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Friday, 20 December, 2024
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कोचिंग सेंटर ‘ब्रोकेन विंडो’ इकोनॉमी की मिसाल हैं, चीन की तरह हमें भी इस पर लगाम लगानी होगी

हमारा शासन कितना बदहाल हो सकता है और हमारा ढकोसला अविश्वसनीय रूप से कितना दुःखद हो सकता है, इसकी मिसाल यह है कि आप युवाओं को शिक्षा देने पर मुनाफा नहीं कमा सकते लेकिन उन्हीं ग्रेजुएटों को वही ट्यूशन देकर करोड़ों कमा सकते हैं.

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पश्चिमी दिल्ली के ओल्ड राजेंद्र नगर में यूपीएससी कोचिंग केंद्र राउ’ज़ आइएएस स्टडी सर्किल की बेसमेंट लाइब्रेरी में तीन छात्रों की डूबने से हुई मौत को लेकर हमारे ‘सिस्टम’ में जरा भी हैसियत रखने वाला हर शख्स कुछ-न-कुछ करने की कोशिश कर रहा है.

दिल्ली हाइकोर्ट ने इस हादसे की जांच का काम सीबीआइ को सौंप दिया है, तो दिल्ली सरकार ने बेसमेंटों में चल रहे कई दूसरे कोचिंग सेंटरों को सील कर दिया है. उसने घोषणा की है कि वह ऐसे व्यवसायों के लिए कानून बनाएगी. कुछ सेंटरों के मालिकों और सीनियर मैनेजरों को गिरफ्तार कर लिया गया है. 

बेतुकेपन की हद यह हुई है कि दिल्ली पुलिस ने उस बाढ़ग्रस्त गली में चलने वाले एक एसयूवी के मालिक और ड्राइवर को गिरफ्तार करके दुनिया भर में सुर्खियां बटोर ली है. शायद उसके एसयूवी ने ही उस बेसमेंट में बाढ़ का पानी ठेल दिया होगा.

इन सेंटरों के कुछ मालिक और सुपरस्टार ‘टीचर’, जिन्होंने इन सेंटरों के साथ लाभकारी व्यापारिक संबंध बना रखे हैं, अब कुछ मीडिया मंचों पर आकर पीड़ितों के प्रति सहानुभूति जता रहे हैं और कुल मिलाकर अपनी सफाई पेश कर रहे हैं.

लेकिन कोई भी इस मूल प्रश्न पर कुछ नहीं कह रहा है कि अगर तुम मोटी फीस लेते हो और अपनी बनाई रीलों से इन्स्टाग्राम पर इतना नाम कमा रहे हो तो इतने असुरक्षित, गंदे और स्लम जैसे हालात में ‘क्लास’ क्यों चला रहे हो? या यह कि वे जब अपने छात्रों से यह वादा करके ऊंची फीस ले रहे हैं कि वे 99.8 प्रतिशत विफलता दर के साथ इस सिस्टम से खिलवाड़ कर सकते हैं तब वे कम-से-कम कुछ बुनियादी सुविधाओं और सुरक्षा पर क्यों नहीं खर्च कर सकते?

यह हमारे उस बकवास सिस्टम में हो रहा है जिसमें शिक्षा से मुनाफा कमाना गैर-कानूनी है. आप यूनिवर्सिटी, कॉलेज, स्कूल चला सकते हैं लेकिन उनसे मुनाफा न कमाने के दिखावे करते हैं.

लेकिन कोचिंग के व्यवसाय के साथ ऐसा कोई मामला नहीं है. उनमें से कई तो शेयर बाज़ारों में सूचीबद्ध हैं या होने जा रहे हैं. हमारा शासन कितना बदहाल हो सकता है और हमारा ढकोसला अविश्वसनीय रूप से कितना दुःखद हो सकता है, इसकी मिसाल यह है कि आप युवाओं को शिक्षा देने पर मुनाफा नहीं कमा सकते लेकिन उन्हीं ग्रेजुएट्स को वही ट्यूशन देकर करोड़ों कमा सकते हैं.

कोचिंग का व्यवसाय कितना बड़ा हो गया है और किस तेजी से बढ़ता जा रहा है इसका अंदाजा इसी से लग सकता है कि केंद्र सरकार उनसे जीएसटी के मद में कितनी रकम वसूल रही है. ‘दिप्रिंट’ की मृणालिनी ध्यानी की यह रिपोर्ट बताती है कि वित्त वर्ष 2019-2020 में उनसे 18 फीसदी की दर से जीएसटी के मद में 2,240 करोड़ रुपये उगाहे गए. इसके पांच साल बाद यह रकम 150 फीसदी बढ़कर 5,517 करोड़ पर पहुंच गई, और अनुमान है कि 2029 तक यह 15,000 करोड़ हो जाएगी.

इस व्यवसाय के आकार और इसकी ताकत का अंदाजा लगाने का एक तरीका और है, देश भर में बड़े अखबारों के पहले पन्ने पर नजर डालिए. अखबारों के पन्नों के रूप में इस महंगे ‘रियल एस्टेट’ के एकड़-पर-एकड़ को खरीदने के लिए इन कोचिंग सेंटरों का अलग से बजट होता है जिस पर वे न केवल अपने सफल ‘छात्रों’ की बल्कि अपने ‘टीचरों’ की तस्वीरों के साथ अपने विज्ञापन जारी करते हैं. 

हर एक को ‘स्टार’ के रूप में पेश किया जाता है. हर एक के नाम के आगे ‘सर’ लगाया जाता है, या महिला ‘टीचर’ (मेरे अनुमान से उनकी संख्या 50 में एक की होती है) को ‘मैम’ कहा जाता है. मेरा ख्याल है, इस तरह भावी शासकों को ‘सर’ या ‘जी-हुज़ूरी’ वाली तहजीब का शुरू में ही पाठ पढ़ा दिया जाता है. यह भारत में, फिल्मी दुनिया के बाहर व्यक्ति की ब्रांडिंग की शायद सबसे बड़ी कवायद है. कोचिंग के व्यवसाय की कामयाबी के लिए इसके सेंटरों के संस्थापकों और टीचरों को सुपरस्टार के रूप में पेश करना जरूरी है. 

ये टीचर आम तौर पर संकोची, उदार और बड़े दिल वाले होते हैं और अपने छात्रों को बड़ी विनम्रता के साथ ज्ञान देते हैं. लेकिन कोचिंग व्यवसाय शिक्षण के लिए एक कलंक है, और इसमें जो सुपरस्टार वाली प्रवृत्ति उभरी है उसके दो मायने हैं. एक तो यह कि सच्चे, गुमनाम, मामूली वेतन पाने वाले शिक्षकों का अपमान है; दूसरे, यह स्पष्ट करता है कि हमारी नियमित शिक्षण व्यवस्था कितनी टूट चुकी है. अगर ऐसा न होता तो लाखों युवा ‘कोचिंग’ के लिए शहरों में क्यों चक्कर काटते?

उनमें से जो सफल होते हैं वे बेशक विज्ञापनों के लिए अपने चेहरे उपलब्ध कराते हैं और उनमें से कुछ को इसके लिए पैसे भी मिलते हैं. इस तरह वे अपना एक खोखला करियर ‘घूसख़ोरी’ के साथ शुरू करते हैं. इसे आप विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म 12th फेल’ देखकर समझ सकते हैं. 

कोचिंग व्यवसाय अगर 30,650 करोड़ के आकार (18 फीसदी की दर से जीएसटी के मद में आए 5,517 करोड़ को आधार मान लें तो) से बड़ा हो गया है और ज्यादा बढ़ता जा रहा है तो इसकी मुख्य वजह यह है कि हमारी सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था टूट चुकी है. कई लिहाज से यह हमारे शासन की उस अर्थव्यवस्था में हमारी बिजली सप्लाई व्यवस्था के अलावा एक और मिसाल है जिसे ‘ब्रोकन विंडो’ वाली अर्थव्यवस्था कहा जाता है.

‘ब्रोकन विंडो’ वाली अर्थव्यवस्था या फरेब का विचार 19वीं सदी के एक फ्रेंच अर्थशास्त्री और सांसद फ़्रेडरिक बास्टियत ने दिया था. उन्होंने एक काल्पनिक दुकानदार जेम्स गुडफ़ेलो का उदाहरण देकर इस विचार को स्पष्ट किया. उसकी एक खिड़की टूट जाती है, जिसे ठीक करने के लिए वह एक बढ़ई को पैसे देता है, इस पैसे से बढ़ई ब्रेड खरीदने के लिए बेकरी वाले को पैसे देता है, इस तरह यह सिलसिला आगे बढ़ता जाता है. बास्टियत कहते हैं कि यह कोई अच्छा सिलसिला नहीं है. यह टूटी खिड़की वाला फरेब है. यहां अवसर की लागत का हिसाब नहीं रखा गया है. गुडफेलो की अपनी दुकान है और उसमें खिड़की है, और उपरोक्त सिलसिले में जुड़े लोग अपने रोजगार में लगे हैं. गुडफेलो खिड़की बनवाने पर खर्च किए गए पैसे से अपने बेटे के लिए जूते या अपने लिए किताब खरीद सकता था. यह एक अच्छा सिलसिला होता.

अब यह देखिए कि हमारे जीवन में यह किस तरह लागू होता है. हम बिजली के लिए सब्सिडी देते हैं, हमारी ग्रिड टूट जाती है, हमारी जनोपयोगी कंपनियां दिवालिया हो जाती हैं, उत्पादकों को भुगतान नहीं मिलते और उन्हें कर्ज देने वाले बैंक मुश्किल में फंस जाते हैं. देश में बिजली सरप्लस में है लेकिन हर कोई बदहाल है. हमारी बिजली गैर-भरोसेमंद है, अक्सर जाती रहती है, और वोल्टेज ऊपर-नीचे होता रहता है, इसलिए हम इनवर्टर और वोल्टेज स्टेबलाइजर में पैसे लगाते हैं, भारी मात्रा में डीजल खरीदकर उसे जलाते हैं और प्रदूषण फैलाते हैं.

इससे हमारी हवा और प्रदूषित होती है, जो पहले से ही प्रदूषित है क्योंकि हम कचरा जलाते हैं, मुफ्त बिजली और पानी का नतीजा पराली जलाने के रूप में मिलता है, यह सिलसिला आगे जारी रहता है. नतीजतन, हम अपने घर के लिए एअर प्यूरिफायर खरीदते हैं, जो एअर कंडीशनर से महंगा पड़ता है. जेनरेटर, स्टेबलाइजर, इनवर्टर, एअर प्यूरिफायर, ये सब हमारी विशाल ‘ब्रोकन विंडो’ अर्थव्यवस्था की देन हैं. शिक्षा भी इससे अलग नहीं है. कोचिंग व्यवसाय इसका सबसे बुरा रूप है.

चीनियों से कोई सीखना नहीं चाहता, लेकिन देखिए कि शी जिनपिंग ने 2021 में इसका क्या इलाज किया. उन्होंने ट्यूशन और कोचिंग के पूरे उद्योग को रातों-रात ध्वस्त कर दिया. कारण यह बताया गया : यह परिवारों का वित्तीय संकट बढ़ा रहा था, असमानता पैदा कर रहा था, परिवारों का समय खराब कर रहा था, और युवाओं को ज्यादा मनोरंजन की चीजों से दूर कर रहा था.

चीन में भारतीय यूपीएससी जैसे संस्थान गाओकाओ के लिए कोचिंग सेंटरों समेत हर चीज पर प्रतिबंध लगा दिया गया. मुनाफे के लिए कोई ट्यूशन नहीं दिया जाएगा, शेयर बाज़ारों में सूचीबद्ध नहीं किया जाएगा, कोई शेयर नहीं बेचा जाएगा, ऑनलाइन शिक्षण सीमा में दिया जाएगा, कोचिंग कंपनियों का कोई विलय नहीं होगा, कोई अधिग्रहण नहीं, कोई शाखा नहीं, कोई विदेशी साझीदारी नहीं. यानी किस्सा खत्म! 

चीनी ‘एडटेक’ कंपनियों ने शेयर बाज़ारों में रातों-रात 1 ट्रिलियन डॉलर गंवा दिए, जो 2008 की वैश्विक मंदी से हुए नुकसान से कहीं ज्यादा थे. जैक मा (उन्हें अलग तरह से तोड़ा गया) के अलावा तीन शीर्ष अरबपतियों लैरी शेन, माइकल यू, झांग बैनशीन को मुख्यतः ‘एडटेक’ व्यवसाय में अपनी संपत्ति में से 50 से लेकर 90 फीसदी तक से हाथ धोना पड़ा. 

शी जिनपिंग जिस हद तक गए उस हद तक जाना अति जैसा भी माना जा सकता है. लेकिन उन्होंने जिस तरह की समस्याओं का निबटारा किया, भारत वैसी ही समस्याओं का सामना कर रहा है. इसलिए कुछ तो करना ही पड़ेगा.  कोचिंग-ट्यूशन-मुनाफा का यह मॉडल टूटी हुई शिक्षा व्यवस्था के ऊपर खड़ा हुआ है. यह एक घोटाला है, एक अभिशाप है, जिसे मिटाना ही होगा.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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