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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतफिलहाल कोई जंग नहीं, लेकिन ताइवान पर अमेरिका के सब्र की सीमा पता लगने तक चुप नहीं बैठेंगे शी जिनपिंग

फिलहाल कोई जंग नहीं, लेकिन ताइवान पर अमेरिका के सब्र की सीमा पता लगने तक चुप नहीं बैठेंगे शी जिनपिंग

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपने दो वर्षों के कार्यकाल के दौरान इस धारणा को गलत साबित करने की कोशिश की है कि किसी छोटे से क्षेत्र के लिए अमेरिकी तीसरे विश्व युद्ध की शुरुआत नहीं करना चाहेंगे.

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उस टेबल के पास ही एक रंगबिरंगा म्युरल लटका था जहां दुनिया का भविष्य तय होने वाला था. दरअसल, ये म्युरल लांग मार्च के दौरान रेड आर्मी की जीत को दर्शाने वाली एक पेंटिंग है. इसमें दिखाया गया कि नंगे पांव गुइझोउ की घाटियों और जंगलों को पार करते अपने सैनिकों का नेतृत्व कर रहे कमांडर हसियाओ केह कैसे उन्हें लांग मार्च में जीत के लिए उत्साहित करते हैं. और अंतत: इसका नतीजा रेड आर्मी की शानदार जीत के तौर पर सामने आया. शायद यह चित्र देख उत्साहित हो जाने का ही नतीजा था कि अब बुजुर्ग हो चुके प्रधानमंत्री झोऊ एनलाई ने पूरे जोश और भाव-भंगिमाओं के साथ उस जंग का ‘विस्तृत ब्योरा दिया और सैन्य कार्रवाइयों की बारीकियां बताना भी नहीं भूले.’

अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने इस पर पूरी विनम्रता के साथ जवाब दिया, ‘ऐसा लगता है कि पूरा ब्योरा सुनने के बाद हमें युद्ध में आपका सामना करने की कोई आवश्यकता नहीं है.’

इस शिखर सम्मेलन के आयोजन से पिछले वर्ष एक गोपनीय वार्ता के दौरान झोउ ने आगाह किया था, ‘ताइवान एक महत्वपूर्ण मुद्दा है.’ उन्होंने कहा, ‘ताइवान को चीन का हिस्सा माना जाना चाहिए. ताइवान चीन का एक प्रांत है.’

कभी सम्राट झांगजोंग के पसंदीदा फिशिंग स्पॉट रहे बेहद खूबसूरत दियायुताई पैलेस में म्युरल से सजी टेबल पर निक्सन और झोउ की आमने-सामने मुलाकात के पांच दिन बाद दोनों देशों ने उस करार पर दस्तखत किए जिसे शंघाई कम्युनिके कहा जाता है. संयुक्त राज्य अमेरिका ने ताइवान से अपने सैन्य बल हटाने की चीन की मांग स्वीकार कर ली थी और माना था कि ‘ताइवान चीन का ही एक हिस्सा है.’ साथ ही स्पष्ट किया था कि वह ‘ताइवान मसले के शांतिपूर्ण समाधान’ की उम्मीद करता है.

ताइवान पर मंडराता संकट

इस हफ्ते के शुरू में बाली (इंडोनेशिया) में जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान राष्ट्रपति जो बाइडेन और शी जिनपिंग की मुलाकात हुई. उम्मीद थी कि अपने-अपने देशों में सर्वोच्च पदभार संभालने के बाद पहली बार आमने-सामने हुई मुलाकात में दोनों नेता ताइवान में खतरनाक स्तर तक बढ़े तनाव पर काबू पाने की कोशिश करेंगे. पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने जहां दोनों देशों को विभाजित करने वाली कथित मध्यरेखा तक अपने युद्धक जेट घुसाकर इस द्वीप राष्ट्र की सैन्य नाकाबंदी का एक कृत्रिम अभ्यास किया है, वहीं कम्युनिस्ट पार्टी की कांग्रेस ने पुरजोर तरीके से कहा है कि ‘इतिहास का पहिया घूमकर इसके चीन के साथ पुनर्मिलन की ओर बढ़ रहा है.’

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उधर, अमेरिकी नौसेना ऑपरेशन के प्रमुख एडमिरल माइकल गिल्डे ने आगाह किया है कि बीजिंग खुद को अगले साल के शुरू तक द्वीप राष्ट्र पर हमले में सक्षम बनाने की तैयारियों में जुटा है.

हैल ब्रांड्स जैसे स्कॉलर तर्क देते हैं कि मौजूदा समय में जब ताइवान आर्थिक गतिरोध, जनसांख्यिकीय में कमी और कुछ प्रौद्योगिकी प्रतिबंधों के कारण आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स क्षेत्रों में चुनौतियां झेल रहा है, शी जिनपिंग को पता है कि यह उस पर कब्जे का एक अच्छा मौका हो सकता है, अन्यथा वह इसे हमेशा के लिए गवां देंगे. यह भी मुमकिन है कि ताइवान पर शी के आक्रामक तेवरों के पीछे असल इरादा एशियाई पड़ोसियों को डराना ही हो, इस उम्मीद के साथ कि अमेरिका तो यूक्रेन युद्ध में इस कदर फंस चुका है कि एशियाई संकट में किसी भी तरह के दखल का जोखिम नहीं उठाना चाहेगा.

वैसे, शी के असली इरादों के बारे में उनके अलावा शायद ही कोई जानता हो लेकिन उन्होंने यह दांव शायद इसलिए भी चला होगा कि मध्यावधि चुनावों तक बाइडेन की स्थिति कमजोर हो जाए. इससे अमेरिकी नीति-निर्माता देश की आंतरिक स्थिति पर ध्यान देने और अर्थव्यवस्था को क्षति पहुंचाने वाले संकट से उबरने की कवायद में जुट जाएंगे.

हालांकि, अपनी तरफ से ताइवान के साथ युद्ध न छेड़ने के लिए भी पीपुल्स रिपब्लिक के पास कई बड़े कारण हैं. एक, यह संघर्ष काफी खर्चीला साबित होगा. चीन के लिए ताइवान एक प्रमुख निवेशक और बड़ा बाजार है. इसके अलावा, युद्ध जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों के साथ चीन के महत्वपूर्ण व्यापारिक संबंध टूटने की वजह बन सकता है. यही नहीं, अगर ड्रैगन ये सारे आर्थिक झटके झेलने में सक्षम भी हो तो एक सैन्य ताकत के तौर पर ताइवान हमलावर सेना को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए पूरी तरह तैयार है.

यद्यपि, ताइवान पर किसी समझौते के आसार नहीं है, क्योंकि यह मुद्दा विचारधारा और क्षेत्रीय प्रभाव वाले मुद्दों से भी जुड़ा है. फिर भी, शी के साथ अपनी मुलाकात के दौरान बाइडेन ने चीन की ‘ताइवान के प्रति दमनकारी और बेहद आक्रामक कार्रवाइयों को रेखांकित किया, जो सिर्फ ताइवान जलडमरूमध्य में ही नहीं, व्यापक क्षेत्र में शांति और स्थिरता को कमजोर करती हैं.’ वहीं, शी ने इस पर जोर दिया कि ताइवान ‘पहली ऐसी रेड लाइन है जिसे पार नहीं किया जाना चाहिए.’

अपने पूर्ववर्तियों की तरह शायद शी भी खुद से यह सवाल करना चाहेंगे—वास्तव में ताइवान पर अमेरिका के सब्र की सीमा कहां तक है?


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चीन को सही तरह से आंकने में चूका अमेरिका

1969 में अपने चुनाव से पूर्व निक्सन ने प्रभावशाली पत्रिका फॉरेन अफेयर्स में एक लेख लिखा था, जिसने ही एक तरह से उनकी चीन नीति की नींव रखी. 1949 की क्रांति के बाद से ही अमेरिका साम्यवाद को एशिया में अपने हितों के लिए एक खतरा मानते हुए चीन को मान्यता देने से इनकार करता रहा था. निक्सन ने तर्क दिया, ‘चीन के अपना रवैया बदलने तक दुनिया को सुरक्षित नहीं माना जा सकता. इसलिए हम जिस हद तक भी घटनाओं को प्रभावित कर सकते हैं, हमारा इरादा यही होगा कि बदलावों पर जोर दिया जाएगा. इसका एक ही तरीका है कि चीन को खुद को बदलने पर राजी किया जाए.’

राष्ट्रपति निक्सन ने दरअसल एक बड़ा दांव चला था, क्योंकि ऐसा माना जा रहा था कि वियतनाम से हटने के लिए चीन को वाजिब कारण मिल जाएगा और वह सोवियत संघ के खिलाफ शीत युद्ध में सहयोगी बनने की क्षमता भी रखता है.

जैसा डिक्लासीफाइड डाक्यूमेंट दर्शाते हैं, ऐसा करने के लिए निक्सन चीन को सोवियत संघ के खिलाफ सुरक्षा गारंटी देने को भी तैयार थे, भले ही पीएलए ने वियतनाम में अमेरिकी सैनिकों के खिलाफ जंग लड़ी थी. उन्होंने अमेरिकी नौसेना को ताइवान जलडमरूमध्य से वापस बुला लिया और 1954 की यूएस-ताइवान द्विपक्षीय रक्षा संधि के तहत द्वीप पर तैनात सैनिकों की चरणबद्ध वापसी के लिए भी हामी भर दी.

यह अमेरिकी रुख में एक आमूलचूल बदलाव था. 1950 में दक्षिण कोरिया के हमला करने के बाद से ही अमेरिकी सेना ताइवान जलडमरूमध्य में निरंतर अपनी उपस्थिति का दावा करती रही थी जो फिर किसी हमले की स्थिति में सैन्य बल के इस्तेमाल से गुरेज न करने की उसकी मंशा को दर्शाता था.

इसके बाद 1954 में ही पीएलए ने ताइवान के प्रति अमेरिकी रुख का सही अंदाजा लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, और एक-एक करके ताइवान के तटवर्ती द्वीपों को अपना निशाना बनाया. फिर उसी साल अंत तक द्वीप की डाइचेन चेन पर पीएलए ने कब्जा भी जमा लिया. अमेरिका ने इसका जवाब सात विमानवाहक पोतों का एक बेड़ा भेजकर दिया. इस शक्ति प्रदर्शन ने राष्ट्रपति ड्वाइट आइजनहावर को ताइवान के साथ परस्पर रक्षा संधि पर हस्ताक्षर के लिए प्रेरित किया. युद्ध की आशंका बढ़ती देख आखिरकार चीन ने ताइवान पर अपने कदम पीछे खींच लिए.

इसके बाद, 1958 में पीएलए ने एक बार फिर किनमेन और मात्सु द्वीपों पर गोलाबारी की. इस बार, अमेरिका ने परमाणु हथियारों से लैस चार विमानवाहक पोतों के साथ एक बेड़ा वहां भेज दिया. इस आशंका में कि, यह संकट एक बड़े युद्ध में तब्दील हो सकता है, सोवियत संघ ने चीन को पीछे हटने के लिए बाध्य किया.

यद्यपि, चीन के साथ निक्सन के सौहार्दपूर्ण रिश्तों ने ताइवान-अमेरिका परस्पर रक्षा संधि को खत्म कर दिया. लेकिन ताइवान रिलेशन एक्ट अब भी अमेरिका को इस बात के लिए प्रतिबद्ध करता है कि ‘ताइवान को ऐसी और इतनी मात्रा में रक्षा सामग्री और रक्षा सेवाएं मुहैया कराई जाएं जो उसकी आत्मरक्षा क्षमताओं को बरकरार रखने के लिहाज से पर्याप्त हो.’

गलत साबित हुआ अमेरिका का दांव?

स्कॉलर चास फ्रीमैन के मुताबिक, अमेरिका ने जो दांव लगाया था, उसके नतीजे 1980 के दशक में सामने आने लगे जब चीन जलडमरूमध्य में आक्रामक सैन्य ठिकानों से पीछे हटने लगा. व्यापार में उछाल आया और 1993 में दोनों देशों के दूतों के बीच सिंगापुर में वार्ता भी हुई. हालांकि, थोड़े ही समय बाद तनाव फिर जोर पकड़ने लगा. जब ताइवानी राष्ट्रपति ली तेंग-हुई ने 1995 में देश के पहले स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने की योजना की घोषणा की. पीएलए ने देश के उत्तरीय जल क्षेत्र में रॉकेट दागे, और सामरिक ठिकानों पर सैनिक फिर भेज दिए गए.

दूसरी तरफ, अमेरिका ने भी विमान वाहक से लैस तो युद्धक समूहों को ताइवान की ओर रवाना कर दिए ताकि चुनाव प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा सके.

अपने कार्यकाल के अंतिम सालों में निक्सन को यह एहसास होने लगा था कि उन्होंने चीन के प्रति जो उदार रवैया दिखाया, वो शायद गलत था, खासकर थ्येन आन मन चौक की घटना के बाद चीन का अधिनायकवादी चेहरा गहराने लगा था. शी के उदय और अपने आसपास पूरे एशियाई क्षेत्र में चीन की बढ़ती आक्रामकता ने इन्हीं चिंताओं को लेकर अमेरिकी राय को और ज्यादा पुख्ता कर दिया है.

हालांकि, चीन में कुछ लोगों का मानना है कि अमेरिका की प्रतिबद्धता बेहद कमजोर है. चीनी नेता माओत्से तुंग ने 1950 में दक्षिण कोरिया पर आक्रामण से पहले उत्तर कोरियाई तानाशाह किम इल-सुंग से कहा था, ‘उनसे डरने की कोई जरूरत नहीं है. इतने छोटे-से क्षेत्र के लिए अमेरिकी तीसरे विश्व युद्ध में शामिल नहीं होना चाहेंगे.’

हालांकि, राष्ट्रपति बाइडेन ने अपने दो साल के कार्यकाल में इस धारणा को गलत साबित करने की कोशिश की है. उन्होंने सितंबर में कहा भी था ‘ताइवान अपनी स्वतंत्रता को लेकर फैसले खुद करता है. यह उनका फैसला है.’ दियायुताई पैलेस में बनी सहमति के विपरीत इस टिप्पणी ने कई पर्यवेक्षकों को चौंकाया है. बहरहाल, लगता है कि बाइडेन इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि चीन के साथ रणनीतिक प्रतिस्पर्धा टाली नहीं जा सकती है और इसका मकसद अमेरिका की जीत सुनिश्चित करना ही होगा.

शी जिनपिंग अभी भले ही पीछे हटते नजर आ रहे हों लेकिन आगे एक लंबे टकराव की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.

लेखक दिप्रिंट में नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(अनुवाद: रावी द्विवेदी)


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