पिछले दो वर्षों की परंपरा का पालन करते हुए, चीन ने भारतीय सशस्त्र बलों को कमजोर और नकारा दिखाने के लिए गलवान नदी घाटी में ‘पत्थर, और लात-घूंसों की लड़ाई’ की तीसरी वर्षगांठ से कुछ सप्ताह पहले ट्विटर पर इन्फॉर्मेशन वॉरफेयर शुरू कर दी.
छद्म नामों से चीनी ट्विटर हैंडल्स ने ग्राफिक तस्वीरें और वीडियो पोस्ट किए, जिनमें भारतीय सैनिकों से चीनी सैनिकों की लड़ाई को गैर-बराबर दिखाना, भारतीय सैनिकों का हारना और उनका अपमान दिखाया गया है. लेकिन, भारत की ओर से इसका कोई औपचारिक खंडन या इसके जवाब में काउंटर-इन्फॉर्मेशन वॉरफेयर अभियान नहीं चलाया गया. हालांकि, संबंधित ट्विटर अकाउंट संभवतः सरकार द्वारा दिए गए निर्देशों/रिपोर्ट्स के आधार पर निलंबित कर दिए गए थे.
16 जून 2020 को दिए गए विवरणों को छोड़कर सरकार या सेना द्वारा गलवान प्रकरण पर कोई औपचारिक विस्तृत बयान नहीं दिया गया है. आज तक, तस्वीरों या वीडियो के ज़रिए इस युद्ध, मरने वाले चीनी सैनिकों या युद्धबंदियों (पीओडब्ल्यू) के बारे में कोई विश्वसनीय जानकारी नहीं दी गई है. शायद हमारे पास कोई सबूत नहीं है. मीडिया और सोशल मीडिया पर एक वर्ग बिना किसी सबूत के ‘हमारी तुलना में कहीं अधिक’ पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के सैनिकों के हताहत होने की अटकलें लगाते हुए रिपोर्ट पेश कर रहा है.
सरकार और सेना को संसद और जनता के समक्ष एक विस्तृत रिपोर्ट पेश करते हुए गलवान घटना का पटाक्षेप करने की तत्काल ज़रूरत है.
PLA ट्रैप
यह घटना 6 जून 2020 को आयोजित पहली कोर कमांडर स्तर की वार्ता के दौरान डिसइंगेजमेंट की प्रक्रिया पर सहमति बनने के ज़रिए शुरू हुई थी. समझौते के तहत, भारत और चीन के बीच जहां-जहां झड़प होने की संभावना थी वहां-वहां 2.5 – 3 किमी चौड़े बफर ज़ोन बनाए जाने थे.
पीएलए और भारतीय सेना के बीच हुई इस झड़प के विस्तृत आधिकारिक विवरण के अभाव में, पहले 10 दिनों में इसको लेकर कई तरह की बातें और सूचनाएं इधर-उधर हवा में तैरने लगीं. इसके बाद मीडिया ने भी इसी को बार-बार दोहराते हुए मामले पर पर्दा डालना शुरू कर दिया. मेरे आकलन के अनुसार, 22 जून 2020 की इंडिया टुडे की रिपोर्ट अगर विवरण के मामले में न भी हो तो परिस्थितियों के मामले में सबसे प्रामाणिक है. पीछे हटने की प्रक्रिया के हिस्से के रूप में, पीएलए ने गलवान नदी मोड़ पर पेट्रोलिंग प्वाइंट (पीपी) 14 के करीब एक टेंट को तोड़ दिया था. लेकिन, 14-15 जून की रात को दोबारा टेंट को खड़ा कर दिया गया. इस एरिया की ज़िम्मेदारी कर्नल बी संतोष बाबू, 16 बिहार, के कंधों पर थी. वे 15 जून 2020 को शाम 7 बजे के बाद 35 सैनिकों के साथ व्यक्तिगत रूप से समस्या को सुलझाने के लिए वहां पहुंचे.
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मई में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के विभिन्न बिंदुओं पर हुई झड़प के बावजूद दोनों पक्षों के बीच पहले की बातचीत दोस्ताना रही थी. कर्नल बाबू ने पाया कि परिचित और मित्रवत बॉर्डर गार्ड्स के बजाय नियमित सैनिक क्षेत्र की निगरानी कर रहे थे. जब कर्नल बाबू को एक पीएलए सैनिक ने धक्का दे दिया तो बातचीत के बजाय, कुछ ही मिनटों में हाथापाई शुरू हो गई. बिना हथियारों के 30 मिनट की लड़ाई में भारतीय सैनिक चीनियों पर भारी पड़े और टेंट को जला दिया. भारतीय सैनिकों ने कुछ चीनी सैनिकों को काबू कर लिया और उन्हें अस्थायी रूप से पकड़ लिया गया.
उत्साह-उत्साह में, कर्नल बाबू और उनके सैनिक एलएसी के चीनी क्षेत्र में चले गए. कर्नल बाबू ने नई उत्पन्न हुई स्थिति को भांपते हुए घायल सैनिकों को वापस भेज दिया और नए सैनिकों को भेजे जाने की पेशकश की. दोनों ओर से अतिरिक्त सैनिकों के आने के बाद रात के अंधेरे में मुठभेड़ का दूसरा चरण शुरू हुआ.
ऐसा लगता है कि लड़ाई चीनी नियंत्रण वाले क्षेत्र में लड़ी गई थी. चीनी पक्ष कीलों, कील-युक्त डंडों और पत्थरों के साथ तैयार था और ऊंचाई वाली ज़मीन पर भी कब्जा कर रहा था. रात लगभग 9 बजे कर्नल बाबू को एक पत्थर लगा और वह गलवान नदी में गिर गये. दोनों पक्षों के लगभग 300 सैनिक 45 मिनट तक एक-दूसरे से बुरी तरह लड़ते रहे और इसी चरण में सबसे अधिक सैनिक हताहत हुए. इसके बाद, रात 11 बजे तक लड़ाई शांत रही और दोनों पक्षों ने अतिरिक्त सुरक्षा बल की मांग की. PLA ने क्वाडकॉप्टर का उपयोग करते हुए इस लड़ाई की मॉनीटरिंग की.
चीन के लेक में लड़ा गया युद्ध का तीसरा चरण, रात 11 बजे के बाद शुरू हुआ और आधी रात के बाद तक जारी रहा. ‘बिना हथियारों की’ तीन चरणों वाली यह लड़ाई पांच घंटे तक चली. चार अधिकारियों सहित दस भारतीय कर्मियों को युद्धबंदी बनाया गया. हालांकि, बाद में सोशल मीडिया पर साझा की गई तस्वीरों में पकड़े गए सैनिकों की संख्या बताई गई संख्या से तीन से चार गुना अधिक दिखाई देती है. कार्रवाई में कर्नल बाबू सहित बीस भारतीय सैनिक मारे गए, और मेरे आकलन के अनुसार, सौ से अधिक घायल हो गए. कितने पीएलए यानी चीनी सैनिक हताहत हुए, इसका विवरण अस्पष्ट है. इंडिया टुडे के मुताबिक, भारतीय जवानों से इस मिशन के बारे में की गई पूछताछ से निकले निष्कर्ष के अनुसार पीएलए जवानों के 16 सैनिक मारे गए. ‘बिना हथियारों की इस लड़ाई’ के लिए पीएलए की तैयारी को देखते हुए, मैं पीएलए द्वारा जानबूझकर जाल में फंसाने की संभावना से इंकार नहीं करूंगा.
नेतृत्व की चूक
प्रथम दृष्टया, ऐसा लगता है कि गलवान की घटना यूनिट स्तर पर गलत तरीके से पीछे हटने की प्रक्रिया का परिणाम थी. हालांकि, अप्रैल के अंत से शुरू होकर, पिछले सात हफ्तों में इसके लिए हालात तैयार हो गए थे. यह 1959 की क्रेडिट लाइन को स्थायी रूप से सुरक्षित करने के लिए पीएलए की जानबूझकर की गई सैन्य कार्रवाइयों की राजनीतिक और सैन्य गलत व्याख्या का परिणाम था. मीडिया ने 10 मई को यह खबर ब्रेक की थी. मैंने 28 मई और 4 जून 2020 को दो विस्तृत लेख लिखे, जिनमें जानकारी के अभाव के कारण कुछ तथ्यात्मक त्रुटियों के बावजूद स्पष्ट रूप से सामने आया कि पीएलए ने सीमाओं पर यथास्थिति को स्थायी रूप से बदलने के लिए जानबूझकर ऑपरेशन चलाया था.
राजनीतिक और सैन्य प्रतिक्रिया में इस बात से इनकार किया गया और इसे अस्पष्ट बताया गया जो काफी अजीब था. संकट को एक बॉर्डर मैनेजमेंट समस्या के रूप में कहकर संभाले की कोशिश की गई – इस पैटर्न के हम देपसांग 2013, चुमार 2014 और डोकलाम 2017 के बाद आदी हो गए थे – न कि पीएलए द्वारा किए गए पूर्वव्यापी सामरिक आक्रामकता का मुकाबला करने के लिए एक सैन्य अभियान के रूप में.
स्पष्ट संकेतों को नजरअंदाज कर दिया गया – सैन्य अभ्यास की आड़ में झिंजियांग से 6 संयुक्त हथियार ब्रिगेडों की तैनाती, पीछे के भंडारों का निर्माण, एलएसी के साथ सुरक्षा के लिए एहतियाती तौर पर निर्माण, घुसपैठ के क्षेत्रों का चयन जहां, चीनी व्याख्या के अनुसार, एलएसी 1959 की क्लेम लाइन के पूर्व में थी, और घुसपैठ के स्थानों पर ऊंचाइयों को सुरक्षित किया गया था. भारत का इरादा चीनी धोखेबाज़ों को चुनौती देने का साहस करना था जैसा कि उसने अतीत में किया था.
या तो घुसपैठ को न रोक पाने में अपनी पिछली खामियों को छुपाने के लिए या राजनीतिक दबाव के चलते, भारतीय सेना पीछे हटने की प्रक्रिया को पूरा करने और यथास्थिति की बहाली की रिपोर्ट करने की जल्दबाजी में लग रही थी. मैंने 18 जून 2020 को जो लिखा था उसे फिर से उद्धृत करता हूं, “लेकिन यह वह दृष्टिकोण है जिसके परिणामस्वरूप एक यूनिट के कमांडिंग ऑफिसर को उसके सैनिकों के सामने मौत की सजा देने का भयानक दृश्य सामने आया. सैन्य हायरार्की सरकार को पेशेवर मानदंडों के अनुसार बल प्रयोग करने की सलाह देने की अपनी पेशेवर जिम्मेदारी में विफल रहा. इन सैनिकों का खून सरकार और सैन्य पदानुक्रम के हाथों में है.
पीछे हटने की प्रक्रिया पर कोर, डिवीजन और ब्रिगेड कमांडरों द्वारा बारीकी से नजर रखी गई होगी. 15 जून को कर्नल बाबू को क्या निर्देश दिये गये थे? एक बार जब शाम 7 बजे झड़प की खबरें आईं, तो स्थिति को शांत करने के लिए कोई हस्तक्षेप क्यों नहीं किया गया? क्या कर्नल बाबू ने अकेले ही लड़ाई को चीनी के लेक में ले जाने का फैसला किया था या उन्हें “जाओ और उन्हें सबक सिखाओ” का निर्देश दिया गया था? एलएसी पर छोटे पैमाने पर जोश से भरे सैनिकों के बीच सहज झड़प को स्वीकार करना एक बात है, लेकिन नियंत्रण के बिना सैकड़ों सैनिकों को मध्ययुगीन लड़ाई में शामिल होने की अनुमति देना कल्पना से परे है.
इंडिया टुडे, एक बहुत ही दिलचस्प टिप्पणी करता है- “जब सूरज उगा (16 जून को), तो स्थिति को संभालने की जिम्मेदारी दोनों पक्षों के मेजर जनरलों को सौंप दी गई, और बातचीत दोनों तरफ के तौर-तरीकों और व्यवहार पर निर्भर हो गई.” इससे ऐसा प्रतीत होता है कि स्थिति किसी के भी नियंत्रण में नहीं थी. हो सकता है कि कर्नल बाबू ने स्थिति को गलत समझा हो, लेकिन कमांड चेन में कम से कम कोर कमांडर तक के अधिकारी समान रूप से जिम्मेदार है. हायर कमांडर द्वारा कर्नल बाबू को सीधे आदेश दिए जाने की भी अफवाहें हैं.
तस्वीरों से पता चलता है कि काफी संख्या में सैनिकों के पास हथियार थे. जब सैनिकों की जान को खतरा था तो हथियारों का इस्तेमाल क्यों नहीं किया गया? 1996 का सीमा प्रबंधन समझौता एलएसी पर टकराव के दौरान हथियारों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाता है. लेकिन यह सामान्य समय में सीमा प्रबंधन के लिए एक समझौता है, न कि सैन्य अभियानों के दौरान, जो घुसपैठ वाले क्षेत्रों में चल रहे थे. इसके अलावा, जब सैनिकों के जीवन या उस क्षेत्र को दुश्मन से खतरा हो, तो कमांडर आर्टिलरी के प्रयोग सहित अपने विवेक के अनुसार सभी हथियारों का उपयोग कर सकता है. हथियारों का उपयोग न करने का निर्णय जानबूझकर किया गया था और सैन्य हायरार्की द्वारा गलत निर्णय लिया गया था, जिसके परिणामस्वरूप एक त्रासदी हुई. सभी सैनिकों को ट्रोजन हॉर्स की कहानी पढ़ाई जाती है. “अपने दुश्मन पर कभी भरोसा मत करो” यह सिद्धांत सेना में हर भर्ती किए जाने वाले को सिखाया जाता है. फिर भारतीय सेना पीएलए के ट्रैप में क्यों फंस गई?
क्या फैसले की सभी चूकों और त्रुटियों के लिए केवल बहादुर कर्नल बाबू ही जिम्मेदार हैं? या गलवान में हुए इस सारे उपद्रव के लिए पूरी की पूरी सैन्य हायरार्की जिम्मेदार है?
सच्चाई बताई जानी चाहिए
गलवान घटना की जांच करने और जवाबदेही तय करने के लिए आयोजित कोर्ट ऑफ इंक्वायरी की रिपोर्ट को सेना द्वारा औपचारिक रूप से अस्वीकार कर दिया गया था, जिसका अर्थ था कि न तो कोई जांच हुई है और न ही किसी जांच की आवश्यकता महसूस की गई है.
किसी भी अन्य देश में, ऐसी असाधारण घटना की न केवल सशस्त्र बलों ने जांच की होती, बल्कि अन्य वरिष्ठों ने भी इसमें दखल दिया होता. लोकतांत्रिक परंपराएं भी ऐसी रही हैं जिसके मुताबिक सेना द्वारा लीपापोती को रोकने के लिए संसदीय या अधिकार प्राप्त आयोग से जांच करवाई जाती है.
जब तक भारत सरकार और सेना औपचारिक जांच के माध्यम से मामले को बंद नहीं करती और जवाबदेही लागू नहीं करती, तब तक दुश्मन द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई रिपोर्टें विश्वसनीय प्रतीत होती रहेंगी. मामले को पूरी तरह से ढककर ‘प्रतिष्ठा’ बचाने के बजाय, यह शर्मनाक अमिट छाप छोड़ जाएगा. राजनीतिक और सैन्य प्रतिष्ठा बचाने के लिए ऑपरेशनल और लीडरशिप की खामियों को ढकने की कोशिश करना और इसके लिए सैनिकों की ‘बहादुरी और बलिदान’ का उपयोग करना, बार-बार ऐसी घटना का दोहराव करेगा.
(लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (आर) ने 40 वर्षों तक भारतीय सेना में सेवा की. वह सी उत्तरी कमान और मध्य कमान में जीओसी थे. सेवानिवृत्ति के बाद, वह सशस्त्र बल न्यायाधिकरण के सदस्य थे. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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