असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के कारण जो गड़बड़झाला पैदा हुआ है उससे कैसे निपटें? अब जबकि अंतिम सूची के प्रकाशित होने से लगा शुरुआती झटका तनिक मंद पड़ा है, तो इस सवाल पर सिर्फ सुप्रीम कोर्ट में ही नहीं बल्कि बाकी मुकामों पर भी ज़रुर ही बहस होनी चाहिए. लेकिन, सवाल पर आगे सोचने से पहले हमें पीछे झांकना होगा और देखना होगा कि आखिर ये गड़बड़झाला पैदा कैसे हुआ. कोई भी निदान सुझाने से पहले रोग को कायदे से जांच-परख लेना ज़रुरी है.
असम के एक नौकरशाह और सुप्रीम कोर्ट के एक जज को छोड़कर आज की तारीख में शायद सभी मानते हैं कि एनआरसी एक नाकाम कवायद है. आपस की लड़ाई ठाने मुद्दे से जुड़े तमाम पक्ष चाहे बाकी बातों पर सहमत ना हों, लेकिन इस एक बात पर उनमें सहमति है कि एनआरसी की कवायद नाकाम रही है. हां, ऐसा मानने के पीछे उनके कारण अलग-अलग हैं. अल्पसंख्यक संगठन और उनसे उठती सियासी आवाज़ें एनआरसी की कवायद को नाकाम बता रही हैं क्योंकि इस कवायद से उनका ये भय सही साबित होता दिख रहा है कि मुसलमानों का मनमाने और बड़े भेदभाव भरे अंदाज़ में अपवर्जन हुआ है, उन्हें सूची से बाहर रखा गया है.
दूसरी तरफ, बीजेपी भी एनआरसी से नाखुश है और उसकी नाखुशी के कारण अल्पसंख्यक संगठनों से बिल्कुल उलट हैं कि जितना सोचा गया था उससे कहीं कम मुसलमान और ज्यादा तादाद में बंगाली हिंदू सूची से बाहर हो गये हैं. सो, अब बीजेपी का ध्यान सूची से मुसलमानों को बाहर रखने के बजाय हिंदुओं को बचाने पर केंद्रित हो गया है. किसी भी समुदाय के लोगों का इस बड़ी तादाद में अपवर्जन मानवाधिकार समूहों के लिए चिंता का सबब है तो ऑल असम स्टुडेन्टस् यूनियन (एएएसयू) नाखुश है कि वो जिस तादाद में विदेशियों की मौजूदगी असम में मानता चला आ रहा था, सूची उसके मुकाबिल बड़ी छोटी है.
मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई अपनी ये नाराजगी पहले ही ज़ाहिर कर चुके हैं कि सूची बनाने की कवायद उनके दिशानिर्देशों के मुताबिक ना हुई. असम सरकार नाखुश है कि सूची उसके बनाये डिजाइन के अनुरुप नहीं. तो, सूची बनाने की कवायद के बाद जो अंतिम नतीजा सामने आया है. उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि यह आगा-पीछा सोचे बगैर सीधे खाई में छलांग लगाने सरीखा काम था, एक विचार के रुप में इतना बुरा कि उसपर अमल ही नहीं किया जाना चाहिए था.
बदलना एक अच्छे विचार का त्रासदी में
लेकिन, एनआरसी का इतना कच्चा पाठ करना ठीक नहीं. दरअसल, एनआरसी से ये जाहिर हुआ है कि कोई अच्छा विचार कैसे एक प्रहसन और त्रासदी में बदल सकता है. हमारे सार्वजनिक जीवन में जो कुछ बुराई है, एनआरसी उसका सटीक उदाहरण है. इस एक उदाहरण से पता चलता है कि हमारे राजनीतिक दल, नागरिक संगठन, नौकरशाही तथा न्यायपालिका सब एक साथ मिलकर किस तरह एक संभावित समाधान को असंभव किस्म की समस्या में तब्दील कर सकते हैं.
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नागरिकता की एक सम्पूर्ण और सत्यापित सूची हो, यह विचार जरा भी बुरा नहीं. ऐसी सूची को तैयार करना और उसका सत्यापन करना किसी भी राज्य का नियमित काम होना चाहिए. असम में तो ऐसा होना और भी जरुरी है क्योंकि वहां लंबे समय से लोगों में ये आशंका व्याप्त रही है कि सूबे में अवैध आप्रवासियों की बड़ी तादाद में घुसपैठ हुई है. किसी को ये बात पता नहीं कि अवैध आप्रवासियों की संख्या कितनी है. लेकिन, हर किसी को ये बात पता है कि बांग्लादेश से आये आप्रवासियों की तादाद लाखों में होगी. इसी कारण बड़े व्यवस्थित तरीके से सत्यापन करने की जरुरत है. संशोधित एनआरसी भारत सरकार के वादे का हिस्सा है, असम समझौते (1985) में भारत सरकार ने इसका वादा किया था. सवाल ये नहीं है कि एनआरसी पर अमल क्यों हुआ बल्कि सवाल ये पूछा जाना चाहिए कि आखिर इसपर अमल में साढ़े तीन दशक कैसे लग गये. इसके लिए बड़ी सुव्यस्थित रीति से सत्यापन की जरुरत थी.
दोष सियासत और अदालत का
पहला दोष तो नेतृवर्ग का ही है. असम समझौते में एनआरसी के बारे में सहमति जताने के बाद कांग्रेस की सरकार इसे अमल में लाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखा सकी.. इसके उलट, कांग्रेस के नेताओं ने ऐसे फांस-फंदे तैयार किये कि एनआरसी कभी अमल में ही ना पाये. इन नेताओं ने संकेत देने शुरु किये कि एनआरसी को लेकर ज्यादा गंभीर होने की जरुरत नहीं.
आप्रवासी विरोध का सबसे बड़ा आंदोलन असोम गण परिषद् (एजीपी) की सरकार बनी, तो वो भी सत्ता में होने के बावजूद अपने ही मुख्य अजेंडे पर अमल करने में नाकाम रहा. एनआरसी सरीखे महत्वपूर्ण मसले पर सब हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे. मानवाधिकार संगठन और प्रगतिशील आंदोलनों ने हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने को जायज ठहराने के लिए सिद्धांतों की जमीन से तर्क मुहैया कराये. मैदान एकदम ही खुला छोड़ दिया गया कि बीजेपी सत्ता में आये तो आप्रवासी विरोधी अजेंडे को मुस्लिम विरोधी अभियान में तब्दील करे.
सो, 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने अनिच्छुक कांग्रेस सरकार (और बाद को ऐसी ही अनिच्छुक बीजेपी सरकार) को एनआरसी पर अमल के लिए मजबूर किया और इससे यही जाहिर हुआ कि जो काम राजनीतिक तबके को बहुत पहले कर लेना चाहिए था वो काम सुप्रीम कोर्ट के जोर देने पर शुरु हुआ. और, ठीक इसी मुकाम पर एनआरसी पर अमल के लिहाज से जरुरी राज्य की क्षमता का मसला आन पड़ा. राज्य की नौकरशाही इस हालत में थी ही नहीं कि एनआरसी सरीखी बड़ी और विशेष महत्व की कवायद को पूरी तटस्थता से अंजाम दे सके और वो भी उस वक्त जब कट-ऑफ डेट के 50 साल बीत चुके हों.
सुप्रीम कोर्ट ने तकनीकी तौर पर बड़ी ही जटिल प्रक्रिया के पालन पर जोर दिया और इससे मामला ज्यादा जटिल हुआ. बीजेपी के उभार की राजनीतिक परिस्थितियों तथा आप्रवासियों को किसी दूरस्थ स्थान पर भेजने तथा उन्हें नजरबंद करने के चर्चों के बीच एनआरसी के लिए बतायी गई प्रक्रिया का पालन करना तकरीबन नामुमकिन हो गया. ऐसे में जाहिर है एक अफरा-तफरी भरी स्थिति सामने आयी: भ्रम की हालत बनी, गलतियां हुईं, भ्रष्टाचार और भेदभाव हुआ. ऐसे में चाहिए था कि कोई आगे बढ़कर पूरी प्रक्रिया को रोक दे और मामले पर पूरी सतर्कता बरतते हुए पुनर्विचार किया जाय. ये काम सुप्रीम कोर्ट ही कर सकता था.
चीफ जस्टिस गोगोई इस मामले की शुरुआत से ही सुनवाई कर रहे हैं. लेकिन अफसोस कि उन्होंने मसले को निजी प्रतिष्ठा का विषय बना लिया और चेतावनी के हर संकेत को खारिज किया. कोई जज अपनी सुनवाई में चल रहे किसी मामले को छोड़ना चाहे तो इसमें कोई हर्जा नहीं. जज का अपना इलाका तथा अपना समुदाय मामले से जुड़ा हो तो चीजें और भी ज्यादा हो जाती हैं. चीफ जस्टिस गोगोई अपने को मामले की सुनवाई से अलग कर सकते थे. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. न्यायपालिका ने जो अधीरज दिखाया उसी का नतीजा है कि एनआरसी को लेकर आज हम गड़बड़झाले के इस मुकाम पर खड़े हैं.
एकमात्र समाधान
तो अभी के मुकाम पर आकर अगर चक्का फंस गया है तो फिर हमें क्या करना चाहिए ? एक सरल सा रास्ता तो यही है कि कोई चीज गले की फांस बन रही है तो हम उससे फिलहाल के लिए तौबा कर लें. लेकिन ऐसा करना बहुत बड़ी गलती होगी क्योंकि एक बड़ी समस्या आगे लिए टाल दी जाय तो फिर ये आशंका लगी रहेगी कि बाद के वक्त में समस्या का समाधान कहीं और ज्यादा बुरा ना निकले. हम फिलहाल एनआरसी के मोर्चे पर जहां पहुंच गये हैं वहां से पीछे जाना नहीं हो सकता.
दूसरी तरफ, एनआरसी को लेकर उत्साह दिखाने वाले कुछ सज्जन चाहेंगे कि एनआरसी अपने तार्किक परिणाम तक पहुंचे यानि अवैध आप्रवासियों को खोजा जाय, मतदाता सूची से उनका नाम मिटाया जाय और उन्हें मुल्क की सरहद से बाहर कहीं और भेज दिया जाय. लेकिन ऐसा करना बेवकूफी भरा और खतरनाक होगा. कहीं बाहर भेज देना या फिर नजरबंद कर लेने का विकल्प नहीं है. बीजेपी अपने मनचीते तरीके से एनआरसी को उसके तार्किक परिणाम तक पहुंचाना चाहेगी और इसके लिए वो एनआरसी को प्रस्तावित नागरिकता (संशोधन) विधेयक के साथ जोड़कर देखेगी. इसका मतलब होगा कि राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर से अवैध आप्रवासी मुसलमान तो बाहर हो जायेंगे लेकिन अवैध आप्रवासी हिन्दू नहीं. ऐसा करना बड़ा घृणित और द्विराष्ट्र सिद्धांत पर अमल करने जैसा होगा.
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अभी हम लोग जिस मुकाम पर आ चुके हैं उसमें रास्ता बस यही बचता है कि हम हाल में प्रकाशित एनआरसी को अंतिम नहीं बल्कि अंतरिम सूची घोषित करें और सूची का पूरी तटस्थता बरतते हुए पुनरावलोकन हो. इसके बाद किसी व्यक्ति विशेष की अपील पर सुनवाई के लिए उसके मामले में अदालत में समाधान तलाशा जाये. पुनरावलोकन का काम ना तो सूबे की सरकार के हाथ में होना चाहिए और ना ही केंद्र सरकार के हाथ में.
चूंकि सुप्रीम कोर्ट के कारण मामला अब इस हद तक आन पहुंचा है इसलिए कोर्ट को चाहिए कि वो स्वतंत्र पुनरावलोकन के लिए व्यवस्था करे और पुनरावलोकन का काम सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज की देखरेख में हो. साथ ही, ये बात भी स्पष्ट कर देनी होगी कि अगर किसी का नाम एनआरसी की सूची में नहीं आ पाया है तो इसका ये अर्थ ना लिया जाय कि उसे दंडित किया जायेगा, बस ऐसे व्यक्ति का नाम मतदाता सूची से हटा लिया जायेगा और जिस किसी भी अवैध आप्रवासी का नाम सूची से हटेगा उसे तत्काल निवास और जीविका हासिल करने का परमिट दिया जायेगा. ऐसे अवैध आप्रवासियों के भारत में जन्मे बच्चे नागरिकता के हकदार माने जायेंगे. ये समाधान कोई आदर्श समाधान तो नहीं कहला सकता, ना ही ऐसा समाधान मामले से जुड़े विभिन्न पक्ष चाहते हैं लेकिन अभी के गड़बड़झाले से निकलने के लिए अब यही एकमात्र रास्ता है.
आखिर में एक बात सबक के तौर पर यह कि एनआरसी सरीखी कवायद देश में अब कहीं नहीं होनी चाहिए.
(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)
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