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Friday, 1 November, 2024
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नागरिकता कानून पर पूर्वोत्तर के विरोध प्रदर्शनों से जाहिर है कि इस लड़ाई में मुसलमान अकेले हैं

नागरिकता कानून पर पूर्वोत्तर में जारी अशांति शायद ही धर्मनिरपेक्षता को लेकर है. लोग बस अपनी विशिष्ट जनजातीय संस्कृति को बाहर से आए बंगालियों से सुरक्षित रखना चाहते हैं.

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नागरिकता कानून पर जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों के विरोध प्रदर्शन और हिंसक झड़पों से रविवार को दिल्ली हिल गई. शीघ्र ही, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों ने भी अपने स्तर पर विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया.

नए नागरिकता कानून का सार यही है कि भारत में सबका स्वागत है, सिवाय मुसलमानों के.

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक बार कहा था कि अल्पसंख्यकों, ‘खास कर मुस्लिम अल्पसंख्यकों’ को ‘विकास के फायदों में बराबर की हिस्सेदारी के लिए सशक्त’ बनाया जाना चाहिए और ‘संसाधनों पर उनका पहला दावा होना चाहिए.’ पर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व वाली भाजपा ने हमेशा इस बात पर ज़ोर दिया है कि भारत सर्वप्रथम बहुसंख्यकों का है. भाजपा भारत को फिर से महान बनाना चाहती है, पर सिर्फ हिंदुओं के लिए.

इसलिए, यदि आप अवैध प्रवासी हैं पर मुसलमान नहीं हैं, तो आप किस्मत वाले हैं. संसद में नागरिकता (संशोधन) विधेयक पारित होने के बाद अब आप रातोंरात ‘घुसपैठिया’ और ‘दीमक’ कहे जाने वाले अवैध प्रवासी से भारत के नागरिक बन सकते हैं. पर ख़ुदा ना करे, यदि आप मुसलमान हैं और अपनी भारतीय नागरिकता का सबूत देने में नाकाम रहते हैं, तो फिर आप ‘दीमक’ हैं और आपको रोगाणुनाशक उपचार के लिए तैयार रहना चाहिए. आपको नागरिकता नहीं दी जाएगी, इसलिए नहीं कि आपने संबंधित प्रक्रियाओं को पूरा नहीं किया, बल्कि इसलिए कि आप मुसलमान हैं. नए नागरिकता कानून और राष्ट्रव्यापी एनआरसी लाने के पीछे भाजपा का यही तो उद्देश्य है.

आइए एक पल के लिए राज्यसभा में गृहमंत्री अमित शाह के बयान को सच मान लेते हैं कि नागरिकता कानून मुसलमान-विरोधी नहीं है. ये भी मान लेते हैं कि भलेमानस शाह सिर्फ लियाक़त-नेहरू समझौते के टूटे वायदों को पूरा करने तथा बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों के साथ न्याय करने के उद्देश्य से नया कानून लेकर आए हैं.


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भारत के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पूर्व पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान के बीच 1950 में हुए समझौते में इस बात की वचनबद्धता थी कि दोनों ही देश अल्पसंख्यकों के लिए ‘एकसमान नागरिकता’, ‘जीवन की पूर्ण सुरक्षा’ और ‘देश के भीतर आवागमन की स्वतंत्रता’ सुनिश्चित करेंगे.

वास्तव में, पूर्वोत्तर में नागरिकता कानून को लेकर चल रहा आंदोलन शायद ही धर्मनिरपेक्षता को लेकर है. पूर्वोत्तर के लोग बस अपनी विशिष्ट जनजातीय संस्कृति को बाहर से आकर बसे बंगालियों से सुरक्षित रखना चाहते हैं. उन्हें इस बात से मतलब नहीं है कि प्रवासी बंगाली हिंदू हैं, मुसलमान हैं, या फिर नास्तिक हैं.

हालांकि सीएबी के खिलाफ भारत के अन्य हिस्सों में विरोध प्रदर्शन ने एक बात को जरूर स्पष्ट कर दिया है. इससे जाहिर हो गया कि कैसे महज पहनावे के आधार पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी एक समुदाय को निशाना बना सकते हैं. मोदी ने रविवार को कहा, ‘कपड़े से ही पता चल जाता है कि हिंसा फैलाने वाले लोग कौन हैं.’

मुसलमान अब इस लड़ाई में अकेले हैं.

निशाने पर मुसलमान

यदि संशोधित नागरिकता कानून को अलग रखकर देखा जाए तो ऐसा लग सकता है कि मुस्लिम-बहुल देशों में उत्पीड़ित अल्पसंख्यक एक गरिमापूर्ण जिंदगी का मौका दिए जाने के हकदार हैं. आखिर मुसलमानों के लिए दो नए देश स्थापित हुए थे. दोनों तरफ से मुस्लिम-बहुल देशों से घिरा अकेला भारत ही तो है जो वहां के तमाम गैर-मुस्लिमों को संरक्षण दे सकता है, ये भी मान लेते हैं कि इन मुस्लिम-बहुल देशों में धार्मिक आधार पर मुसलमानों का उत्पीड़न नहीं होता है, हालांकि इस दावे को खारिज किया जा चुका है क्योंकि अहमदियों, बलूचों और रोहिंग्यों को वास्तव में उत्पीड़न सहना पड़ रहा है.

पर सरकार के कदमों को अलग करके देखना नादानी होगी. भाजपा नेता और जम्मू कश्मीर के पूर्व उपमुख्यमंत्री निर्मल सिंह ने अनुच्छेद 370 को निरस्त किए जाने के तुरंत बाद कहा था कि लद्दाख की संस्कृति को अक्षुण्ण रखने के लिए शेष भारत को वहां ज़मीन-जायदाद खरीदने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. उन्होंने कश्मीरियों, 97 प्रतिशत मुसलमान, की चिंता नहीं की जबकि अपनी पहचान सुरक्षित रखने के लिए कश्मीरी संघर्ष करते रहे हैं और उनकी भी यही मांग है.

इसी तरह, तीन तलाक़ विधेयक में तीन बार तलाक़ बोलकर बीवियों को छोड़ देने वाले मुस्लिम मर्दों को अपराधी करार दिया गया है, जबकि इस मुद्दे पर निष्पक्षता के साथ विचार किया जाता तो ऐसे कानून में अपनी पत्नी को छोड़ने वाले हर शख्स को दोषी ठहराया जाता, उसका धर्म चाहे कोई भी हो.

इसी प्रकार, असम में एनआरसी की अंतिम सूची में शामिल नहीं किए गए बंगाली हिंदुओं को अमित शाह ने नागरिकता दिए जाने का आश्वासन दिया था. हालांकि गृहमंत्री ने गत सप्ताह ये कहकर आशंकाओं को दूर करने की कोशिश की कि ‘किसी को हिरासत शिविरों में नहीं जाना पड़ेगा’, पर इसमें मुसलमानों को आश्वस्त करने वाली बात नहीं थी.


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और अब एक ऐसा नागरिकता कानून लाया गया है जिसमें मोहन, श्याम, कृष्ण और हसन, सभी को अवैध करार दिया जा सकता है, पर सिर्फ एक को इसका परिणाम भुगतना पड़ेगा. मोदी-शाह सरकार का हर फैसला मुसलमान विरोधी कथानक को सामान्य बनाने वाला रहा है. बहुतों को सरकार द्वारा आगे समान नागरिक संहिता और जनसंख्या नियंत्रण उपाय लागू किए जाने की अपेक्षा है, और इन सबसे भविष्य की एक स्पष्ट तस्वीर उभरती है, हिंदुत्व में सराबोर.

भारत की अवधारणा

सोशल मीडिया और व्हाट्सएप पर मुस्लिम-विरोधी दुष्प्रचार एक बड़ी साजिश का हिस्सा नज़र आता है. आम भारतीयों के मन में ये धारणा दृढ़ होती जा रही है कि मुसलमान दर्जन के हिसाब से बच्चे पैदा करते हैं और कांग्रेस के तुष्टिकरण प्रयासों के तहत निर्मित कानूनों में उन्हें विशेष और बिल्कुल ‘अनावश्यक’ तरजीह मिल रही है. ये बात और है कि पिछले दशक के दौरान मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर में हिंदुओं के मुकाबले कहीं अधिक गिरावट आई है, और यह भारत के इतिहास में अब तक के न्यूनतम स्तर पर है.

भारत की अवधारणा कभी भी हिंदू राष्ट्र की या सर्वप्रथम हिंदुओं के राष्ट्र की नहीं रही है. भारतीय संविधान के मुख्य निर्माता बीआर आंबेडकर ने स्पष्ट कहा था, ‘यदि हिंदू राज हकीकत में बदलता है, तो निश्चय ही ये देश के लिए सबसे बड़ी विपदा होगी. हिंदू चाहे जो भी कहें…हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोकना होगा.’

यदि सुप्रीम कोर्ट संशोधित नागरिकता कानून को निरस्त नहीं करता है, और संभावना के अनुरूप एक राष्ट्रव्यापी एनआरसी प्रक्रिया चलाई जाती है, तो नागरिकता खोने वाले एकमात्र व्यक्ति मुसलमान होंगे. मजाक में कही जाने वाली यह बात जल्दी ही वास्तविकता बनती दिख रही है कि अपनी शैक्षिक योग्यता संबंधी दस्तावेज पेश नहीं कर पाने वाले प्रधानमंत्री को गरीब मुसलमानों से नागरिकता प्रमाणित करने वाले दस्तावेजों की अपेक्षा है.


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खबर है कि कर्नाटक में मस्जिदों द्वारा लोगों को नागरिकता प्रमाणित करने वाले दस्तावेज तैयार रखने के लिए आगाह किया भी जाने लगा है क्योंकि कागजात अधूरे पाए जाने पर सिर्फ मुसलमानों, खास कर गरीब मुसलमानों को अलग निकाला जाएगा.

मोदी और शाह अब द्विराष्ट्र सिद्धांत को मान चुके हैं.

(लेखिका एक राजनीतिक प्रेक्षक हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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