पिछले कई वर्षों से चीन की सैन्य शक्ति उसकी आर्थिक सफलता की कहानी से पीछे बनी रही थी, मगर अब यह बदल रहा है. जैसा कि ताजा अमेरिकी वार्षिक रिपोर्ट दर्शाती है, चीन अपनी सैन्य क्षमताओं में प्रभावशाली रूप से प्रगति कर रहा है, जिसमें उसके परमाणु बलों में हुई भारी और अभूतपूर्व वृद्धि भी शामिल है.
यहां आश्चर्यजनक पहलू केवल यह है कि इस बात में इतना समय लगा है. लेकिन किसी भी देश की आर्थिक क्षमता में वृद्धि अंततः उसे सैन्य शक्ति में बढ़ोत्तरी की ओर ले ही जाती है, और ऐसा सिर्फ इस वजह से भी हो सकता कि विस्तारित राष्ट्रीय बजट अब रक्षा सहित सभी सरकारी विभागों को इसका एक बड़ा हिस्सा आवंटित कर सकता है. अक्सर, बाहरी असुरक्षाओं के बिगड़ने के बजाय यही तथ्य सैन्य बजट में वृद्धि का असल फैक्टर होता है. निश्चित रूप से, कुछ देशों ने इस तरह के रुझान को अपनाने में कोताही की है: 19वीं शताब्दी के अंत में और दो विश्व युद्धों के बीच के वर्षों (1919-1939) के दौरान अमेरिकी सेना अपेक्षाकृत छोटी रही और यह दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में इसकी स्थिति की तुलना में बहुत कमतर थी.
इसके अलावा कई पश्चिमी यूरोपीय शक्तियों के साथ-साथ जापान ने भी साल 1945 के बाद अपेक्षाकृत छोटी सेनाओं को बनाए रखा. यह अनुकूल सामरिक परिस्थितियों के परिणाम स्वरूप था: अमेरिका दो महासागरों और पश्चिमी यूरोप के पीछे सुरक्षित था, और अमेरिकी सुरक्षा की छत्रछाया से जापान अपनी सैन्य शक्ति को सीमित कर सकता था.
हालांकि, चीन के रक्षा व्यय के बारे में बात करने से एक पूर्व चेतावनी जुड़ी है: इसकी गोपनीयता के कारण इसके खर्च की सही-सही गणना करना आसान नहीं है. हालांकि कई विश्लेषक इस मुद्दे पर बारीकी से नज़र रख रहे हैं, हम जो जानते हैं वह आम सहमति से परे इस बात में सीमित है कि चीन वास्तव में जितना खर्च करता है उससे अधिक इसका दिखावा करता है. लेकिन इस असल बनाम दिखावटी के अंतर पर भी कोई सहमति नहीं है.
फिर भी, एक तथ्य यह भी है कि अपने सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में चीन का रक्षा खर्च अधिकांश अन्य प्रमुख शक्तियों से कम रहा है. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (एसआईपीआरआई- सिपरी) के मुताबिक, चीन अपनी सेना पर अपनी जीडीपी का 2 फीसदी से भी कम खर्च करता है. यह कुछ ऐसा आंकड़ा है जिसका उपयोग चीनी सैन्य विशेषज्ञ यह सुझाव देने के लिए करते हैं कि उनके देश द्वारा किये जा रहे सैन्य खर्च से दूसरों को चिंतित नहीं होना चाहिए.
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लेकिन इस ‘सीमित’ खर्च के बारे में कुछ बिंदु ध्यान देने योग्य हैं. सावधानीपूर्वक खर्च किये जाने की संभावना के अलावा, एक संभावना इस बात की भी है कि चीन अधिक व्यय इस वजह से भी नहीं कर सकता था, क्योंकि उसका वर्तमान रक्षा व्यय भी उसके सैन्य खर्च में वार्षिक पूर्ण व्यय में बड़े पैमाने पर वृद्धि को दिखाता है. इस प्रकार, 1980 के दशक के अंत में लगभग $10 बिलियन की राशि— जो उस समय के भारत के रक्षा बजट से बहुत अधिक नहीं थी — से शुरू करके चीन का रक्षा बजट साल 2022 में बढ़कर लगभग $300 बिलियन हो गया है. इस बीच, भारत का रक्षा बजट बढ़कर केवल 76 अरब डॉलर हो पाया है. चीन के रक्षा क्षेत्र के प्रबंधकों के लिए, इस विशाल धन को खर्चना शायद आसान नहीं रहा है, खासकर तब जब यह हर साल तेज गति से बढ़ता रहा है.
यह सीमित आनुपातिक रक्षा व्यय संभवतः चीन की अर्थव्यवस्था की उस विकास गति का भी परिणाम है, जिसने इस देश को अपने रक्षा बजट की सकल मात्रा को तेजी से बढ़ाने दिया. शायद इसी वजह से इसके आनुपातिक खर्च को सीमित रखना कोई कठिन कार्य नहीं रहा है. यदि यह सही है, तो हमें उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले वर्षों में अब यह अनुपात बढ़ेगा, क्योंकि चीन का विकास धीमा हो रहा है. रक्षा बजट के सकल आकार में भारी वार्षिक वृद्धि के प्रति अभ्यस्त हो चुके चीन द्वारा इसे काफी कम करने की संभावना नहीं है. इस प्रकार, आने वाले दशक में, हमें उम्मीद करनी चाहिए कि चीन का सैन्य बजट, जो पहले से ही संयुक्त रूप से अगली 13 एशियाई शक्तियों से बड़ा है, और अधिक बढ़ता रहेगा.
अमेरिका के साथ बराबरी
चीन की बढ़ती सैन्य शक्ति के अन्य व्यापक प्रभाव भी होंगे. हम जो देख रहे हैं वह पूरी तरह से द्विध्रुवीय विश्व व्यवस्था के उदय जैसा है. अब तक, चीन का आर्थिक विकास ही एकमात्र ऐसा तत्व था जिसने उसे अमेरिका के समकक्ष बनाया था. अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लगभग 70 प्रतिशत हिस्से के आकार के साथ चीन आर्थिक ताकत के मामले में सोवियत संघ द्वारा हासिल किये गए भी किसी मुकाम की तुलना में अमेरिका के साथ कहीं बेहतर बराबरी वाली स्थिति में पहुंच गया है. द्विध्रुवीय विश्व व्यवस्था में एक ध्रुवीय शक्ति माने जाने के बावजूद, सोवियत संघ की अमेरिकी के समकक्ष वाली स्थिति मुख्य रूप से उसकी अर्थव्यवस्था, जो कभी भी अमेरिकी अर्थव्यवस्था के आकार के लगभग 45 प्रतिशत से बड़ी नहीं हो सकी, के बजाय उसकी सैन्य शक्ति के कारण थी.
इसके विपरीत, चीन की सैन्य शक्ति अमेरिका की तुलना में उसकी आर्थिक उपलब्धियों से काफी पीछे रही थी. लेकिन इसकी सेना के बढ़ते आकार और क्षमता के साथ, यह उम्मीद की जा सकती है कि वह जल्द ही अमेरिका की बराबरी कर लेगी. चीन के पास पहले से ही संख्यात्मक रूप से दुनिया की सबसे बड़ी नौसेना है. एक उन्नत असैनिक विनिर्माण क्षेत्र द्वारा सुदृढ़ बनाई गई इसकी सैन्य तकनीक भी अमेरिका की बराबरी कर रही है.
एक ओर जहां अमेरिका ने अभी-अभी दुनिया का पहला छठी पीढ़ी का लड़ाकू विमान, बी-21 बमवर्षक लॉन्च किया है, संभावना इस बात की है कि जल्द ही चीन ऐसी तकनीक रखने वाली अगली शक्ति बन जायेगा. चीन द्वारा बड़े पैमाने पर परमाणु क्षमता में विस्तार, जो आने वाले दशक में चीन की परमाणु ताकतों को लगभग चार गुना बढ़ा देगा, का जहां तक न्यूक्लियर डेटरेंस (परमणु क्षमता के आधार पर दुश्मन को डराना) की बात है – कोई खास मकसद नहीं बनता, क्योंकि अमेरिका और वैश्विक परमाणु बलों में पिछले दो दशको में बहुत अधिक वृद्धि नहीं हुई है. बल्कि, ऐसा प्रतीत होता है कि बीजिंग द्वारा इसे वह समानता प्राप्त करने के लिए डिज़ाइन किया गया है जो वह अमेरिका के साथ चाहता है – और यह एक सैन्य उद्देश्य के बजाय एक राजनीतिक उद्देश्य अधिक है.
यहां कुछ पूर्व चेतावनियों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि चीन को ऐसे कई पड़ोसी देशों का सामना करना पड़ रहा है जो केवल अपने अधिकार वाले क्षेत्रों को सुरक्षित और संरक्षित करना चाहते हैं. यह प्रतिशोध की भावना से भरा चीन है, जिसे दूसरों से क्षेत्र को हथियाने के लिए लड़ना होगा. चीन की सैन्य श्रेष्ठता के बावजूद, आक्रामक सैन्य अभियान आमतौर पर अधिक कठिन होते हैं. इसके अलावा, चीनी सेना के पास हाल का कोई बड़ा सैन्य अनुभव नहीं है, हालांकि इस तरह की अनुभवहीनता का प्रभाव कम निश्चित होता है.
अंत में, चीन को इस संभावना का भी सामना करना पड़ रहा है कि ताइवान या भारत या दक्षिण चीन सागर के खिलाफ वह जो भी पहला बड़ा हमला करेगा, वह संभवतः इस क्षेत्र में कई अन्य देशों को अमेरिका और अन्य क्षेत्र से बाहर की शक्तियों को एक साथ आने के लिए प्रेरित कर सकता है और यह एक सख्त और अधिक प्रभावी क्षेत्रीय सैन्य गठबंधन का रूप ले सकता है. यह सबसे बुद्धिमान रणनीतिकार को भी डरा सकता है.
चीन, अमेरिका और इंडो-पैसिफिक
चीन की बढ़ती सैन्य शक्ति के राजनीतिक निहितार्थ भी बहुत अधिक हैं. इसके प्रभाव को सबसे पहले इंडो-पैसिफिक की परिधि में महसूस किया जाएगा. हालांकि, हमें यह भी उम्मीद करनी चाहिए कि यह तेजी से बाहर की ओर विस्तार करेगा. हम पहले से ही अफ्रीका में चीनी सैन्य ठिकानों को स्थापित होते हुए देख रहे हैं, और भी बहुत कुछ आने वाला है.
भगौलिक निकटता के स्पष्ट कारण की वजह से चीन की सैन्य शक्ति भी इंडो-पैसिफिक में सबसे शक्तिशाली होगी, जो इस क्षेत्र के भीतर इसका मुकाबला करने की अमेरिका की क्षमता पर सवाल उठाती है. अमेरिका को इस क्षेत्र में अपने भागीदारों से काफी अधिक मदद की आवश्यकता होगी, जो कि अमेरिका-सोवियत शीत युद्ध के दौरान जरूरी पड़ी किसी भी सहायता से बहुत ज्यादा होगी. इसके लिए अमेरिकी साझेदारी और इसके द्वारा बोझ साझा करने की प्रकृति के बारे में बदलाव की आवश्यकता हो सकती है, जो अंतरराष्ट्रीय राजनीति या वार्ताओं में कभी भी आसान विषय नहीं होता है.
अंत में, इससे यह भी पता चलता है कि हम इंडो-पैसिफिक में बढ़ते वैश्विक तनाव, हथियारों की होड़, संकट और संभवतः युद्ध को भी देखने वाले हैं. इसमें बहुत कम संदेह हो सकता है कि आगे आने वाला युग वास्तव में युद्ध व अधिक संघर्षों, या कम से कम उच्च तनाव का काल होने वाला है.
(अनुवाद : रामलाल खन्ना | संपादन : इन्द्रजीत)
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(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), नई दिल्ली में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @RRajagopalanJNU है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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