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Monday, 4 November, 2024
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चीन-पाकिस्तान के खतरों से निपटने से पहले भारत 3 तरह के युद्ध के लिए खुद को तैयार करे

मुमकिन है कि भारत को चीन और पाकिस्तान से एक साथ लड़ना पड़े लेकिन इससे भारत के लिए पारंपरिक युद्ध के स्वरूप में परिवर्तन नहीं आएगा

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रूस-यूक्रेन युद्ध ने युद्ध के बारे में 18वीं सदी के प्रूशियाई सैन्य जनरल तथा सिद्धांतकार कार्ल वोन क्लाउज़विज़ द्वारा घोषित मौलिक सिद्धांत की प्रासंगिकता फिर से स्थापित कर दी है. क्लाउज़विज़ ने राष्ट्राध्यक्षों और फौजी कमांडरों को यह चेतावनी दी थी— “यह पहचानिए कि वे किस तरह का युद्ध शुरू कर रहे हैं. उसे वैसा समझने की या उस रूप में बदलने की कोशिश मत कीजिए जो रूप वह स्थितियों की वजह से ले नहीं सकता.” इसके अलावा, उन्होंने इसे नीति निर्माताओं और सैन्य रणनीतिकारों के लिए “सबसे पहला, सर्वोपरि और निर्णायक आकलन” का काम बताया. आज जबकि वैश्विक तथा क्षेत्रीय भू-राजनीतिक तनाव बढ़ रहे हैं, क्लाउज़विज़ की यह चेतावनी भारत के रणनीतिक योजनाकारों के लिए ज्यादा प्रासंगिक हो गई है. आज इस सवाल का जवाब तुरंत खोजने की जरूरत है कि भारत को किस तरह के युद्धों के लिए तैयार रहना चाहिए.

हमें दूसरों के बीच हुए युद्धों से सीख तो लेनी ही चाहिए, लेकिन हमारे राजनीतिक-रणनीतिक फ्रेमवर्क को भारतीय संदर्भ को ध्यान में रखना चाहिए. यही उन तमाम तरह की गतिमान शक्तियों का खुलासा कर पाएगा जो सक्रिय हो सकती हैं. ये शक्तियां हैं—नेतृत्व की निर्णय-क्षमता, विशिष्ट तरह की तकनीक, और विभिन्न तरह के बाहरी तत्वों के कारनामे.

बुनियादी स्तर पर भूगोल का तत्व सामने आता है. भारत का भूगोल उसके लिए संघर्ष के परिदृश्य का बेहद अहम हिस्सा है. आंतरिक भौगोलिक इलाके ऐसे संसाधन उपलब्ध कराते हैं जिनका विकास, प्रगति और सुरक्षा के लिए काफी उपयोग किया जा सकता है. चूंकि सभी आवश्यक संसाधन भारत के भौगोलिक क्षेत्र में उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए विकास तथा सुरक्षा के लिए व्यापार— सामान, सेवाओं और लोगों का आदान-प्रदान तथा आवागमन जरूरी बन जाता है.

बाहरी परिवेश के लिहाज से देश का भूगोल उसके रणनीतिक पड़ोस का निर्धारण करता है. तकनीक और संपर्क के साधनों में तेज सुधार के कारण दूरियां कम हो रही हैं और रणनीतिक पड़ोस की धारणा की परिभाषा व्यापक हो रही है. भारत की जमीनी और समुद्री सीमाएं चीन, नेपाल, म्यांमार, बांग्लादेश, श्रीलंका, और पाकिस्तान की सीमाओं से जुड़ती हैं. राष्ट्रीय सीमाओं और उनसे जुड़े अलग-अलग गंभीरता वाले विवादों ने चीन और पाकिस्तान के साथ संघर्षों को सैन्य स्वरूप दे दिया है. इन विवादों ने समान, सेवाओं और लोगों के आवागमन को बाधित किया है. इसके अलावा, राजनीतिक, आर्थिक, तकनीकी, और सामाजिक आवश्यकताओं के स्रोतों तक सुरक्षित पहुंच जमीनी तथा समुद्री विवादों और देश से असंबद्ध तत्वों द्वारा डकैती के कारण सुरक्षा संबंधी चिंता का विषय बन गया है. युद्ध का खतरा जमीन, आसमान, समुद्र, अंतरिक्ष और साइबरस्पेस जैसे विवादित भौगोलिक स्थलों में मौजूद है.

भारत इन युद्धों के लिए तैयार रहे

युद्ध राजनीतिक मकसद हासिल करने के लिए की गई संगठित हिंसा है. युद्ध का चाहे जो भी स्वरूप हो, उसका यह मूल चरित्र बदलता नहीं है. लेकिन युद्ध को युद्धकला समझने की भूल न की जाए. युद्धकला का ताल्लुक हिंसा के लिए इस्तेमाल किए गए तरीकों से होता है और यह युद्ध का चरित्र तय करती है, जो मनुष्य के उपक्रम और तकनीक के कारण अक्सर बदल जाता है.

युद्ध को हमेशा राजनीतिक तत्वों के बीच के संबंध के रूप में देखा जाना चाहिए और ये तत्व देश से संबद्ध या असंबद्ध हो सकते हैं. युद्ध में, हिंसा संवाद का सबसे प्रमुख साधन होती है. यह कूटनीति या दूसरे माध्यमों के जरिए होने वाली वार्ता के साथ भी जारी भी रह सकती है.
इस लेखक का मानना है कि भारत को तीन तरह के युद्ध के लिए तैयार रहना चाहिए— परमाणु युद्ध, पारंपरिक युद्ध, और गैर-पारंपरिक युद्ध.


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परमाणु युद्ध

भारत का परमाणु सिद्धांत यह मान कर चलता है कि उसके परमाणु हथियार परमाणु शक्ति से लैस उसके दुश्मनों को खौफजदा रखेंगे. उन्हें राजनीतिक हथियार माना जाता है, जो सैन्य मकसद पूरा नहीं करेंगे. माना जाता है कि भारत के पास इतने परमाणु हथियार हैं जो पहले आक्रमण का बचाव कर सकते हैं और वे ऐसे जवाब दे सकते हैं जिनसे अस्वीकार्य नुकसान पहुंचाया जा सकता है. वे परमाणु शक्ति से लैस किसी दुश्मन को परमाणु ब्लैकमेल करने से रोकने के अलावा हमला करने से भी रोक सकते हैं.

पूरी संभावना यह है कि परमाणु युद्ध पहले से जारी पारंपरिक या गैर-पारंपरिक युद्ध में ही युद्धरत पक्षों द्वारा गलत आकलन, गलत सूचना या गलत धारणा के कारण तेजी आने के कारण भड़क सकता है. इस तेजी की संभावना ही परमाणु हथियारों के प्रयोग से बचने का मुख्य कारण बन सकती है और किसी पारंपरिक या गैर-पारंपरिक युद्ध को परमाणु युद्ध में बदलने से रोक सकती है.

पारंपरिक युद्ध

हालांकि रूस-यूक्रेन युद्ध ने यह रेखांकित किया है कि दुनिया बड़े पैमाने पर पारंपरिक युद्ध की ओर लौट रही है, लेकिन यह भी ध्यान रखा जाए कि एक परमाणु शक्ति रूस ने गैर-परमाणु शक्ति यूक्रेन पर हमला किया है. यह भारत के लिए कोई सबक नहीं देता क्योंकि हमारे मामले में जब कोई युद्ध होगा तो वह परमाणु शक्ति संपन्न दो प्रतिद्वंद्वियों के बीच ही होगा.

परमाणु हथियारों के साये में लड़े गए पारंपरिक युद्ध के व्यावहारिक राजनीतिक मकसद सीमित ही होंगे. इसकी संभावनाएं, सघनता और अवधि भी सीमित होंगी. युद्ध के कारणों का महत्व ही उन खतरों का निर्धारण करेगा जो राजनीतिक नेतृत्व उठाना चाहेगा ताकि पारंपरिक युद्ध की सघनता और भूगोल से संबंधित आयामों का विस्तार हो.

चीन-भारत का मामला

उत्तरी सीमा पर बड़े पैमाने का पारंपरिक युद्ध कई वजहों से नामुमकिन है. पहली बात यह कि चीन ने जितनी जमीन पर कब्जा किया है वह उसके इस राजनीतिक मकसद को पूरा करने के लिए काफी नहीं है कि भारत अपने संसाधन खर्च करे और एक नौसैनिक शक्ति के तौर पर उसका विकास बाधित हो ताकि वह चीन के लिए रणनीतिक खतरा न बने. प्रायद्वीपीय भारत हिंद महासागर में तलवार की तरह पसरा हुआ है. हिंद महासागर से होकर ही चीन के लिए इनर्जी जैसे अहम संसाधनों का आवागमन होता है.

दूसरे, एक पारंपरिक युद्ध में चीन को भारी पैमाने पर आक्रमण करने के लिए संसाधनों का भारी निवेश करना पड़ेगा. मान लें कि वह हिमालय क्षेत्र में काफी जमीन पर कब्जा कर लेता है. लेकिन उस पर कब्जा बनाए रखना मुश्किल होगा और इसके लिए उसे निश्चित ही ताइवान में अपनी सेना को कम करना पड़ेगा.

तीसरे, भारी हमलों के कारण परमाणु हथियारों को भी तैयार किया जा सकता है. यह इन हथियारों के प्रयोग का रास्ता साफ कर सकता है, जो बहुत सोच-विचार के बाद नहीं बल्कि गलत आकलन और तात्कालिक संयोग के कारण हो सकता है लेकिन इसकी संभावना बहुत कम है.

इस तरह का युद्ध पैमाने, संभावना, और लक्ष्यों के लिहाज से सीमित हो सकता है. इसकी दिशा जमीन पर सोचे-समझे कब्जे और इस पर भारत की प्रतिक्रिया से तय होगी.

हिंद-प्रशांत समुद्री क्षेत्र भी भारत का युद्ध क्षेत्र बन सकता है. इसका मकसद जरूरत के मद्देनजर ताकत का इस्तेमाल और संचार के समुद्री मार्गों की सुरक्षा करना होगा. ‘क्वाड’ देशों और दूसरे सहयोगी देशों के साझा हित भी यहां सहयोग को बढ़ावा दे सकते हैं ताकि हिंद-प्रशांत समुद्री क्षेत्र व्यापार के लिए मुक्त और सुरक्षित रहे.

भारत-पाकिस्तान के मामले में पारंपरिक युद्ध

इन दोनों देशों के बीच जमीन और समुद्री क्षेत्र में पारंपरिक युद्ध आतंकवादी हमलों के प्रति भारत के रुख से तय हो सकता है. लेकिन इस पर भी परमाणु युद्ध का साया मंडरा सकता है और युद्ध तेज हो सकता है. और नौबत ‘परमाणु हथियारों को चौकस’ करने और युद्ध को सीमित करने तक ही आ सकते है. परमाणु हथियार के इस्तेमाल की बेहद कम संभावना भी युद्ध की सघनता और अवधि को घाटा सकती है.

मुमकिन है कि भारत को चीन और पाकिस्तान से एक साथ लड़ना पड़े लेकिन इससे भारत के लिए पारंपरिक युद्ध के स्वरूप में परिवर्तन नहीं आएगा.

गैर-पारंपरिक युद्ध

गैर-पारंपरिक युद्ध पारंपरिक युद्ध से इस मामले में भिन्न है कि इसमें जमीन पर कब्जा करना और कब्जा बनाए रखना मुख्य मकसद नहीं होता. इसके बदले लक्ष्य नुकसान और विनाश करना होता है और भारत के मनोबल को तोड़ना है ताकि वह राजनीतिक मांग मान ले. इस मामले में, भारत को प्रतिद्वंद्वियों की शह पर बगावत विरोधी कारवाई ही मुख्य युद्ध है जिसके लिए उसे तैयार रहना होगा. ऐसे युद्ध लंबे नहीं होते, जैसा कि जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों के अनुभवों से जाहिर है.

परमाणु युद्ध हो या गैर-पारंपरिक या पारंपरिक युद्ध, उन्हें युद्ध के स्तरों के रूप में देखा जाना चाहिए जो एक-दूसरे से भिन्न-भिन्न पैमाने पर जुड़ जाते हैं. वे आपस में जुड़े होते हैं और एक ही युद्ध में हो सकते हैं. भारत के लिए ये एक के ऊपर एक के रूप में नहीं हैं बल्कि परमाणु युद्ध का साया हमेशा मंडराता रहता है. अंततः महत्वपूर्ण यह है कि राजनीतिक मकसद हासिल करने के लिए क्या सीमाएं थोपी जाती हैं. यह ध्यान देने वाला मूल मुद्दा है.

‘ग्रे ज़ोन’, ‘मल्टी डोमेन’, ‘हाइब्रिड वारफेयर’ जैसे अमेरिकी जुमलों के चक्कर में हम उन सीमाओं से मुंह न मोड़ लें जो इस सच्चाई से उभरी हैं परमाणु शक्तियों के बीच किसी तरह का युद्ध क्यों न हो, वह परमाणु युद्ध की छाया से बच नहीं सकता.

(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला संस्थान में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(संपादनः आशा शाह )


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