है और उस विचार के नाम लेवा ना सिर्फ चारों तरफ मौजूद हैं बल्कि उस विचार की राजनीतिक लड़ाई लड़ने के लिए उठ खड़े हुए हैं, साथ ही `इंडिया` का नाम बीजेपी और मीडिया में बैठे उसके दरबारियों के लिए मुश्किलें खड़ी करता है.

आखिर, कोई पार्टी या पार्टी का अंधभक्त `इंडिया` को  किसी भी बहाने कैसे काट सकता है. इंडिया के गठन के बाद बीजेपी के खेमे से जो पहली प्रतिक्रिया आयी है उसके लिए हिन्दी में एक मुहावरा चलता हैः ना निगलते बन रहा है, ना उगलते ! अब बीजेपी `इंडिया` को तो अपने हाथ से फिसलने देने से रही क्योंकि फिर उसके स्टार्ट-अप इंडिया, मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया जैसी झांसों का क्या होगा. और, मोदी यह भांप लेने के लिए खुद ही काफी हैं कि भारत बनाम इंडिया का मुहावरा कम से कम अब की नई पीढ़ी के लोगों के सोच से मेल नहीं खा सकता. मगर, बीजेपी को यह भी कत्तई गवारा नहीं कि विपक्ष `इंडिया` नाम का सेहरा अपने माथे पर बांध लें.

बेशक विपक्षी दलों की एकजुटता के लिए `इंडिया` नाम अच्छा है लेकिन नाम का अच्छा होना मिशन के कामयाब होने की गारंटी नहीं है. नये गठबंधन का भविष्य इस बात पर निर्भर है कि वह अपनी शुरूआती बढ़त का किस बेहतरी से इस्तेमाल कर पाता है. और, शुरुआती बढ़त को बेहतरी से इस्तेमाल करना इस बात पर निर्भर है कि नया गठबंधन किस खूबी से एक बुनियादी सच्चाई को स्वीकार कर पाता है. बुनियादी सच्चाई यह किः इंडिया को विपक्षी एकता के पुराने चश्मे से देखने की जरूरत नहीं. यह पुराना चश्मा तो ये दिखायेगा कि गठबंधन आपस के वोट जोड़ने या फिर सीट जोड़ने के लिए बनाये जाते हैं. लेकिन इंडिया नाम से कायम हुई राजनीतिक एकता वोट और सीट जोड़ने के लिए नहीं बल्कि लोगों की आशाओं को आपस में जोड़ने और देश की गलियों और सड़कों पर उभरने वाले प्रतिरोध के स्वरों को आपस में एकजुट करने के लिए है.


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वोट योग

बैठे-ठाले विपक्षी एकता कायम करने की बचकानी सी कोशिश पर प्रतिक्रिया जताते हुए मैंने दो साल पहले लिखा था कि पुराने तर्ज का गठबंधन बहुत फ़ालतू विचार है और सोच की सुस्ती का नतीजा है. लेख में मैंने वे सारी बातें गिनायी थी कि कैसे तमाम बड़े राजनीतिक दलों को लेकर चुनाव-पूर्व महा-गठबंधन बनाने की सोच बीजेपी को हराने के लिए ना तो काफी है और ना ही जरूरी. दो साल पहले लिखे गये उस पुराने लेख के ज्यादातर तर्क अब भी कारगर हैं. बीजेपी की कामयाबी का राज विपक्षी वोटों का मत विभाजन नहीं है . एकछत्र शासन करने वाली कांग्रेस के खिलाफ विपक्षी एकजुटता का जो तर्क किसी जमाने में काम किया करता था वह अब कारगर नहीं रहा.

इसकी वजह है भारत का चुनावी भूगोल. बहुत से राज्य ( जैसे केरल, पंजाब, तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्रप्रदेश) ऐसे हैं जहां बीजेपी अब भी अपने को बड़ी चुनावी ताकत के रूप में पेश नहीं कर पाई है. ऐसे में इन राज्यों में बीजेपी के खिलाफ पूरे विपक्ष को एकजुट करना बेमानी होगा और एकजुटता की ऐसी कोशिश में लेने के देने भी पड़ सकते हैं. इसके बाद आते हैं पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और ओड़िशा जैसे राज्य जहां कोई ना कोई गैर-बीजेपी पार्टी इतनी ताकतवर है कि उसे विपक्षी एकजुटता की जरूरत नहीं. साथ ही, एक विस्तृत भू-भाग ( मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात और राजस्थान) ऐसा भी है जहां चुनावी टक्कर बीजेपी-बनाम कांग्रेस की होती है और बीजेपी का पलड़ा भारी रहता है. इस भू-भाग में अन्य कोई विपक्षी पार्टी ही नहीं जिसके साथ एकजुटता कायम की जाये. ज्यादातर राज्य जहां वोटों का बिखराव बीजेपी को फायदा पहुंचा सकता है, जैसे महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार और असम— वहां स्थानीय स्तर पर विपक्षी दलों के बीच एकजुटता पहले से ही कायम है.

इसके बाद बचते हैं सिर्फ दिल्ली और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य जहां इंडिया नाम के गठबंधन में शामिल दलों के बीच चुनाव-पूर्व कोई नया गठबंधन हो तो चुनाव-परिणाम पर असर पड़ सकता है. इन राज्यों की अपनी कुछ खास जटिलताएं हैं. सो, एकता कायम करने की किसी भी कोशिश की शक्ल तयशुदा नहीं हो सकती. ऐसी कोशिश आसान होने जा रही है ऐसी उम्मीद ना ही पाली जाये तो बेहतर. यूं भी ऐसा क्यों मानकर चलें कि मतदाता बीजेपी को सत्ता से निकाल बाहर करने के लिए एकदम तैयार बैठा है, उसे बस विपक्ष के कोई साझा उम्मीदवार का इंतजार है.

सीट योग

इस चुनावी भूगोल को देखते हुए आपस में सीटों को जोड़ने की चुनौती कहीं ज्यादा सरल और प्रसांगिक है. अलग-अलग दल अपने-अपने इलाके में सीट जीतें और फिर चुनाव-बाद गठबंधन करके सरकार बनायें. साल 2004 में यूपीए-1 ऐसे ही बना था. इंडिया सरीखा कोई चुनाव-पूर्व गठबंधन चुनाव-बाद होने वाले सीटों के जोड़ की कवायद में मददगार साबित हो सकता है. लेकिन सरकार बनाने पर जोर जरूरत से ज्यादा रहा तो लेने के देने पड़ सकते हैं. बीजेपी यह दुष्प्रचार कर सकती है कि नया गठबंधन अवसरवादी है और सारा विपक्ष सिर्फ एक आदमी को सत्ता से हटाने के लिए एकजुट हो आया है. बहरहाल, साल 2024 में चुनाव-बाद तस्वीर क्या होगी, इसका अभी से अनुमान लगाना हड़बड़ी कहलाएगा. जब तक सीटों की हार-जीत का आंकड़ा अंतिम रूप से सामने नहीं आ जाता हम ये बात निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि बंगलुरू के जलसे में जुटे 26 दल या फिर नये सिरे से बनाये गये एनडीए के 39 दल 2024 के चुनावों के बाद सरकार बनाने के खेल में  कहाँ पर होंगे.

लब्बोलुआब ये कि `इंडिया` नाम की पहल की असली अहमियत ये नहीं कि महज वोट और सीट के योग से विपक्ष के वोटों या फिर सीटों की तादाद कितनी बढ़ाई जा सकती है. सीटों और वोटों के जोड़-जमा के ऐसे सोच के साथ तो परंपरागत तर्ज के गठबंधन बनाए जाते हैं. साल 2024 के चुनावी समीकरण को बदल डालने में `इंडिया` किस हद तक सफल होता है, यह इस बात पर निर्भर है कि वह गली-मुहल्लों में उठने वाले प्रतिरोध के स्वर और लोगों की आशा-आकांक्षा को एकजुट करते हुए लोगों के बीच अपना संदेश किस हद तक ले जा पाता है और उसके लिए क्या जमीनी कार्रवाइयां कर पाता है.


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संघर्ष योग

`INDIA` का गठन करने वाले 26 दलों ने जो अपना पहला ‘सामूहिक संकल्प’ जारी किया है, उसमें ऐसे तमाम मुद्दों की फेहरिश्त दी गई है जिस पर सत्ताधारी पार्टी से INDIA को टक्कर लेना है. इस फेहरिश्त में अधिनायकवादी राजनीति (यानी संविधान, संघवाद, लोकतांत्रिक अधिकार और विपक्षी राजनीतिक दलों पर होने वाले हमले), सामाजिक अपवर्जन (अल्पसंख्यकों तथा समाज के हाशिए के अन्य तबकों के खिलाफ नफरत और हिंसा तथा मणिपुर की त्रासदी) और आर्थिक-संकट (महंगाई, बेरोजगारी, देश लूट रहे पूंजीपतियों से यारी, राष्ट्रीय संपदा की बिक्री तथा किसानों की दुर्दशा) शामिल हैं. ये वास्तविक मसले हैं और इनकी जकड़ से आज देश का गला दबा जा रहा है. सो, इन मसलों को लेकर कदम उठाने की जरूरत है.

INDIA के लिए वास्तविक चुनौती ये है कि इन मुद्दों में किनको वह संघर्ष के प्रधान मुद्दे मानकर चले, किन मुद्दे को अपने राष्ट्रव्यापी संघर्ष-अभियान का आधार बनाये. ऐसा इसलिए कि ऊपर जो मुद्दे गिनाये गये हैं वे लोकसभा के मुख्य चुनावी मुद्दे तभी बन पाएंगे जब 2024 से पहले एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन उठ खड़ा हो. विपक्ष दलों की सरकार और राजनेताओं पर शिकंजा कसने की जो राजनीति चल रही है उसके प्रतिरोध में उठ खड़ा होना बेशक सही है लेकिन ऐसी पहल पर बड़ी आसानी से ये कहते हुए उंगली उठायी जा सकती है कि देखिए, ये लोग तो निहित हितों को बचाने की अपनी स्वार्थ-साधना को प्रतिरोध का नाम दे रहे हैं. महंगाई और बेरोजगारी बेशक राष्ट्रव्यापी आंदोलन के लिए मुख्य मुद्दे प्रतीत होते हैं. किसान-आंदोलनों के साथ अगर तालमेल बैठाया जाए तो बड़ी आसानी से देश के गांव-गांव तक पहुंचा जा सकता है.

सबसे जोरदार हमला मोडाणी पर होना चाहिए— यह मुद्दा फिलहाल पीछे खिसक आया है. सड़कों पर प्रतिरोध की आवाज बुलंद करने के लिए जरूरी है कि `इंडिया` राजनीतिक दलों का जोड़-जमा भर बनकर ना रहे बल्कि दलगत राजनीति के दायरे से बाहर चलने वाले आंदोलनों और जन-संगठनों को भी एकजुट करे. हमारे लिए सीटों के मामले में तालमेल बैठाने से कहीं ज्यादा जरूरी है जमीन पर कायदे से पैर जमाना यानी 2024 के चुनावों से पहले जमीनी स्तर पर प्रतिरोध की आवाजों को एकजुट और एकमूठ करना.

उम्मीद की जोत

सबसे अहम बात ये कि इंडिया नाम की एकजुटता को उम्मीद की लौ जगानी होगी, इसके विश्वास से भारत को रोशन करना होगा. अभी जैसा है, उससे कुछ बेहतर चाहिए, ऐसी बेहतरी के विकल्प मौजूद हैं और ये विकल्प व्यावहारिक हैं, उन्हें अमली जामा पहनाया जा सकता है. इंडिया के संयुक्त वक्तव्य में इस तरफ इशारा करते हुए कहा गया है: “ हम राष्ट्र को एक वैकल्पिक राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक एजेंडा देने का वचन देते हैं. हम वादा करते हैं कि शासन-व्यवस्था की नीति और नीयत को इस तरह बदला जाएगा कि वह और ज्यादा परामर्शी, लोकतांत्रिक और भागीदारी मूलक हो.”

उम्मीदों की जोत जगाने के लिए सबसे जरूरी है वैकल्पिक अजेंडे का होना. लेकिन जनता-जनार्दन का भरोसा इस वैकल्पिक अजेंडा पर तब जमेगा जब उसे लगेगा कि वैकल्पिक अजेंडा सचमुच ईमानदारी से तैयार किया गया है और इस एजेंडे में वास्तविक समस्याओं के लिए व्यावहारिक समाधान की बात सुझाई गई है. ऐसा कर पाना आसान नहीं क्योंकि मुख्यधारा के दलों पर, जिसमें विपक्षी पार्टियां भी शामिल हैं, लोग सहज ही अविश्वास करके चलते हैं. `इंडिया` के हाथों में जनता-जनार्दन से संवाद साधने के लिए एक रचनाधर्मी और ताकतवर औजार का होना जरूरी है ताकि सरकारी और दरबारी मीडिया रोजाना जो झूठ और नफरत परोसता है, उसकी काट की जा सके. `इंडिया` नाम को मुखर करना इंडिया के दिल और दिमाग से अपनापा गांठने की दिशा में पहला कदम हो सकता है.

(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से हैं. उनका ट्विटर हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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