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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतचीन ने एलएसी की घड़ी 1959 की तरफ घुमा दी है, भारत के लिए अक्साई चिन वापस लेना मुश्किल हुआ

चीन ने एलएसी की घड़ी 1959 की तरफ घुमा दी है, भारत के लिए अक्साई चिन वापस लेना मुश्किल हुआ

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकप्रिय भी हैं और राजनीतिक कौशल भी रखते हैं लेकिन क्या वे देश को अरुचिकर रणनीतिक फैसले के बारे में कायल कर सकते हैं?

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मई से चीन ने घुसपैठ शुरू करके सीमा विवाद की घड़ी की सुई को मोड़कर 7 नवंबर 1959 पर पहुंचा दिया है. तब और अब में फर्क यह आया है कि उस सीमारेखा पर इक्का-दुक्का चौकी या एक-दूसरे का सामना करने वाली गश्त की जगह अब तीन-चार डिवीजन समेत रिजर्व सेना भी टक्कर के लिए तैनात हैं. इसमें कोई शक नहीं रह जाना चाहिए कि सभी भावी वार्ताओं के लिए 1959 वाली ‘क्लेम लाइन’ ही आधार है और चीन ने हाल में जो कब्जे किए हैं उन्हें छोड़ने के मूड में नहीं है.

वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर करीब साढ़े चार महीने से जो टकराव चल रहा है और मॉस्को में जिस पांच सूत्री समझौते पर दस्तखत किए गए हैं उन्होंने भारत और चीन के बीच व्यापक सीमा विवाद के निबटारे का रास्ता खोल दिया है. हम ठीक 1959 वाली स्थिति में पहुंच गए हैं. उस समय चीन ने लद्दाख में 1959 वाली ‘क्लेम लाइन’ के आधार पर मामले को निबटाने, और उत्तर-पूर्व में मैकमोहन लाइन को मान्य करने की की पेशकश की थी. अब 2020 में अप्रैल से उसने जो कुछ किया है उसके बाद वह देप्सांग और पैंगोंग झील के उत्तर में 1959 वाली ‘क्लेम लाइन’ तक पहुंच चुका है. केवल डेमचोक वाला इलाका ही बचा हुआ है.

सातवें कोर कमांडर स्तर की वार्ता 12 अक्तूबर को होने वाली है, जैसा कि भारत-चीन सीमा विवाद पर गठित 19वीं ‘वर्किंग मेकेनिज़्म फॉर कन्सलटेशन ऐंड कोओर्डिनेशन’ (डब्लूएमसीसी) में तय हुआ था. उस बैठक के बाद जारी बयान में भारतीय विदेश मंत्रालय (एमईए) ने कहा था कि चीन मौजूदा द्विपक्षीय समझौते और प्रोटोकॉल के तहत एलएसी से सेनाओं की पूरी और जल्दी वापसी के लिए काम करने और पूरा अमन-चैन बहाल करने पर सहमत हो गया है. लेकिन चीन के बयान में सिर्फ यह कहा गया था कि वह ‘सेनाओं के बीच सातवीं वार्ता करने, इलाके पर बकाया मसलों को निबटाने और सीमावर्ती क्षेत्र में संयुक्त रूप से अमन-चैन की सुरक्षा के लिए काम करने’ पर सहमत है.


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वार्ताओं के एजेंडा में अंतर चीन के कड़े होते रुख को स्पष्ट करता है. इसके अलावा, ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के एक सवाल के जवाब में चीन ने 25 सितंबर को साफ तौर पर दोहराया कि ‘चीन और भारत के बीच जो एलएसी है वह बिलकुल साफ है, और वह वही है जो 7 नवंबर 1959 को थी. चीन ने 1950 के दशक में ही इसकी घोषणा कर दी थी, और भारत समेत विश्व समुदाय को यह अच्छी तरह पता है. लेकिन इस साल से भारतीय सेना अवैध तरीके से सीमा पार करके आगे बढ़ती रही है और वास्तविक नियंत्रण की स्थिति को एकतरफा बदलने की कोशिश कर रही है. इसके कारण सीमा विवाद को लेकर तनाव पैदा हो रहा है. दोनों सेनाओं के बीच तनाव खत्म करने का उपाय यही है कि भारत ने अवैध तरीके से अपनी सेना और साजोसामान को सीमा से पार भेजा है उसे हटा ले.’

चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता वाङ वेनबिन ने 29 सितंबर को कहा कि, ‘भारत ने अवैध तरीके से जिस कथित केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख का गठन किया है उसे चीन मान्यता नहीं देता और विवादित सीमा क्षेत्र में फौजी नियंत्रण के मकसद से इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण का विरोध करता है.’

अब यह बिलकुल साफ है कि भावी वार्ताओं में चीन 1959 वाली ‘क्लेम लाइन’ तक के क्षेत्र पर अपना दावा दोहराएगा और ज़ोर देगा कि इसी के आधार पर सेनाएं पीछे हटें. मैं यहां 1959 वाली ‘क्लेम लाइन’ के इतिहास, विभिन्न क्षेत्रों में उसके रणनीतिक तथा सामरिक महत्व के बारे में चर्चा करूंगा और यह आकलन करूंगा कि क्या यह भारत-चीन के बीच सीमा विवाद के व्यापक निबटारे का आधार बन सकती है?


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1959 वाली ‘क्लेम लाइन’

इस रेखा का मूल स्रोत 7 नवंबर 1959 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को भेजे गए चीनी प्रधानमंत्री चाउ-एन-लाई का वह पत्र है जिसमें उन्होंने प्रस्ताव किया था कि ‘चीन और भारत की सेनाएं कथित मैकमोहन लाइन से पूरब में तुरंत 20-20 किलोमीटर पीछे चली जाएं और पश्चिम में वे दोनों वास्तविक रूप से जिस रेखा तक नियंत्रण रखती हैं उससे भी उतना पीछे जाएं.’ यह रेखा चीन ने 1960 में दोनों देशों के अधिकारियों के बीच वार्ताओं के पांच दौर में स्पष्ट की थी.

यह पहली बार था जब चीन ने अपने दावों की औपचारिक घोषणा की थी और वार्ताओं के प्रति अपना रुख स्पष्ट किया था. एक दशक तक दोनों देश अपने-अपने सीमा क्षेत्र को मजबूत करने में जुटे थे. भारत ने उत्तर-पूर्व में चीन से पहले कार्रवाई की और 1951 तक उसने असम राइफल्स के बूते मैकमोहन लाइन तक कुछ हाशिये के क्षेत्रों को छोड़कर अपना क्षेत्र मजबूत कर लिया. लद्दाख में चीनियों ने हमसे बढ़त ले ली और तिब्बत-झिंजियांग रोड (जी 219) बनाया और आगे बढ़कर अक्साइ चीन के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया. दूसरी जगहों पर हमने सीआरपीएफ और आइबी का इस्तेमाल करके अपने झंडे गाड़ दिए.

यहां पर आकार हमारी गश्ती/ चौकी का चीनियों से सीधा सामना हुआ. 25 अगस्त 1959 को लोहित डिवीजन में लोंगजू में चीनी सेना पीएलए ने असम राइफल्स के एक सैनिक को युद्धबंदी बना लिया. पहली हिंसक झड़प 21 अक्तूबर को लद्दाख के कोंग्का ला में हुई, जिसमें सीआरपी के नौ जवान मारे गए, तीन घायल हुए और सात को युद्धबंदी बनाया गया.

नेहरू ने चाउ के प्रस्ताव को खारिज करते हुए 16 नवंबर 1959 को पत्र लिखा कि ‘चीनी सरकार के दावे के मुताबिक जो सीमा रेखा बताई गई है उसके बारे में हम स्पष्ट तौर पर अभी तक कुछ नहीं जानते… इसलिए यथास्थिति बनाए रखने का कोई समझौता बेमानी होगा क्योंकि यथास्थिति से संबंधित तथ्य ही विवादास्पद हैं.’

इन घटनाओं के फलस्वरूप और आगे झड़पें बढ़ने के ऊंचे जोखिम के कारण चीनियों ने अंततः अपनी घोषित स्थिति 1960 में हुई वार्ता में स्पष्ट की और 1959 वाली ‘क्लेम लाइन’ के 17 स्थानों के अक्षांश और देशांतर बताए. ये स्थान बहुत दूर-दूर पर थे इसलिए उनके बीच के इलाके के बारे में अलग-अलग व्याख्या हो सकती थी. इसके अलावा, 1960 की वार्ता में चीन अक्सर कहता रहा कि निदेशांक अनुमानित ही हैं. यह अस्पष्टता देप्सांग और डेमचोक सेक्टर में सबसे ज्यादा थी.

यहां यह बताना उचित होगा कि 1962 के युद्ध में पीएलए ने कहीं भी 1959 वाली ‘क्लेम लाइन’ को पार नहीं किया बावजूद इसके कि भारतीय सेना उससे 100 किमी पीछे हट गई थी. लद्दाख में पीएलए ने केवल उन्हीं चौकियों पर कब्जा किया जो 1959 के दावे के बाद ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ के तहत मौजूदा एलएसी के 10-2- किमी पूरब बनाई गई थीं. वास्तव में, यह रेखा तब फिर चर्चा में आई जब चीन ने 19 नवंबर 1962 को एकतरफा युद्धविराम घोषित किया – ’21 नवंबर 1962 से चीनी सीमा रक्षक पूरी भारत-चीन सीमा पर युद्धविराम कर देंगे. 1 दिसंबर 1962 से ये रक्षक उस वास्तविक नियंत्रण रेखा से 20 किमी से पीछे चले जाएंगे, जो रेखा 7 नवंबर 1959 को भारत और चीन की वास्तविक नियंत्रण रेखा थी.’

युद्ध में उखड़ जाने के बावजूद नेहरू ने सशर्त युद्धविराम को खारिज कर दिया. 1 दिसंबर 1962 को उन्होंने पत्र लिखा कि ‘जिसे आप ‘7 नवंबर 1959 की वास्तविक नियंत्रण रेखा’ कह रहे हैं वह पश्चिम सेक्टर में चंद सूनी चौकियों की कड़ी है. आपको पता है कि नवंबर 1959 में क्विज़िलजिलगा, शिंगलुंग, समजांगलिंग, या इनके पश्चिम में किसी स्थान पर कोई चीनी चौकी नहीं थी, न ही स्पङ्ग्गुर, के दक्षिण या पश्चिम में चीन की कोई चौकी थी. इसके बावजूद, आपके सरकार लद्दाख में ‘7 नवंबर 1959 की जिस वास्तविक नियंत्रण रेखा’ का जो दावा कर रही है वह 20 अक्तूबर 1962 से आपकी फौजों द्वारा किए गए भारी आक्रमण के बाद बनी उनकी नियंत्रण रेखा है.

यह प्रारंभिक युद्धविराम की आड़ में उस इलाके पर कब्जा बनाए रखने की चीनी चाल है जिस पर वह दावा कर रहा है और 20 अक्तूबर 1962 से आपकी फौजों द्वारा किए गए भारी आक्रमण के बाद से जिस पर अपना कब्जा मजबूत करना चाहता है. इसे हम कबूल नहीं कर सकते.’1993 के समझौते के बाद चीन ने एलएसी पर अमन-चैन तो बनाए राखी मगर वह एलएसी को लेकर अस्पष्ट रुख बनाए रहा कि वह किसे एलएसी मानता है. इस धोखे का जुमला था- “धारणाओं में अंतर के मामले”. उसका ज़ोर 1959 वाली ‘क्लेम लाइन’ पर ही रहा.

गूगल मैप से प्राप्त चित्र डीबीओ सेक्टर
गूगल मैप से प्राप्त चित्र डीबीओ सेक्टर

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1959 वाली ‘क्लेम लाइन’ का रणनीतिक, सामरिक महत्व

1959 वाली ‘क्लेम लाइन’ इलाके के आकलन का जबर्दस्त नमूना है. रणनीति के लिहाज से यह अक्साइ चीन और 1950 में चीन द्वारा कब्जा किए गए दूसरे इलाकों को सुरक्षा देती है. सामरिक लिहाज से यह हर सेक्टर को अलगथलग करने की सुविधा देती है. इस रेखा का कामचलाऊ खाका गूगल अर्थ/मैप्स से मिलता है. दौलत बेग ओल्डी (ओबीडी) सेक्टर में, आधे उत्तरी हिस्से में 1993 वाली एलएसी 1959 वाली ‘क्लेम लाइन’ से जाकर मिल गई है. आधे दक्षिणी हिस्से में, मई 2020 में बोट्ल नेक के करीब 18-29 किमी तक घुसने के बाद 1959 वाली ‘क्लेम लाइन’ मिलती है. डीबीओ हवाई अड्डा 10 किमी ही दूर है और हमारी रणनीतिक सड़क क्लेम लाइन से 7-10 किमी ही दूर है. रकी नाला, जीवन नाला, और बोट्ल नेक के पश्चिम से हमला करके पूरे डीबीओ सेक्टर को काट दिया जा सकता है. इस तरह, डीबीओ सेक्टर हमारी कंजोर नस है और हम अक्साइ चीन के लिए कोई खतरा नहीं बनने वाले हैं.

गलवान घाटी में क्लेम लाइन हमारी फौजी सड़क से केवल 5 किमी दूर है इसलिए खतरे में है. यह हमें अक्साइ चीन तक पहुँचने के दूसरे रास्ते से वंचित करती है. वहां मै में हुई टक्कर के बावजूद क्लेम लाइन एलएसी से जुड़ी हुई है. पीएलए ने सामरिक फायदे की स्थिति बनाने के लिए घुसपैठ की. गलवान नदी के दक्षिण में क्लेम लाइन एलएसी से मिल जाती है. कुगरंग नदी-चंगलुंग नाला में क्लेम लाइन एलएसी से मिल जाती है और गलवान घाटी तथा अक्साइ चीन जाने का हमारा रास्ता बंद करती है. कोंगका ला सेक्टर में रेखा गोगरा, हॉट स्प्रिंग्स, सोग्स्त्सलु पर पहाड़ी को काटती है. यह अक्साइ चीन जाने के दक्षिणी रास्ते को भि बंद करती है. लेकिन 1993 की एलएसी क्लेम लाई से मिलती है और पीएलए सामरिक बढ़त हासिल करने के लिए मई से हमले कर रही है.

जैसा कि चीन ने 1960 की वार्ता में कहा था, पैंगोंग झील के उत्तर में क्लेम लाइन फिंगर 8 पर झील के अंदर जाती है. लेकिन पीएलए ने फिंगर 4 पर 8 किमी पश्चिम से घुसपैठ की. इसका मकसद हमें पैंगोंग झील के उत्तरी किनारे पर पहुंचने से रोकना और फोब्रांग की तरफ पीएलए के लिए हमला करना आसान बनाना है ताकि झील के पूरे उत्तरी इलाके को और कोंगाका ला, कुग्रांग, हॉट स्प्रिंग्स, गोगरा, मारसिमीक ला, आने ला को भी अलगथलग कर सके.

चुशूल सेक्टर में क्लेम लाइन 1993 की एलएसी से जा मिलती है और हमें कैलास पर्वत क्षेत्र पर मजबूत स्थिति प्रदान करती है. 1959 की क्लेम लाइन में यह सामरिक खामी है जो हमें मजबूत स्थिति में आने की छूट देती है. कुल मिलायह रेखा, जो 1947 की अंतरराष्ट्रीय सीमा के 10-15 किमी पश्चिम है, रूडोक को गहराई प्रदान करती है जिससे होकर जी-210 सड़क गुजरती है.

इससे दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम में रेखा सिंधु नदी के उत्तर में कैलास पहाड़ों से होते हुए और फुकचे के पश्चिम से होते हुए सिन्धु नदी के किनारे चलती है और कोयुल नदी की पूर्वी पनढाल से दक्षिण की ओर मुड़ जाती है. इस सेक्टर में एलएसी डेमचोक से 35 किमी पूरब पर स्थित है. रेखा का मकसद डेमचोक से 50 किमी दूर नगारी को गहराई प्रदान करना था, और चांग ला से रूडोक जाने का रास्ता बंद करना था. डेमचोक से होकर ही जी-219 गुजरती है. 1962 के बाद से चीन ने सिंधु घाटी क्षेत्र में घुसपैठ करने से परहेज किया है, शायद इसलिए कि डेमचोक में आबादी बसी है. लेकिन उसने डेमचोक से दक्षिण, चारदिंग ला में कुछ क्षेत्र को काट कर अलग कर दिया है. तनाव बढ़ने पर यह इलाका विस्फोटक साबित हो सकता है.

गूगल मैप द्वारा चित्र- डेमचोक सेक्टर
गूगल मैप द्वारा चित्र- डेमचोक सेक्टर

क्या 1959 की क्लेम लाइन पर समझौता हो सकता है?

चीनियों ने अपने पत्ते मेज पर रख दिए हैं. मजबूत संकेत दिया जा रहा है कि 1959 की क्लेम लाइन को कबूल कर लेने पर अमन-चैन/ सेनाओं की वापसी और सीमा विवाद के व्यापक निबटारे का भी रास्ता खुल सकता है.

हम अक्साई चिन या चीनी कब्जे वाले क्षेत्रों को निकट भविष्य में वापस हासिल करने की स्थिति में नहीं हैं. अगर वार्ताओं से सीमा का औपचारिक निर्धारण होता है और सेना मुक्त बड़े क्षेत्र के निर्माण का रास्ता बनता है तो यह बाद में इसे अंतरराष्ट्रीय सीमा बनाने का मार्ग भी प्रशस्त कर सकता है. सीमा का सही निर्धारण कूटनीतिक कौशल पर निर्भर होगा और जरूरी नहीं कि यह 1959 वाली क्लेम लाइन ही हो.

चीन पर अविश्वास और भारत में जन भावना रोड़ा बन सकती है. चीन के पक्ष में कहा जा सकता है कि युद्ध और शांति, दोनों दौर में वह उस केलं लाइन पर लगभग टीका रहा है. केवल पैंगोंग झील के उत्तर में उसने अलग सुर अलापा है और हॉट स्प्रिंग्स, गोगरा, गलवान घाटी में उसने सामरिक दृष्टि से कार्रवाई की है.

समय आ गया है कि राजनीतिक नेतृत्व पहल करे, चीन ने गोलपोस्ट बदल दिए हैं और उसका फोकस 1959 की क्लेम लाइन पर है और बाउंडरी (सीमा-रेखा) जैसा का बड़ा मुद्दा जनरल के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता. राजनेता की पहचान यही है कि वह लफ्फाजी करके भावनाओं का दोहन नहीं करता बल्कि अपनी लोकप्रियता का इस्तेमाल करके अरुचिकर रणनीतिक फैसलों को मानने के लिए भी जनता को राजी करता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकप्रिय भी हैं और राजनैतिक कौशल भी रखते हैं. क्या वे यह चुनौती कबूल करेंगे?


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(ले. जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रि.) ने भारतीय सेना की 40 साल तक सेवा की है. वे उत्तरी कमान और सेंट्रल कमान के जीओसी-इन-सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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