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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतयुवा नेताओं के साथ कांग्रेस का 1970 वाला बर्ताव नहीं चलेगा, भाजपा से ली जा सकती है सीख

युवा नेताओं के साथ कांग्रेस का 1970 वाला बर्ताव नहीं चलेगा, भाजपा से ली जा सकती है सीख

सत्ता को लेकर भाजपा की लालसा खतरनाक लेकिन प्रेरणादायी भी है. यही वजह है कि इसके आलोचक भी राजस्थान संकट के मामले में खुद को बेवकूफ बनाने के लिए कांग्रेस की आलोचना करने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते.

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राजस्थान में पायलट बनाम गहलोत ड्रामे ने कुछ ऐसी परतें उघाड़ दी हैं जिन्हें लेकर भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस पर हमेशा छिपाने का आरोप लगाया है, खासकर राजस्थान और मध्य प्रदेश में अपने मुख्यमंत्री चुनने के मामले में. भाजपा कांग्रेस पर ‘दरबारी’ होने और युवा नेताओं को बर्खास्त या दरकिनार करने के लिए पुराने घाघ नेताओं का पक्ष लेने का आरोप लगाती है. यहां तक कहा जाता है कि कांग्रेस युवा नेताओं को बढ़ावा नहीं देती है क्योंकि वह नहीं चाहती कि कोई भी राहुल गांधी के रास्ते में आड़े आए.

लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया, अदिति सिंह और अब सचिन पायलट से जुड़ी हालिया घटनाएं यह स्पष्ट करती हैं कि यह कांग्रेस की अधीर युवा पीढ़ी है जो पार्टी की रैंक व्यवस्था तोड़ने के लिए खुलकर सामने आ रही है. उनके ऐसा करने की वजहें अलग-अलग हो सकती हैं- लालच, सत्ता की आकांक्षा, निराशा, छिछली विचारधारा, आत्म-सुरक्षा की भावना या फिर एक पुरानी पार्टी के अंदर संगठनात्मक ढांचे से जुड़े असल मुद्दे. लेकिन अपनी बदली सोच के खुले प्रदर्शन में वह लगभग एक ही लय में दिखते हैं.

कांग्रेस के पुराने नेता इस पर जोर देते हैं कि जैसा अशोक गहलोत ने हाल में एक साक्षात्कार में कहा, पार्टी के युवा नेताओं में धैर्य की कमी है. गहलोत ने तर्क दिया कि उन्होंने 1984 में कांग्रेस की राजस्थान इकाई की कमान संभालने के बाद मुख्यमंत्री बनने के लिए 14 साल तक इंतजार किया और सचिन पायलट को भी इसी तरह धैर्य दिखाना चाहिए था क्योंकि राजनीति इसी तरह चलती है.

लेकिन क्या राजनीति इसी तरह काम करती है? और क्या भाजपा का कांग्रेस पर युवा नेताओं को दरकिनार करने का आरोप लगाना न्यायसंगत है? आइए देखते हैं.


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विशाल अंतर

राजनीति में 49 वर्ष के सिंधिया, 42 के पायलट और 50 के राहुल गांधी को युवा माना जाता है. इसे ही ध्यान में रखकर देखते हैं कि भाजपा 55 वर्ष से कम आयु के अपने युवा नेताओं के साथ कैसा व्यवहार करती है.

भाजपा ने उस समय 45 वर्ष की उम्र वाले गोरखनाथ मठ के महंत योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में चुना, जबकि 2017 विधानसभा चुनाव में पार्टी को मिली प्रचंड जीत की वजह थे इसके प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य और दिनेश शर्मा. लेकिन सचिन पायलट के विपरीत, जो वास्तव में कभी उपमुख्यमंत्री की भूमिका में स्थिर नहीं हो पाए और हमेशा इसका इंतजार करते रहे कि कांग्रेस गहलोत द्वारा संभाली जा रही कुर्सी पर उन्हें बैठा दे, मौर्य और शर्मा ने कभी मुख्यमंत्री आदित्यनाथ का डिप्टी होने पर कभी नाखुशी नहीं जताई. शायद, पार्टी संगठन पर अमित शाह की मजबूत पकड़ भाजपा में पदानुक्रम व्यवस्थित बनाए रखती है.

लेकिन आदित्यनाथ का चुना जाना जहां एक सोची-समझी रणनीति थी, वहीं पायलट की नियुक्ति कांग्रेस के लिए एक बाध्यता थी. आदित्यनाथ न केवल एक लोकप्रिय हस्ती हैं और युवाओं के एक वर्ग पर खासा प्रभाव रखते हैं जो उनकी हिंदू युवा वाहिनी के सदस्य हैं, बल्कि भाजपा की हिंदुत्ववादी भाषणशैली पर भी खरे उतरते हैं.

लेकिन आदित्यनाथ को चुना जाना एक जुआ भी था जिसे नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कहने पर यह जानते हुए भी खेला था कि वह कई मौकों पर भाजपा के खिलाफ विद्रोह कर चुके थे. फिर भी, मोदी-शाह ने उन्हें यूं ही नहीं छोड़ दिया और भाजपा में उनकी स्थिति को और मजबूत किया. कुछ लोगों का तो यहां तक कहना है कि वह 2024 में मोदी के उत्तराधिकारी हो सकते हैं.

असम में, हिमंता बिस्वा सरमा की कहानी एक ऐसा उदाहरण है जो युवा नेताओं को लेकर भाजपा और कांग्रेस के नज़रिए में जमीन-आसमान के अंतर को पूरी तरह स्पष्ट करती है. पत्रकार राजदीप सरदेसाई की 2019 में आई किताब: हाउ मोदी वॉन इंडिया के मुताबिक, पूर्व कांग्रेस नेता सरमा ने एक बार सोनिया गांधी से कहा था, ‘अगर आप असम में अगला चुनाव जीतना चाहती हैं तो आपको कांग्रेस का नेतृत्व कर रही पीढ़ी में प्रभावी बदलाव करना होगा.’ 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के बुरी तरह हारने के मद्देनज़र दी गई सरमा की यह सलाह भी कोई बदलाव नहीं ला सकी.

कांग्रेस ने जहां 80 वर्षीय तरुण गोगोई के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का फैसला किया, वहीं भाजपा ने एक बार सरमा के अपनी नाव में सवार होने के बाद राज्य में पार्टी की बागडोर उन्हीं के हाथों सौंप दी. वह 2016 में असम में भाजपा को पहली बार सत्ता में लाने में मददगार साबित हुए और बदले में उन्हें वित्त, स्वास्थ्य, पीडब्ल्यूडी से लेकर शिक्षा तक कई अहम विभागों का प्रभार सौंपा गया.

कांग्रेस चाहे तो वह भी अपने युवा नेताओं के साथ ऐसा तरीका अपना सकती है- इसलिए नहीं कि भाजपा ऐसा करती है, बल्कि इसलिए कि ऐसा करना तर्कसंगत है.


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युवा भाजपा नेताओं को तराशता है आरएसएस

लेकिन आदित्यनाथ और सरमा अपवाद भर नहीं हैं. भाजपा ने अपने युवा नेताओं को नेतृत्व की अहम जिम्मेदारियां सौंपकर सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया है और अब तीसरी पीढ़ी के नेताओं की पौध तैयार कर रही है. हमेशा की तरह आरएसएस इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. सहयोग की स्थापित व्यवस्था के तहत आरएसएस काबिल युवा नेताओं को ढूंढ़ता है और फिर उन्हें भाजपा में भविष्य की भूमिकाओं के लिहाज से तराशता है जैसा इसने मनोहर पर्रिकर के साथ किया. काफी पहले से ऐसे नेताओं को भाजपा में विशेष जगह मिलती रही है जिसमें शामिल हैं सियासी परिवार से जुड़े अनुराग ठाकुर, जिन्हें चुनावों में और पार्टी की हिंदुत्ववादी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है और आरएसएस से निकले एक अन्य कार्यकर्ता तेजस्वी सूर्या, दक्षिण में भाजपा के युवा नेतृत्व का चेहरा हैं जो 2019 के चुनाव में पार्टी के सबसे युवा सांसद बने.

आरएसएस की पृष्ठभूमि वाले अधिकांश भाजपा नेता आज पार्टी में महत्वपूर्ण पदों पर हैं- राम माधव कश्मीर में भाजपा मामलों की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं और पी. मुरलीधर राव, जो कर्नाटक में बी.एस. येदियुरप्पा के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनवाने में केंद्रीय भूमिका में थे, पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं. छत्तीसगढ़ में सरोज पांडे और मध्य प्रदेश के कैलाश विजयवर्गीय अपने-अपने राज्यों में अहम जिम्मेदारी संभालते हैं.

पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को 2018 के ओडिशा विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करके पार्टी ने यह बता दिया था कि उनके लिए क्या संभावनाएं हैं.

झारखंड में भाजपा ने अर्जुन मुंडा को आगे बढ़ाया जो वर्तमान में जनजातीय मामलों के मंत्री हैं. और इससे आगे हैं महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस और उत्तर प्रदेश में स्मृति ईरानी, जिन्होंने 2002 के दंगों के बाद गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी के इस्तीफे की मांग को लेकर आमरण अनशन की घोषणा तक कर दी थी. फिर भी, वह सब भुलाकर 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्हें सत्ता के गलियारों में आगे लाया गया. आखिरकार 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्हें अमेठी में राहुल गांधी के खिलाफ खड़ा किया गया, जहां उन्होंने जीत भी हासिल की. क्या कांग्रेस नेतृत्व कभी इतने खुले तौर पर विरोध जताने वाले को इतनी आसानी से बढ़ावा देगा? जाहिर तौर पर नहीं.


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कांग्रेस की 1970 के दशक वाली राजनीति

कांग्रेस ने सचिन पायलट के सिर्फ यह कहने भर पर उनसे सभी पद छीन लिए कि अगर उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया तो वह पार्टी छोड़ देंगे. टेप लीक हो रहे हैं और एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना जारी है. गहलोत खेमा और कांग्रेस की पूरी आईटी सेल यह साबित करने में जुटी है कि पायलट एक ‘मौकापरस्त’ हैं जिनकी अपनी विचारधारा कभी ठीक नहीं रही.

लेकिन कांग्रेस को 1970 के दशक की भारतीय राजनीति से इतर देखने की जरूरत है. हम एक लंबा सफर तय कर चुके हैं और खेल एकदम बदल गया है. मोदी और शाह के जमाने में हार-जीत नितांत निजी है. भाजपा की सत्ता की लालसा, किसी भी तरह जीत हासिल करना, खतरनाक है लेकिन प्रेरणादायी भी है. यही वजह है कि इसके आलोचक भी राजस्थान संकट के मामले में खुद को बेवकूफ बनाने के लिए कांग्रेस की आलोचना करने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते.

पायलट के जाने से कांग्रेस में प्रतिभा की कमी और गहरा जाएगी. कई लोग सोचते हैं कि कांग्रेस के लिए सबसे अच्छी बात यही हो सकती है कि छिछली विचारधारा वाले नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए. लेकिन यह तो समय ही बताएगा कि करिश्मा विकसित नहीं किया जा सकता, कुछ लोग इसके साथ ही पैदा होते हैं. कांग्रेस अंततः यह तभी समझ पाएगी जब उसे अहसास होगा कि उसके पास नई पीढ़ी के ऐसे नेताओं की कमी है जिनके साथ भारत के लोग खुद को जोड़ सकें.

(लेखिका एक राजनीतिक पर्यवेक्षक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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1 टिप्पणी

  1. Pahli bar mai apke is artical ke liy thmbs up.karta hu……..is artical Mai Jo clerity dikhai iske liy apko thnks……isi type se ache artical likho Jo biasth na ho……apko isi Kam ke liy janta chati hai…

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