फ़रवरी के महीने में दिल्ली व देश के अन्य हिस्सों में यूं ओला का बरसना ख़ुशी की नहीं चिंता की बात है, यह तेजी से बढ़ते जलवायु परिवर्तन का परिणाम है. ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया में चिंता का विषय बना हुआ है. धीरे-धीरे यह समस्या एक अभूतपूर्व पर्यावरण संकट की तरफ बढ़ रही है जो पिघलते ग्लेसियरों, मौसम के बदलते मिजाज, समुद्र के जलस्तर में वृद्धि, बाढ़, चक्रवात, हिमनदों या ग्लेशियर्स का पिघलना, सर्दियों का मौसम अपेक्षाकृत गर्म होना, छोटे द्वीपों का डूबना, आर्कटिक सागर की बर्फ का पिघलना एवं सूखे के रूप में हमारे सामने प्रकट हो रही है दुनिया भर के वातावरण में हो रहे इस प्राकृतिक बदलाव को अनदेखा करना समाज के लिए घातक साबित हो सकता है.
जब भी हम कोयला, लकड़ी और खनिज तेल को जलाते हैं, जोकि अभी और पिछले 250 वर्षों से आधुनिक समाज के चालक हैं, तब उसमें मौजूद कार्बन वातावरण में उपस्थित ऑक्सीजन से मिलकर कार्बन डाइऑक्साइड गैस का निर्माण करते हैं. ऑक्सीजन के विपरीत इसमें सूर्य के कुछ विकिरण को रोककर सोख लेने की क्षमता होती है जोकि पृथ्वी की सतह से टकराने के बाद लौटकर वापस जा रही होती है.
कुछ अन्य गैस भी ऐसा ही करती हैं जैसे मीथेन (प्राकृतिक गैस के जलने से उत्पन्न) एवं नाइट्रस ऑक्साइड (रासायनिक खाद के उपयोग से उत्पन्न) लेकिन कार्बन डाइऑक्साइड सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह वातावरण में हजारों सालों तक बनी रहती है. इन गैसों में सौर विकिरण को रोककर वातावरण को गर्म करने की इस क्षमता को अंग्रेजी में ग्रीनहाउस प्रभाव एवं इन गैसों को ग्रीनहाउस गैस कहा जाता है एक हद तक कार्बन डाइऑक्साइड प्रकृति में संतुलन बनाए रखने व धरती पर मानव जीवन के लिये आवश्यक तत्व भी है
पूरी दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग की क्या स्थिति है, इसकी तुलना 18वीं सदी के औद्योगिक क्रान्ति की शुरुआत के समय से की जाती है.
दुनिया उस समय से 1 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म हो गई है. उस समय धरती का औसत तापमान लगभग 13.5 डिग्री सेल्सियस थी जो अब 14.5 डिग्री सेल्सियस है. उल्लेखनीय है कि आर्कटिक, उत्तरी अफ्रीका, दक्षिण यूरोप और हिमालय जैसे क्षेत्र और इकोसिस्टम्स (पारिस्थितिकी तंत्र) इस औसत से बहुत अधिक गर्म हो रहे हैं. एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु यह है कि कार्बन डाइऑक्साइड के वातावरण में जाने के तुरन्त बाद ही तापमान में वृद्धि नहीं होती है. गर्मी का समुद्र में पहुंचना और पूरी सतह के गर्म होने में कुछ वर्षों का अन्तराल रहता है. इसलिये पिछले कुछ दशकों में हमने जो अरबों टन कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि की है उससे उत्पन्न पूरी गर्मी को अब भी महसूस करना बाकी है.
हालांकि जलवायु परिवर्तन की शुरुआत प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के साथ सभ्यता के शुरुआत से हजारों सालों पहले से ही मानी जाती है लेकिन 18वीं सदी से बढ़ते कारखानों व कटते जंगलों को मौलिक कारण कहा जा सकता है. बाद के दिनों में पूंजीवादी बाजारवादी व्यवस्था में बढ़ते उपभोग वादी नजरिये ने निजी लाभ के लिए प्रकृति को लगभग नजरंदाज ही कर दिया जिसके परिणाम स्वरुप आज लगातार बदलते मौसम का मिजाज हमारे सामने है. महत्वपूर्ण बात ये है कि पूंजी एकत्रित करने और लाभ कमाने की प्रवृत्ति ही दुनिया की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की संचालक शक्ति है और इसीलिये यह ग्लोबल वार्मिंग की जड़ है.
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जो लोग राष्ट्र-राज्य या दूसरे किसी संदर्भ में इसका विश्लेषण करते हैं, वे इस प्रमुख तर्क को नजरअन्दाज कर देते हैं. ग्लोबल वार्मिंग के मूल में आधुनिक अर्थव्यवस्था को चलाने वाली शक्तियां हैं जैसे कि लाभ कमाने एवं विकास में वृद्धि के लिये होड़. भारत और दुनिया में आय, उपभोग एवं धन एकत्रण में लोगों के बीच बढ़ता हुआ अन्तर भी ग्लोबल वार्मिंग के पीछे प्रामाणिक कारण हैं. विश्व भर में बढ़ रहे कार्बन डाइऑक्साइड के एतिहासिक उत्सर्जन का विवरण देखते हैं तो पाते हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका व यूरोप द्वारा की गई उत्सर्जन की बढ़ोत्तरी, अन्य देशों द्वारा की गई उत्सर्जन की बढ़ोत्तरी से बहुत ज्यादा है ये सही है की उत्सर्जन चंद देशों द्वारा अधिक हो रहा है पर इसकी रोकथाम सामूहिक रूप से ही संभव है
जलवायु परिवर्तन व भारतीय समाज
भारतीय समाज में असामनता की खाई पहले से ही गहरी है जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव से ये खाई विकराल रूप ले सकती है. छोटे और सीमान्त किसान, शहरी गरीब और दूसरे अन्य समुदाय के लोग द्वारा झेली जा रही अन्य समस्याओं को ग्लोबल वार्मिंग और विकराल कर देती है बीज, खाद और खेती में लगने वाली अन्य सामग्रियों की और ऊंची कीमतें; जमीन के पानी का गिरता स्तर; छोटे स्तर पर खेती का कम व्यवहार्य होना, दलित समुदाय के लोगों में भूमिहीनता, सामुदायिक संसाधनों का औद्योगिक और गृह निर्माण कम्पनियों द्वारा अधिग्रहण किया जाना, आदिवासियों से गैर आदिवासियों को भूमि का हस्तान्तरण, महिलाओं के नाम पर जमीन का न होना, बढ़ती कीमतें, आदि.
भारतीय समाज में बरकरार अनेक असमानताओं से जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव भी पड़े हैं और इस परिवर्तन के कारण असमानताएं और विकराल भी हुए हैं. लाखों छोटे और सीमान्त किसानों, जो देश के कुल किसानों के 87 प्रतिशत हैं, खेतिहर मजदूर, गरीब महिलाएं जो ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे कम जिम्मेदार है वह ही उसका बोझ सबसे ज्यादा उठाते हैं. वैसे तो जलवायु परिवर्तन का प्रभाव व्यापक है यहां भारत के सन्दर्भ में वर्णित किया गया है. असमय बारिश और ओले- भारत में जलवायु परिवर्तन का सबसे व्यापक प्रभाव वर्षा पर हुआ है.
आजकल बारिश तब होती है जब नहीं होनी चाहिए और जब होनी चाहिए तब नहीं होती है. कुछ स्थानों पर दक्षिण पश्चिम मानसून जल्दी आने लगा है और अन्य जगहों पर काफी देर से प्रवेश करता है.
किसान बारिश की आस में फसल बोते हैं पर या तो वह नहीं आती है या देर से आती है, या फिर फसल कटने या खलिहान के समय बहुत तेज बारिश होती है जो खड़ी या कटी फसल और चारे को नुकसान पहुंचाती है. ओलावृष्टि में भी पहले से वृद्धि हुई है, उस क्षेत्र में भी जहाँ पहले कभी नहीं हुई. 2015 में इसने 15 राज्यों में 1.8 करोड़ हेक्टेयर जमीन की फसल, जो कि पूरे रबी फसल के रकबे की विशाल 30 प्रतिशत है, को तबाह किया एवं इस कारण से 20,000 करोड़ रुपए का घाटा हुआ. इससे किसानों की आत्महत्याओं की जैसे बाढ़ आ गई जो लगातार बढती ही जा रही है . किसानों को लगातार इन संकटों से मुकाबला करना पड़ रहा है.
भारत में आवश्यक फसलें आज भी वर्षा पर अत्यधिक निर्भर करती हैं; जैसे कि धान और गेहूं के फसल का आधा हिस्सा सिर्फ वर्षा पर निर्भर है. जहां भूजल उपलब्ध नहीं है वहां सूखी जमीन वाले छोटे और सीमान्त किसान, जो अधिकांश गरीब हैं, जलवायु परिवर्तन का यह आघात सहने को मजबूर हैं. ये लोग अक्सर दलित या पिछड़ी जाति या आदिवासी समुदाय के लोग होते हैं. इसके अलावा जब खेती को बड़े पैमाने पर चोट पहुंचती है तो खेतिहर मजदूरों को भी आमदनी का नुकसान होता है. ऐसी परिस्थिति में सरकार द्वारा भी इन्हें नजरअंदाज किया जाता है.
असंतुलित बारिश- वर्तमान में असंतुलित बारिश का दंश किसान झेल रहे हैं आजकल अधिकांश स्थानों पर कई दिनों तक बारिश नहीं होती और कहीं कहीं चंद घंटों में बहुत सी बारिश हो जाती है जो समुद्र के गर्म तापमान से जुड़ा हुआ है इस तरह तेजी से होने वाली बारिश से मिटटी ख़राब होती है. फसल प्रभावित होता है जलवायु परिवर्तन एक प्रक्रिया है जो लम्बे समय में और लगातार होती घटनाओं में परिलक्षित होता है, किसी एक घटना से इसका आकलन संभव नहीं होता लेकिन देश में उत्तराखंड से लेकर केरल के बाढ़ व् चेन्नई व् अन्य प्रदेशों के तूफानों से इसे समझा जा सकता है अंधाधुंध विकास कार्य के नाम पर आज पहाड़ों व् नदियों के ऊपर परियोजनाएं क्रियान्वित की जा रही है जहां प्रकृति की अनदेखी लाजिमी है
सूखे का प्रकोप- मध्य भारत व् उत्तरी भारत में पिछले 15 सालों से सूखे की स्थिति बनी हुई है. ग्लोबल वार्मिंग देश के आन्तरिक क्षेत्रों में सूखा के प्रकोप को बढ़ाता है और पहले से ही सूखे मौसम वाले जगहों पर मिट्टी को और सूखा कर देता है. सुखा पड़ने पर सबसे अधिक प्रभाव खेतिहर मजदूर, छोटे किसान और गरीब महिलाएँ अपने पूरे परिवार के साथ मजदूरी के लिये पलायन के रूप में देखा जा सकता है .
पर्वतीय क्षेत्रों में प्रभाव- हिमालय औसत रूप से 1.5 डिग्री सेल्सियस गर्म हुआ है जोकि भारत के तापमान बढ़ने की औसत से दो गुना से ज्यादा है. यह बढ़ोत्तरी सर्दियों के मौसम में और भी ज्यादा है; पूरे भारत में ठंड का मौसम छोटा होता जा रहा है और उसका तापमान बढ़ता जा रहा है पर यह बदलाव ऊँचाई वाले क्षेत्रों में और अधिक है. कश्मीर और लद्दाख में कम सर्दी के कारण बर्फबारी में बदलाव आया है एवं मध्य और ऊंचाई के क्षेत्रों में बर्फबारी कम हो गई है. बर्फबारी के बजाय बारिश गिरने लगी है. या फिर गलत समय पर बर्फबारी होती है. छोटे ग्लेशियर गायब हो रहे हैं और बड़े ग्लेशियर ऊपर व नीचे से पिघलने लगे हैं. ये सब लोगों के पीने व सिंचाई के लिये पानी की उपलब्धता पर गम्भीर प्रभाव डालते हैं. कहीं झरने सूखने लगे हैं जिन पर स्थानीय लोग निर्भर हैं और कहीं पहाड़ी क्षेत्रों में जंगल में आग लगने की घटनाओं और कीटों में वृद्धि हुई है. पहाड़ी फसलों पर भी इसका विपरीत असर पड़ा है.
स्वास्थ्य पर प्रभाव–जलवायु परिवर्तन की वजह से पहाड़ी व् मैदानी इलाकों में मानव का जीवन असामान्य सा हो गया है, बिमारियों में बढोतरी हो रही है, गरीब लोगों को भोजन तक का संकट हो जाता है लोग बिमारियों से ग्रस्त हो जाते हैं. गर्मी वाले क्षेत्रों में नमी और ठंढे इलाकों में गर्मी के असंतुलित वृद्धि स्थानीय लोगों के जीवन में बड़े बदलाव ला रहे हैं.
तटीय क्षेत्र पे प्रभाव- भारत में पिछले 30 वर्षों में तटीय क्षेत्र में समुद्र का पानी अपेक्षाकृत गर्म होने के कारण समुद्र तल का स्तर ऊंचा हुआ है जिससे लोगों की जमीन व् मकान में कटाव होने लगी है. खेतों का तेजी से लवणीकरण हो रहा है जहां लोग आजीविका के लिए खेती व् मछलीपालन किया करते थे अचानक से तूफान आ जाने के डर से समुद पर आधारित इनकी आजीविका भी खतरे में है. तटीय इलाकों में जमीन सिमटती जा रही है क्यूंकि समुद्र लोगों के घरों तक पहुंच रही है.
शहरी क्षेत्रों पर प्रभाव- शहरी क्षेत्रों में बढती हुई गर्मी का प्रभाव खाद्य सामग्रियों के बढ़ते दामों में देखा जा सकता है जिसकी मार भी गरीब मजदुर लोगों को ज्यादा भुगतनी पड़ती है अमीर तबके निजी लाभ के लिए व् सुविधाभोगी रवैये के कारण लगातार शहरों में ग्लोबल वार्मिग को बढ़ावा दे रहे हैं. विकास के नाम पे प्रकृति को अनदेखी करके देश के तमाम जनता की जिन्दगी को खतरे में डाला जा रहा है.
आज हमें यह महसूस करने की आवश्यकता है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव एक ही साथ सभी क्षेत्रों में भी देखे जा सकते हैं तटीय क्षेत्रों में समुद्र तल का ऊंचा होना तो दूसरी जगह सूखा, उसके आस-पास ही बाढ़, ओलावृष्टि और तेज बारिश हो सकती है यह हर जगह सबसे अधिक गरीबों की खाद्य सुरक्षा, पानी की उपलब्धता, आजीविका, भूमि, और स्वास्थ्य पर आघात करेगा. ग्लोबल वार्मिंग से मुकाबला करने के लिये तत्काल कार्यवाही की आवश्यकता इस कारण से है कि ग्लोबल वार्मिंग के सारे प्रभाव जब एक साथ बहुत बड़े पैमाने पर होंगे तब मानव के लिये इन गम्भीर और खतरनाक समस्याओं से बचना असम्भव हो जाएगा.
जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं की गंभीरता की तुलना में भारत सरकार न तो पर्याप्त तत्पर दिख रही है और न ही कोई ठोस कदम का प्रयास कर रही है ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए कार्बन डाइऑक्साइ के उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य की तरफ भी बढती हुई नजर नहीं आ रही.
वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था को बनाए रखने व् पूंजीपतियों के मुनाफे को ध्यान में रख कर सरकार प्राकृतिक वातावरण की लगातार अनदेखी कर रही है जो देश के आम जनता के लिए घातक साबित हो सकती है. बिडंवना यह है कि बिना स्थानीय लोगों के हितों का ख्याल करते हुए जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित कार्य योजनाओं को भी निजी हाथों में दिया जा रहा है.
गोया निजी कंपनी के मालिक अपने मुनाफे के लिए गरीब किसानो के हितों के साथ साथ प्राकृतिक संतुलन को भी लगातार दरकिनार कर रही है. ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए व्यक्तिगत व् मानवीय प्रयास की आवश्यकता है साथ ही साथ सौर ऊर्जा सहित अन्य प्रौद्योगिकी के समुचित उपयोग, सामाजिक व् राजनितिक नीति पूर्ण कार्य करने की जरुरत है.
जलवायु परिवर्तन से मुकाबला करने के लिए जरुरी है कि पूंजीवाद के मुनाफा कमाने व् निजी सम्पति एकत्रित करने की प्रवृति को चुनौती दी जाए. वर्तमान सरकार द्वारा पूंजीपतियों के हितेषी बनने के बजाय जन पक्षीय राजनितिक निर्णय लेने की जरुरत है जिसके प्रति सरकार बिलकुल उदासीन नजर आती है जिससे सामाजिक असामनता की खाई बढ़ने के साथ साथ ग्लोबल वार्मिंग का ख़तरा गहराता जा रहा है.
(लेखिका जेएनयू में शोधार्थी हैं)