लद्दाख गतिरोध पर पिछले हफ्ते विपक्ष के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सर्वदलीय बैठक कुछ वैसी ही रही जैसी अनुमानित थी. बैठक में भले ही एकजुटता का प्रदर्शन किया गया लेकिन उसके बाद से भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस एक-दूसरे पर जमकर कीचड़ उछालने में व्यस्त हैं, चाहे वह टीवी पर परिचर्चा हो या मीडिया में जारी बयान. भारत में राजनीतिक संवाद देश के दो प्रमुख राष्ट्रीय दलों के बीच एक-दूसरे पर हावी होने के स्तर तक पहुंचने को किसी भी दृष्टि से सही नहीं कहा जा सकता. दोनों ही खेमों के विचारशील लोगों को इन सारी कड़वाहटों को भुलाकर न केवल मौजूदा संकट से पार पाने बल्कि भविष्य में पेश आने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए एकजुट होकर नई रणनीति बनानी चाहिए, खासकर यह देखते हुए कि चीन की फितरत बदलने वाली नहीं है.
यह बहुत ही राहत की बात है कि सभी राजनीतिक संगठनों ने अभी तक एक सुर में ही बात की है. सिवाय तब जबकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के महासचिव सीताराम येचुरी ने पंचशील का मुद्दा फिर उखाड़ा और मोदी सरकार से इसका सख्ती से पालन करने को कहा. वैसे बेहतर यह होगा कि माकपा अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके पंचशील का कुछ पाठ चीन के नेतृत्व को पढ़ा दे. तिब्बत पर चीनियों के कब्जे के चार साल बाद 1954 में भारत-चीन ने शांतिपूर्ण ‘सहअस्तित्व के पांच सिद्धांतों ‘ पर जो समझौता किया था, वह आज वामपंथी दलों की तरह ही अप्रासंगिक हो चुका है.
एकतरफा ढंग से पंचशील सिद्धांतों पर टिके रहने के बावजूद 1962 की घटना ने भारत की छवि, रणनीति, उदारवादी दृष्टिकोण आदि पर गहरी चोट पहुंचाई और सीमा विवाद का एक नया मोर्चा भी खोल दिया. तीन साल बाद, एक तरफ चीन ने हमारी नाक में दम कर दिया तो दूसरी तरफ आक्रामक पाकिस्तान ने भी हमारे खिलाफ जंग छेड़ दी. लेकिन छह साल बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सशक्त और दृढ़ नेतृत्व ने द्विराष्ट्र सिद्धांत को पूरी तरह ताक पर रखकर पाकिस्तान की कमर तोड़ दी और साथ ही साथ शीतयुद्ध वाले हालात के बीच चीन और अमेरिका को एक कड़ा संदेश भी दे दिया. लेकिन 25 जून 1975 को घोषित आपातकाल ने इंदिरा गांधी के सारे किए कराए पर पानी फेर दिया, जबकि यह वैश्विक राजनीति के पटल पर भारत को स्थापित करने की एक बेहतरीन रणनीति साबित हो सकती थी.
यह भी पढ़ें: आपातकाल के बाद की पीढ़ी उस दौर में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका और मीडिया सेंसरशिप को किस रूप में देखे
चीन का उत्थान शांतिपूर्ण नहीं है
अगले 20 साल शीत युद्ध के चरमोत्कर्ष पर पहुंचने के गवाह बने और यह सब यूएसएसआर के विघटन के साथ अचानक खत्म हो गया. इन बीस सालों में रूस ने अपनी धमक खो दी. क्षेत्र में नई शक्ति बनकर उभर रहे चीन ने अपनी क्षेत्रीय और वैश्विक रणनीति पर अमल करना शुरू कर दिया. चीनी राष्ट्रपति शी जिंपिंग ने 2013 में कजाकिस्तान की नजरवायेब यूनिवर्सिटी में अपने संबोधन में कहा था, ‘हम क्षेत्रीय मामलों में हावी होने या किसी तरह का प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश नहीं करते. क्षेत्र में सद्भाव स्थापित करने के लिए हम रूस और सभी मध्य एशियाई देशों के साथ बातचीत आगे बढ़ाने को तैयार हैं’. उसके बाद से चीन ने भारत के आसपास के पूरे क्षेत्र पर अपना गहरा प्रभाव तो कायम कर लिया लेकिन इसका उत्थान सद्भाव से कोसों दूर है.
लगभग तीन दशक बाद भारत और चीन दोनों फिर उसी मुहाने पर खड़े हैं जहां से इन्होंने अपनी यात्रा शुरू की थी. एक तरफ लद्दाख क्षेत्र में उपजा गतिरोध हल होने का कोई संकेत नहीं दिख रहा है. दूसरी तरफ वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के दोनों तरफ बड़े पैमाने पर सैन्य जमावड़ा होने के अपुष्ट दावे दर्शाते हैं कि यह गतिरोध अगले कुछ महीनों तक खिंच सकता है. जिस तरह से लोगों को कोविड-19 महामारी के साथ जीने की आदत डालने की सलाह दी जा रही है, भारत को भी एलएसी पर चीन की तरफ से बढ़ते खतरे और उसके नतीजों के साथ जीना सीखना होगा. लेकिन भारत अकेला देश नहीं है. महामारी के बीच चीन का विषम दृष्टिकोण ‘चीन के शांतिपूर्ण उत्थान के दावों’ को झुठलाते हुए अन्य देशों के हितों को प्रभावित करता नज़र आ रहा है.
चीन का बहुप्रचारित शांतिपूर्ण उत्थान दो बातों पर टिका है- सैन्य आधुनिकीकरण और आर्थिक दबदबा, जिसमें बीजिंग को सारे अधिकार तो हों और जिम्मेदारी कुछ भी ना हो. भविष्य की रणनीति पर चीन का आंतरिक आकलन उसकी सदियों पुरानी मानसिकता की अगली कड़ी ही है. चीन के उत्तरी मैदानों में स्थापित मध्य साम्राज्य, चाउ साम्राज्य झोंगुआ का मानना था कि यह पृथ्वी के मध्य में स्थित है और इसे भगवान ने चारों तरफ फैले बर्बरों के खात्मे के लिए बनाया है. जब 1949 में अपने वामपंथी लड़ाकों के बलबूते माओत्से तुंग ने सत्ता हासिल कर ली तब चीन फिर झोंगुआ रेनमिन गोंगेओ (मध्य साम्राज्य का गणराज्य) या पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना बन गया.
यह भी पढ़ें: क्यों अनुबंध खेती का अध्यादेश किसानों, खरीदारों और व्यापारियों के लिए लाएगा फायदा ही फायदा
चीन का समय बीत गया
शी जिंपिंग के सशक्त नेतृत्व वाले आधुनिक चीन का मानना है कि बीजिंग सार्वभौमिक शक्ति संरचना का केंद्र है और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना (सीसीपी) का पूंजीवादी चरित्र विश्व की अगुआई करने के लिए पूर्वनिर्धारित है.
बीजिंग द्वारा अत्याधुनिक पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए), जिसे कई तरह के अधिकार हासिल हैं, का उपयोग ऐसे अहम मोड़ पर आक्रामक और रक्षात्मक बल के रूप में किया जा रहा है जब चीन किसी भी अन्य काल की तुलना में ज्यादा लंबे समय तक खिंचने वाले और ज्यादा बड़े क्षेत्र से जुड़े राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी मसलों का सामना कर रहा है.
सीसीपी की पूंजी से बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) परियोजनाओं में भारी निवेश किया गया है. इसके पीछे उद्देश्यों में निवेश पर रिटर्न के तौर पर लाभ हासिल करने के साथ-साथ 60 अलग देशों में विभिन्न जगहों पर अपनी रणनीतिक पैठ बनाने की कवायद भी शामिल है.
लेकिन कोविड-19 ने सैन्य तथा आर्थिक स्तर पर उसकी सारी गणित पर पानी फेर दिया है. चीन का उदय नहीं हो पाया है और निश्चित तौर पर वह हासिल भी नहीं होने जा रहा जो बीजिंग चाहता है. चीन का वर्चस्व कायम होने में कई बाधाएं आ सकती हैं और आंतरिक स्तर पर उठ रहे विरोध के सुर भी विभिन्न संस्कृतियों और मानवजातियों को मिलाकर एक नया कृत्रिम गणराज्य, झोंगुआ, बनाने की कोशिशें नाकाम कर सकते हैं.
लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि चीन और उसकी महत्वाकांक्षाएं भारत और इसके प्रभाव वाले आसपास के क्षेत्र के लिए कम बड़ा खतरा है. यही वजह है कि भारत को एकजुट होना चाहिए और सिर्फ चुनावी सालों के बजाए दीर्घकालिक योजना पर ध्यान देना चाहिए.
(लेखक भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी कमेटी के सदस्य और ऑर्गेनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. ये उनके अपने विचार हैं)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)