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Tuesday, 5 November, 2024
होममत-विमतसीधी लड़ाई बीती सदी की बात, भारत के खिलाफ चीन ड्रोन, पीजीएम और हाई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करेगा

सीधी लड़ाई बीती सदी की बात, भारत के खिलाफ चीन ड्रोन, पीजीएम और हाई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करेगा

चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने युद्ध के तीन नये तरीकों- साइबर, इलेक्ट्रॉनिक और अंतरिक्षीय कार्रवाई में महारत हासिल कर ली है.

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पूर्वी लद्दाख में हालात जस के तस बने हुए हैं. फौजों को पीछे हटाने के मसले पर गतिरोध खत्म करने के लिए कोर कमांडर स्तर की वार्ताएं 14 जुलाई और 2 अगस्त को, और डिवीजन कमांडर के स्तर की भी वार्ता दौलत बेग ओल्डी सेक्टर में 8 अगस्त को हुई, मगर पिछले एक महीने में इस मामले में कोई प्रगति नहीं हुई है.

पीएलए ने देप्सांग और पैंगोंग झील सेक्टर में पीछे हटने से मना कर दिया है, उसका कहना है कि उसने चीन के 1959 के दावे वाली सीमा रेखा पर ही अपनी तैनाती की है. हॉट स्प्रिंग-कुग्रांग नदी-गोगरा सेक्टर में वह केवल एक किलोमीटर पीछे हटी है, जबकि 30 जून को कोर कमांडर स्तर की वार्ता में फैसला किया गया था कि वहां 4 किमी चौड़ा बफर जोन बनाया जाएगा. केवल गलवान क्षेत्र में फौजें पूरी तरह पीछे हटी हैं और 4 किमी का बफर ज़ोन बना है जिसका 3 किमी हिस्सा वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) से हमारे इलाके के अंदर है. दोनों तरफ के रिजर्व सैनिक पूरे एलएसी पर एहतियातन अग्रिम मोर्चों पर तैनात हैं.

एलएसी पर कई जगहों पर दोनों सेनाओं की करीब-करीब की तैनाती के बावजूद 15 जून की दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई. मगर टक्कर जब बढ़ जाएगी तब हम पारंपरिक युद्ध होता नहीं देख पाएंगे. आमने-सामने के पारंपरिक युद्ध अब बीते युग की बात हो गई. उस युद्ध में हमलावर सेना दुश्मन सैनिकों को खोज कर मारा करती थी और उसके सुरक्षा घेरों को ध्वस्त किया करती थी, क्योंकि उस समय के निगरानी/टोही उपकरणों और हथियारों से यह काम नहीं हो सकता था लेकिन आधुनिक सैन्य तकनीक ने हमले के तरीके में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है और पीएलए के पास यह तकनीक भरपूर है.

पीएलए की रणनीति का मेरा जो आकलन है उसके मुताबिक हिमालय की ऊंचाइयों में युद्ध अब पारंपरिक तरीके से नहीं होने वाला है.


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पहाड़ों पर युद्ध का पारंपरिक तरीका

पहाड़ी ऊंचाइयों पर युद्ध का पारंपरिक तरीका यह है कि ऐसे ऊंचे ठिकानों पर कब्जा करो जिन पर कोई आने की हिम्मत न करे. तोपों आदि फायर पावर से अपने डिफेंस को खूब मजबूत करो और दुश्मन अगर किसी ठिकाने पर कब्जा करता है, तो उस पर जवाबी हमला करने के लिए पूरी तैयारी रखो. अपनी सुरक्षा में सेंध लगाए जाने की कोशिशों को नाकाम करने के लिए निचले ठिकानों पर कब्जा बनाए रखो और पर्याप्त रिजर्व तैनात रखो. ऊंचे ठिकानों पर भी जवाबी हमले करने के लिए रिजर्व तैनात रखो.

दुश्मन फौज खुले में जमावड़ा करती है तो उस पर हवाई हमले या लंबी दूरी तक मार करने वाली तोपों/मिसाइलों से हमले किए जाते हैं. बचाव करने वाला फायदे की स्थिति में होता है क्योंकि उसे पिल- बॉक्स और बंकरों की सुरक्षा हासिल होती है. दुश्मन की पैदल सेना चढ़ाई करके हमला करने की कोशिश करती है तो उसे ऑक्सीज़न की कमी से जूझना पड़ता है और काफी मशक्कत करनी पड़ती है. उसे कमजोर स्थिति में होने के कारण कदम-दर-कदम लड़ना पड़ता है.

सीधी चढ़ाई पर तैनात सेना को पीछे से जाकर घेरना हेलिकॉप्टरों की बोझ ढोने की सीमा और हवाई हमले का निशाना बनने के खतरे के कारण मुश्किल होता है. इसलिए पहाड़ियां बचाव करने वाली सेना के लिए मुफीद होती हैं, और उस पर हमला करने वाले को भारी कीमत अदा करनी पड़ती है. 1999 का करगिल युद्ध इसकी अच्छी मिसाल है. प्लाटून आकार की चौकियों पर तैनात तीन, साढ़े तीन हज़ार दुश्मन सैनिकों को भगाने के लिए दो डिवीजन के बारबार सेना और तोपों तथा पैदल सैनिकों को 85 दिनों तक लड़ना पड़ा था.

अगर पीएलए अनुभवी भारतीय सेना को हराने के लिए यह तरीका अपनाएगी तो उसे मुंह की खानी पड़ेगी. इसलिए सवाल उठता है कि अपना राजनीतिक/फौजी मकसद पूरा करने के लिए क्या पीएलए के पास पहाड़ों की ऊंचाइयों में लड़ने की कोई ज्यादा कल्पनाशील समर नीति है?

पीएलए की संभावित समर नीति

पिछले तीन दशकों में खुफियागीरी, निगरानी, टोही गतिविधि, हवाई मार करने वाले ‘प्रिसीजन गाइडेड म्यूनीशन्स’ (पीजीएम), और वेपन्स प्लेटफॉर्म के क्षेत्रों में जबर्दस्त विकास हुआ है. फौजी टेक्नोलॉजी आज कंप्यूटर, इलेक्ट्रॉनिक्स, और उपग्रहों के अधिकतम उपयोग पर निर्भर हो गई है. इसलिए युद्ध के लिए पारंपरिक जमीन, समुद्र, हवाई क्षेत्रों के अलावा ये तीन और क्षेत्र जुड़ गए हैं—साइबर, इलेक्ट्रॉनिक्स, और अंतरिक्ष या उपग्रह.

1990 के खाड़ी युद्ध के बाद से पीएलए ने सैन्य मामलों में क्रांति (आरएमए) को अपना लिया है और उसी के मुताबिक खुद को ढाल लिया है. उसने सेना के तीनों अंगों को मिलाकर तैयार उस समग्र थिएटर कमांड व्यवस्था को अपना लिया है जिसका नियंत्रण फरवरी 2016 से बीजिंग स्थित संयुक्त मुख्यालय के हाथ में है.

सभी छह क्षेत्रों में अत्याधुनिक फौजी तकनीक के इस्तेमाल में वह दुनिया में अमेरिका के बाद दूसरे नंबर पर है. ऊंचाई वाले प्रतिकूल मोर्चों पर ‘डिफेंस के वर्चस्व’ को तोड़ने के लिए वह पैदल सेनाओं से सीधी टक्कर का रास्ता नहीं अपनाएगी. ‘खून-पसीने’ से भीगी आमने-सामने की रोमांचक लड़ाई अब पिछली सदी की बात बात बन चुकी है.


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बहुत ऊंचाई के मोर्चों पर कोई पेड़-पौधे नहीं होते. उपग्रह, ड्रोन, और साइबर/इलेक्ट्रॉनिक निगरानी/टोही उपक्रम वहां गहराई तक तैनात सेना, साजो-सामान, सैनिक अड्डों, संचार व्यवस्थाओं आदि का सटीक चित्र मुहैया करा देते हैं. फौजी मकसद और कार्रवाई के स्तर के मुताबिक, जमीन पर हमला करने से पहले पीजीएम आधारित मिसाइल आदि के हमले के साथ-साथ, यूनिटों तथा वेपन सिस्टम के कमांड/कंट्रोल को बेअसर करने के लिए साइबर/इलेक्ट्रॉनिक कार्रवाई की जा सकती है.

इसके अलावा, ऑपरेशन के पैमाने को स्थान के मुताबिक सीमित किया जा सकता है. जिस क्षेत्र पर कब्जा करना है उस पर इसी तरह काफी ताकत से हमला किया जा सकता है. इसलिए ऐसी कार्रवाई जाड़े में भी की जा सकती है, जब ऊंची चोटियों पर कार्रवाई मुश्किल हो जाती है.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(ले. जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रि.) ने भारतीय सेना की 40 साल तक सेवा की है. वे उत्तरी कमान और सेंट्रल कमान के जीओसी-इन-सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)

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