जब वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चीन के साथ तनाव बढ़ाने वाली ताज़ा घटना के विवरण सामने आ रहे हैं, विदेश मंत्रालय जापान के साथ एक महत्वपूर्ण सैन्य समझौते पर हस्ताक्षर की तैयारियों में जुटा है. इसके साथ ही भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका के क्वाड समूह के भविष्य को लेकर स्थिति स्पष्ट होती दिखती है. इसके अलावा, अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रॉबर्ट ओ ब्रायन और विदेश मंत्री माइक पोम्पियो शीघ्र ही क्वाड के अपने समकक्षों से मुलाकात करने वाले हैं. ये उन लोगों के लिए अच्छी खबर होनी चाहिए जो अड़ियल चीन के मुकाबले के लिए ‘मित्र’ ढूंढे जाने को लेकर उत्साहित हैं और बीजिंग के मुकाबले के लिए एक ‘समुद्र केंद्रित’ व्यवस्था के हामी हैं.
समस्या ये है कि ताजा पहल ऐसे वक्त हो रही है जब क्वाड के एक तरह से संस्थापक माने जाने वाले जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे सार्वजनिक मंच से हट रहे हैं जबकि अमेरिका चुनावी दौर में प्रवेश कर चुका है. वैसे तो सार्वजनिक तौर पर ऑस्ट्रेलिया बीजिंग के मुकाबले खड़ा दिखता है लेकिन दोनों के बीच व्यापार बहुत अच्छी स्थिति में है. सीधे शब्दों में कहें तो मामला थोड़ा जटिल है. एक बहुराष्ट्रीय विकल्प के हमारे प्रयासों के बावजूद ऐसा शीघ्र ही होने वाला नहीं है.
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शिंजो आबे का सपना
सबसे पहले तो जापान और भारत के बीच जिस सैन्य समझौते की बात की जा रही है वो एक अभिग्रहण एवं क्रॉस-सर्विसिंग समझौता (एसीएसए) है. लगभग इसी तरह के समझौते अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के साथ किए जा चुके हैं जिसमें दोनों पक्ष एक-दूसरे को चुनिंदा सैनिक अड्डों और बंदरगाहों तक पहुंच की अनुमति देते हैं. ये समझौता मुख्यतया लॉजिस्टिक्स संबंधी समर्थन के बारे में है और इसमें परस्पर सैन्य मदद की कोई प्रतिबद्धता नहीं होती है.
हालांकि युद्ध के समय या युद्ध जैसी स्थिति में लॉजिस्टिक्स की प्रमुख भूमिका होती है. संक्षेप में कहें तो दूसरे देश में संपूर्ण सैन्य अड्डा बनाने, जो राजनीतिक और वित्तीय दोनों ही दृष्टियों से एक महंगा उद्यम होता है, के बजाए एसीएसए समझौता उसका सबसे बढ़िया विकल्प सुलभ कराता है. अमेरिका ने विभिन्न देशों के साथ ऐसे सौ से अधिक समझौते कर रखे हैं. भारत ने रूस के साथ जबकि जापान ने कनाडा, ब्रिटेन और अन्य देशों के साथ ऐसा ही समझौता कर रखा है. इसलिए ये सिर्फ क्वाड से ही संबंधित नहीं है. ये जापान के हिंद महासागर और शायद उससे भी आगे अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के बारे में है. इससे निश्चय ही चीन को चिंता है जैसा कि ग्लोबल टाइम्स के 2019 के एक लेख में परिलक्षित हो चुका है. यह स्वाभाविक भी है क्योंकि चीन अतीत में जापान की महत्वाकांक्षाओं को झेल चुका है.
दूसरी बात, क्वाड प्रधानमंत्री आबे की परिकल्पना थी. दक्षिण चीन सागर को ‘बीजिंग झील’ बनने देने से रोकने के उद्देश्य से 2012 में उन्होंने अपने दूसरे कार्यकाल के पहले ही दिन एक डेमोक्रेटिक सिक्योरिटी डायमंड की प्रस्तावना पेश की थी. लेकिन उनकी खुद की लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी द्वारा सुरक्षा संबंधी इस उकसावे का विरोध किए जाने पर प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था जो वर्षों बाद जाकर कूटनीतिक दायरे में दोबारा सामने आया. वास्तव में, कृत्रिम द्वीपों के निर्माण और आक्रामक गश्ती के रूप में चीन का आक्रामक रवैया 2015 में जाकर सामने आया था इसलिए यहां पहले मुर्गी या अंडा वाली दुविधा खड़ी होती है.
तब तक, अमेरिका इस विवाद में कूद चुका था और उसके डिस्ट्रॉयर पोत जल्दी ही नवनिर्मित ‘सूबी द्वीप’ के समीप से भड़काऊ ढंग से गुजरने लगे थे. इस बीच आबे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 2014 के दौरे के समय क्वाड के ‘भारतीय अंश’ को मज़बूत करने का काम किया, जब इससे संबंधित पहला पूर्ण समझौता किया गया जिसमें ‘गोपनीय सैन्य सूचनाओं के आदान-प्रदान’ का भी प्रावधान था.
भारत को अमेरिका के साथ वैसा ही समझौता जिससे द्विपक्षीय संबंधों की प्रगाढ़ता जाहिर होती है, करने में पांच और साल लगे. उसके बाद ऑस्ट्रेलिया के तूफानी दौरे हुए और आबे ने नई ‘जापान-भारत-ऑस्ट्रेलिया’ तिकड़ी का गुणगान किया. अपने देश के भीतर उन्होंने प्रधानमंत्री की शक्तियों में इजाफा किया और 2013 में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (एनएससी) का गठन कर सुरक्षा मामले में अपने प्रभाव को बढ़ाया.
इसके साथ ही, ‘आत्मरक्षा’ की पुनर्व्याख्या कर उन्होंने किसी मित्र राष्ट्र के बचाव में जापानी बलों की भूमिका का रास्ता तैयार किया. स्थानीय स्तर पर इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन भी हुए लेकिन रास्ता खुल चुका था. आने वाले वर्षों में आबे इरादतन अमेरिका के करीब आए और बोझ साझा करने के ट्रंप प्रशासन की मांग को शांत करने के लिए 4.1 बिलियन डॉलर लागत की एजीस बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा प्रणाली लेने की हामी भरी. वर्ष 2018 के आते-आते ऐसा लग रहा था कि आबे का सपना पूरा होने जा रहा है क्योंकि ‘हिंद-प्रशांत’ में सहयोग की बात जमकर होने लगी थी.
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कोरोनावायरस के बाद की स्थिति
कोरोनावायरस महामारी फैलने के बाद की स्थिति आरंभ में क्वाड के पक्ष में जाती दिख रही थी क्योंकि अमेरिका के तीन विमानवाही पोतों के दक्षिण चीन सागर में युद्धाभ्यास करने के चलते तनाव बढ़ गया था. इनमें से एक पोत जापान के योकोसुका स्थित अपने मूल बंदरगाह पर तैनात था. इसी दौरान ऑस्ट्रेलिया की चीन के साथ खुलेआम तूतू-मैंमैं चल रही थी, जबकि भारत का युद्ध जैसी स्थिति से सामना था. ऐसे में क्वाड को लेकर सारे संदेह किनारे कर दिए गए थे. लेकिन जापानी अर्थव्यवस्था के कोरोना महामारी के असर में आते ही रक्षा मंत्री तारो कोनो ने एजीस मिसाइल रक्षा प्रणाली की खरीद को रद्द करने की अनुशंसा कर दी. इसकी संदिग्ध प्रभावकारिता के साथ-साथ जापान के बढ़ते रक्षा खर्च की भी इस फैसले में भूमिका थी जिसमें 2019 के बाद 13 प्रतिशत का इजाफा हुआ है.
आलोचकों का मानना है कि मिसाइल सौदे को रद्द किया जाना जापान के रक्षा परिदृश्य को खोलने के आबे के मनसूबे में बिल्कुल फिट बैठता था. शिंजो आबे ने इस साल जून में ‘डी’ शब्द का प्रयोग किया और जापान के डेटरेंस यानि निवारक ताकत को मजबूत करने के तरीकों की सार्वजनिक रूप से चर्चा की थी. भारत में डेटरेंस की चर्चा सामान्य बात है. पर जापान में, ये हदों को पार करने के बराबर है. उत्तर कोरिया द्वारा मई 2019 के बाद 33 मिसाइल परीक्षण किए जाने को देखते हुए आबे का जापान शायद उन्हें नष्ट करने की बात सोचे जो कि निश्चय ही एक क्रांतिकारी फैसला होगा.
आबे अब स्वास्थ्य कारणों से विदा ले चुके हैं लेकिन उपरोक्त योजनाएं सितंबर तक राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में होंगी. हालांकि जापान के भीतर इस तरह की नीति को स्वीकार्यता मिलेगी या नहीं, ये बहस का मुद्दा है. इस बीच 12 ट्रिलियन डॉलर के ऋण स्तर– अर्थव्यवस्था का करीब ढाई गुना– के साथ जापान चीन के साथ, यहां तक कि उत्तर कोरिया के साथ भी युद्ध का बोझ नहीं उठा सकता. उसे भरोसेमंद मित्रों और सहयोगियों की पहले से कहीं अधिक ज़रूरत है और यहां मुख्य बात भरोसे की आती है.
व्यापार की बात
भरोसेमंद सहयोगी इन दिनों बहुत कम मिलते हैं. तीस साल में पहली बार मंदी का सामना कर रहे ऑस्ट्रेलिया की व्यापार को लेकर चीन पर निर्भरता बढ़ी ही है. वहीं अमेरिका हाल ही में खाद्यान्न सहित अधिक चीनी आयात वाले व्यापार समझौते को जारी रखने पर सहमत हुआ है. इसे चीन द्वारा दी गई रियायत के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. बल्कि व्यापक बाढ़ से बने खाद्यान्न संकट के कारण उसके लिए ऐसा करना ज़रूरी हो गया था. अभी तो बढ़े अमेरिकी सीमा शुल्क का भारी असर पड़ता. लेकिन अमेरिका ने वैसा कुछ नहीं किया. वैसा करने के बजाए उसने 2020 की पहली छमाही में चीन को 9 मिलियन टन सोयाबीन, करीब 1 लाख टन गेहूं और लगभ 65 हज़ार टन मक्के का निर्यात किया. इसके साथ ही अमेरिकी चुनाव भी करीब है. जो बाइडेन की बातों से लगता नहीं कि वो चीन से टकराव मोल लेंगे.
इसी परिदृश्य में भारत की भूमिका सामने आती है और यही कारण है कि एसीएसए महत्वपूर्ण हो जाता है. दरअसल समान हितों से भरोसा पैदा होता है. वैसे एक और रणनीति सामने आ रही है. हाल ही में खबर आई थी कि ऑस्ट्रेलिया, भारत और जापान सप्लाई चेन को लेकर एक संधि पर बातचीत कर रहे हैं जो चीन पर निर्भरता को और भी कम कर सकेगी. यह भारत के लिए सचमुच में एक अवसर है. क्वाड संबंधों का सुरक्षा पहलू भले ही तूफानी लहरों से जुड़ा हो लेकिन व्यापार और निवेश के क्षेत्र में व्यापक हिंद-प्रशांत संबंधों का ठोस फायदा उठाया जा सकता है. इसके अलावा यही वो पहलू है जो चीन को परेशान कर सकता है.
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(लेखिका राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय की पूर्व निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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