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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतचीन एलएसी पर बफर जोन बढ़ाने की बात कर रहा है, भारत के लिए क्या हो सकता है बेहतर कदम

चीन एलएसी पर बफर जोन बढ़ाने की बात कर रहा है, भारत के लिए क्या हो सकता है बेहतर कदम

मई 2020 में पूर्वी लद्दाख में चीनी घुसपैठ और मैकमोहन रेखा के साथ आगे बढ़ने का उद्देश्य एलएसी के अपने वर्जन को फिर से लागू करना है.

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भारत-तिब्बत सीमा पुलिस के खुफिया विंग के एक सूत्र के हवाले से दि टेलीग्राफ ने बताया कि चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी ने वर्तमान में भारत के नियंत्रण वाले डेपसांग मैदानों में 15 से 20 किलोमीटर के बढ़े हुए बफर जोन बनाने की मांग की है. यह वाई जंक्शन/बॉटलनेक से पैट्रोलिंग पॉइंट्स 10,11, 11ए, 12 और 13 तक 18-20 किमी के क्षेत्र के अतिरिक्त है, जिस तक पीएलए द्वारा मई 2020 से पहुंच बनाने देने से मना कर दिया गया है. यह प्रस्ताव कथित तौर पर 23 अप्रैल 2023 को आयोजित कोर कमांडर स्तर की 18वें दौर की वार्ता के दौरान रखा गया.

इस रिपोर्ट का न तो खंडन किया गया है और न ही रक्षा मंत्रालय (MoD), सेना या ITBP द्वारा इस पर स्पष्ट तौर पर कुछ कहा गया है. चीन की इस अनुचित मांग से 30-40 किमी का एक बफर जोन बन जाएगा.

अधिक क्षेत्र को हड़पने या नियंत्रित करने के इरादे से बफर जोन बनाने के लिए मजबूर करके सीमाओं पर अपनी इच्छा को थोपने की चीन की चाल और देपसांग प्लेन्स से जुड़ी मांगों का मैं विश्लेषण कर रहा हूं.

टाइम टेस्टेड चीन की रणनीति

चीन 1950 के दशक में अक्साई चिन की गैर-चिह्नित (undemarcated) सीमा पर चुपचाप अपना झंडा गाड़ रहा था, जबकि भारत क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करने के लिए सहमत होने के साथ शांति को बढ़ावा दे रहा था. नए अधिगृहीत देशों- तिब्बत और झिंजियांग को मजबूत करने के लिए इसने अक्साई चिन के पूर्वी छोर पर एक सड़क बनाई. और इसे सुरक्षित करने के लिए चीन ने धीरे-धीरे सीमांत क्षेत्र पर कब्जा करना शुरू कर दिया.


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एक बार जब इसके गश्ती दल की भारत के अपने क्षेत्र में इसी तरह के अभ्यास में लगे हुए दल से मुठभेड़ हो गई, तो एक बफर जोन का प्रस्ताव औपचारिक रूप से बनाया गया था. 7 नवंबर 1959 को, चीनी प्रधानमंत्री झोउ एनलाई ने जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखा, जिसमें प्रस्ताव दिया गया था कि “चीन और भारत की सशस्त्र सेनाएं पूर्व में तथाकथित मैकमोहन रेखा और उस रेखा से जहां तक प्रत्येक पक्ष ने पश्चिम में वास्तविक नियंत्रण का प्रयोग किया था उससे से एक बार में 20 किमी पीछे हटें, साथ ही दोनों पक्षों ने अपने सशस्त्र कर्मियों को तैनात करने और उन क्षेत्रों में गश्त करने से बचने का वादा किया जहां से उन्होंने अपने सशस्त्र बलों को निकाला है, लेकिन फिर भी वे प्रशासनिक कर्तव्यों के प्रदर्शन और व्यवस्था बनाए रखने के लिए वहां नागरिक प्रशासनिक कर्मियों और निहत्थे पुलिस को तैनात रखते हैं.” 1960 में भारत के अधिकारियों के साथ पांच दौर की वार्ता के दौरान चीनियों द्वारा 1959 की दावा रेखा का व्यापक रूप से वर्णन किया गया था.

यह एक विशिष्ट ‘अरब एंड कैमेल’ एप्रोच था. चीनियों को एक इंच दो और वे सब ले लेंगे. सबसे पहले, प्रतिद्वंद्वी के क्षेत्र में एक निर्जन क्षेत्र पर कब्ज़ा करें, फिर शांति को बढ़ावा देने के लिए बफर जोन का प्रस्ताव रखें. झोउ के प्रस्ताव के अनुसार, पूर्वी लद्दाख में 40 किमी का एक बफर जोन बनाया गया होता, जिससे भारत को और 20 किमी का नुकसान होता. अक्टूबर 1962 में चीन-भारत युद्ध के पहले चरण के बाद उसी प्रस्ताव को दोहराया गया था. यह प्रवृत्ति आज भी जारी है.

1962 के युद्ध के बाद चीन ने केवल एक बार रियायत दी थी जब उसने 19 नवंबर को एकतरफा युद्धविराम की घोषणा की और अपनी सेना को लद्दाख में 1959 की क्लेम लाइन के पूर्व और पूर्वोत्तर में मैकमोहन रेखा की अपनी मान्यता से 20 किमी वापस लौटने का आदेश दिया. इस वापसी का प्राथमिक कारण सर्दियों की शुरुआत, लॉजिस्टिक्स की कमी और संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा संभावित हस्तक्षेप था.

असमान बफर जोन

जून 2020 से चली लंबी बातचीत में, पांच क्षेत्रों में बफर जोन बनाए गए हैं- गलवान घाटी, पैंगोंग त्सो के उत्तर में, कैलाश रेंज, पेट्रोलिंग पॉइंट्स (पीपी) 17-17ए और 15-16. पैंगोंग त्सो के उत्तर में केवल 8-10 किमी की फिंगर-4 और फिंगर-8 के बीच का बफर जोन दूरी के लिहाज से समान है, जो सड़क के साथ 10 किमी और आसमानी रास्ते से 6 किमी की सीधी दूरी व उत्तर में 10-12 किमी है. मई 2020 से पहले भारत फिंगर 8 तक और चीन फिंगर 4 तक गश्त करता था. किसी भी पक्ष ने इस क्षेत्र पर भौतिक रूप से कब्जा नहीं किया था. यह “रियायत” चीनियों द्वारा कैलाश रेंज को खाली करने के बदले में दी गई थी, जहां वे नुकसान की स्थिति में थे.

गलवान में 3 किमी के बफर जोन का केंद्र बिंदु पीपी 14 है, जो एलएसी से एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर है. इस प्रकार, भारत में ज्यादातर बफर जोन की पीएलए द्वारा पेट्रोलिंग नहीं की जाती है. दोनों पक्ष कैलाश रेंज में संबंधित घाटियों में 2-4 किमी पीछे हट गए लेकिन भारत ने सामरिक लाभ खो दिया. कैलाश रेंज भारत की आक्रामक और रक्षात्मक योजना का आंतरिक हिस्सा था और यहां एलएसी पर कभी विवाद नहीं हुआ. कुगरांग नदी घाटी में, पीपी 17 और 17ए और पीपी 15 और 16 के बीच प्रत्येक 4-5 किमी के बफर जोन पूरी तरह से एलएसी के भारत की तरफ हैं. चीनियों ने मई 2020 से पहले इस क्षेत्र में कभी गश्त नहीं की. इसके अलावा, 30-35 किमी लंबी और 4-5 किमी चौड़ी कुगरंग नदी घाटी युद्ध में अस्थिर हो जाती है.

अस्वीकार्य प्रस्ताव

देपसांग मैदानों में मई 2020 से पहले, ITBP ने PP 10,11,12 और 13 तक गश्त किया करता था, जो खुद LAC से करीब है. पीएलए ने वाई-जंक्शन/बॉटलनेक से आगे देपसांग मैदानों के 600 से 800 वर्ग किमी तक भारत की ऐक्सेस को रोकने के लिए 18-20 किमी घुसपैठ की. मई 2020 से पहले, पीएलए भी वाई-जंक्शन/बॉटलनेक तक पेट्रोलिंग कर रही थी. वर्तमान तैनाती के आधार पर, वाई-जंक्शन/बॉटलनेक और एलएसी के बीच एक बफर जोन भारत पर पीपी 10, 11, 12 और 13 तक ऐक्सेस से इनकार करने और देपसांग मैदानों के 600-800 वर्ग किमी के दावे की वजह से काफी लागत आती है. नो-वॉर, नो-पीस की स्थिति के लिए यह काफी भारी कीमत है.

अब चीन 1959 की क्लेम लाइन या एलएसी के अपने वर्जन को स्थायी रूप से लागू करने की कोशिश कर रहा है और चाहता है कि भारत वाई-जंक्शन/बॉटलनेक के पश्चिम को और पीछे चला जाए, संभवतः बर्टसे से डीबीओ सैन्य अड्डे तक की सड़क तक, जबकि वह खुद केवल “एलएसी के भारतीय वर्जन” तक पीछे जाना चाहता है. यह स्पष्ट है कि देपसांग मैदानों के संबंध में बातचीत एक गतिरोध पर पहुंच गई है. भारत के लिए यह विवेकपूर्ण होगा कि वह वस्तुतः अपनी बंदूकों को थामे रहें जब तक कि सीमा सड़क संगठन एक वैकल्पिक सड़क विकसित करने के लिए सेसर ला रेंज से डीबीओ तक नया रास्ता बना रहा है.

पागलपन में तरीके

यह उल्लेख करना उचित है कि क्षेत्रीय दृष्टि से, मई 2020 में पूर्वी लद्दाख में चीनी घुसपैठ और मैकमोहन रेखा के साथ आगे बढ़ने का उद्देश्य एलएसी के चीनी वर्जन को फिर से लागू करना है, मान्यता के मुताबिक जिसका उल्लंघन भारत द्वारा सालों से किया गया है. यह पूर्वी लद्दाख में 1959 की दावा रेखा और पूर्वोत्तर में मैकमोहन रेखा की चीनी व्याख्या है. चीन ने 1959 की क्लेम लाइन को 1962 में और रणनीतिक रूप से आश्चर्य के बावजूद 2020 में ऐसा नहीं किया. क्या 1959 में 40 किमी के विसैन्यीकृत और प्रशासित पुलिस क्षेत्र का मूल प्रस्ताव एक अंतरिम समझौते के रूप में अभी भी चीन के दिमाग में है?

परमाणु हथियारों के खतरे और युद्ध के अनिश्चित परिणाम को देखते हुए, न तो चीन और न ही भारत सीमाओं पर यथास्थिति को बदल सकता है. 14 नवंबर 1962 के संसद के संकल्प के बावजूद- “…आक्रमणकारी को भारत की पवित्र भूमि से बाहर निकालने के लिए, संघर्ष कितना भी लंबा और कठिन क्यों न हो,”- जब तक चीन का पतन नहीं हो जाता, खोए हुए क्षेत्रों को पुनः प्राप्त करने की संभावना केवल फैंटेसी है. अरुणाचल प्रदेश को लेकर चीन के दावों के लिए भी यही सच है.

वास्तविक स्थिति की वर्तमान रेखा के साथ एक समान दूरी पर विसैन्यीकृत बफर जोन के साथ एक अंतरिम समझौता एक व्यवहार्य रणनीतिक विकल्प है. हालांकि, स्थायी शांति की खोज के लिए राजकीय कौशल और गहन कूटनीतिक और राजनीतिक जुड़ाव की आवश्यकता होती है. ऐसा करने का समय आ गया है.

(लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (आर) ने 40 वर्षों तक भारतीय सेना में सेवा की. वह सी उत्तरी कमान और मध्य कमान में जीओसी थे. सेवानिवृत्ति के बाद, वह सशस्त्र बल न्यायाधिकरण के सदस्य थे. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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