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Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतमोदी की साख अब दांव पर है, उन्हें सीमा पर चीन के दबदबे को लेकर निष्क्रियता छोड़नी चाहिए

मोदी की साख अब दांव पर है, उन्हें सीमा पर चीन के दबदबे को लेकर निष्क्रियता छोड़नी चाहिए

अगर पर्याप्त राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई जाती तो 1000 वर्गकिमी पर पुरानी स्थिति 2020 में ही बहाल की जा सकती थी. इसकी जगह हमने विफलताओं को ढकने के लिए राजनीतिक तथा सैन्य निष्क्रियता देखी.

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इस विडंबना की अनदेखी कर देना बहुत मुश्किल है. चीन के साथ भारत के आर्थिक संबंध खूब फल-फूल रहे हैं, लेकिन सीमाओं पर स्थिति खतरनाक बनी हुई है, दोनों देशों ने वहां अपनी-अपनी सेना की भरी तैनाती कर रखी है. अप्रैल 2020 के अंत तक भारत जिस 1,000 वर्ग किलोमीटर इलाके में गश्त करता था और जिस इलाके पर उसका नियंत्रण था उस पर अब चीन ने मजबूती से कब्ज़ा जमा लिया है. दोनों देशों के बीच कूटनीतिक गतिविधियां ठप पड़ी हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चर्चित कूटनीतिक कौशल चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाया है, न ही उन्होंने सैन्य कार्रवाई के जरिए मई 2020 से पहले वाली स्थिति बहाल करने की कोई राजनीतिक इच्छा शक्ति दिखाई है.
यह सब मोदी की करीब एक दशक से जारी चीन नीति का दुखद परिचय ही देता है. इस दशक का अंत वैसा नहीं हुआ है, जैसा 1947 से 1962 के बीच की अवधि का हुआ था — युद्ध में पराजय और अपनी 38,000 वर्ग किमी ज़मीन गंवाने के रूप में, लेकिन चीन जबकि सीमा पर दबदबे वाली स्थिति में है तब यथास्थिति को चुपचाप स्वीकार करना भारत के सम्मान और मोदी की विरासत के लिए अच्छी बात नहीं है.

भारत के लिए चीन की रणनीति

चीन, भारत को अपने बराबर नहीं मानता बल्कि आर्थिक और सैन्य मामलों में प्रतियोगी मानता है. 1950 के दशक से उसकी रणनीति एक जैसी रही है. आर्थिक और सैन्य मामलों में अंतर का लाभ उठा कर वह भारत पर अपनी धौंस कायम करना चाहता है, सीमा विवाद का जबरन अपने हक में निपटारा करता है और जब भी जरूरी लगे अपनी मनमानी चलाने के लिए ताकत का इस्तेमाल करना चाहता है. भारत ने जब तक अंतरराष्ट्रीय मंच पर या सीमा पर उसकी स्थिति को सीधे चुनौती नहीं दी थी तब तक उसने भारत के साथ अच्छे संबंध बनाए रखे.

पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने चीन की इन शर्तों को नहीं माना. उन्होंने भारत को दुनिया के मंच पर एक स्वतंत्र खिलाड़ी के रूप में प्रस्तुत किया, बावजूद इसके कि उसकी अपनी राष्ट्रीय ताकत सीमित थी. उन्होंने लद्दाख के अग्रिम क्षेत्रों में ‘आगे बढ़ो’ (फॉरवार्ड पॉलिसी) की जो नीति अपनाई या पूर्व ‘नेफा’ (अब अरुणाचल प्रदेश) का जो गठन किया, उसके कारण 1959 में सीमा पर झड़पें हुईं.

बाद में, अपनी बड़ी लोकप्रियता और संसद में बहुमत के बावजूद नेहरू ने जनता और संसद के दबाव में अधिक आक्रामक ‘फॉरवार्ड पॉलिसी’ अपनाने का फैसला किया और लड़ाई लड़ने की भूल कर बैठे, जबकि आपनी सेना की तैयारी आधी-अधूरी थी और इसके लिए सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर भी नहीं था.

1962 में भारत की बुरी पराजय के बावजूद सीमा पर चीन की मौजूदगी निरंतर बनी रही है. लद्दाख में वह ‘1959 वाली दावा रेखा’ को मानता है, जिसे उसने 1962 में अपने कब्ज़े में कर लिया था. उत्तर-पूर्व में वह पूरे अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा करता है, इसके बावजूद वह मैकमोहन लाइन को वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) मानता है, लेकिन उसकी और भारत की व्याख्या में 5-10 किमी का अंतर है क्योंकि छोटे-से नक्शे पर मोटी लिखने वाली कलम से रेखा खींची गई है. 1959-60 में चीन ने यह जो समझौता पेश किया था वह 2005 तक चला. इसके बाद भारत की कथित आक्रामकता के कारण इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया.

2008 तक, नाथु ला और सुमडोरोंग में सैन्य तनातनी के बावजूद चीन ने सीमा पर और अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपना दबदबा बनाए रखा, लेकिन अमेरिका के साथ भारत की उभरती रणनीतिक साझीदारी, 2008 में उसके साथ परमाणु संधि पर दस्तखत और 2007 के बाद से सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर में विकास को चीन ने सुरक्षा मामले में अपने लिए चुनौती के रूप में देखा. उसने सीमा पर अपनी दावेदारी पर और ज्यादा ज़ोर देना शुरू किया, उदाहरण के लिए देपसंग के मैदानी इलाके में 2013 में की गई घुसपैठ को लिया जा सकता है.


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चीन के लिए मोदी की रणनीति

राष्ट्रवादी विचारधारा से ओत-प्रोत भाजपा ‘अखंड भारत’ के सपने देखती रही है, जो कि नये संसद भवन में लगे भित्तिचित्र से उजागर है. इसलिए, चीन और पाकिस्तान के अवैध कब्जे में पड़ी भारतीय जमीन को वापस हासिल करना राष्ट्रीय सुरक्षा के उसके लक्ष्य में हमेशा से समाहित रहा है.

लेकिन, नेहरू की तरह मोदी को भी एहसास हो गया है कि चीन को चुनौती देने के लिए भारत को आर्थिक और सैन्य रूप से मजबूत होना होगा. इसलिए, मोदी ने चीन से सुरक्षा संबंधी चुनौतियों से निपटने के लिए कूटनीतिक और आर्थिक संबंधों का सहारा लेने का फैसला कर लिया है.

मोदी की दीर्घकालिक रणनीति यह रही है कि भारत को आर्थिक और सैन्य दृष्टि इतना सक्षम बनाया जाए कि वह चीन को चुनौती दे सके और सीमा विवाद को अपनी शर्तों पर निपटा सके. अपनी पार्टी की विचारधारा और एक मजबूत नेता की अपनी छवि के अनुरूप उन्होंने चीन को सावधान करने के लिए सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास और मजबूत सैन्य रुख अपनाने पर ज़ोर दिया है. शी जिनपिंग के साथ ‘लेन-देन’ वाला रिश्ता बनाने के लिए लिए उन्होंने व्यक्तिगत कूटनीति पर काफी ज़ोर दिया और 2020 से पहले उनसे 18 बार मिले.

मोदी के कार्यकाल के पहले तीन वर्षों में दोनों देशों के आर्थिक और कूटनीतिक संबंध शिखर पर पहुंच गए. सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास में भी अभूतपूर्व तेजी आई. देपसंग, पैंगोंग सो झील के उत्तर में गश्ती प्वाइंट 15 और 17ए जैसे संवेदनशील इलाकों में सड़कें बनाई गईं. चीन के अनुसार ये 1959 वाली दावा रेखा के पार गईं.

सीमा पर इन गतिविधियों, विश्व नेता के रूप में मोदी के उभार और अमेरिका के साथ भारत की रणनीतिक साझीदारी को भी चीन ने अपने लिए सुरक्षा संबंधी चुनौतियों के रूप में देखा. 2014 में शी की भारत यात्रा के दौरान ही चूमर में चीनी घुसपैठ ने चेतावनी की घंटी बजा दी.

2017 में राष्ट्रीय सुरक्षा और अपनी सार्वजनिक छवि की खातिर किए गए वैचारिक निवेशों के चलते मोदी ने भूटान की सहमति से उसके डोकलाम इलाके में चीन द्वारा सड़क निर्माण में मोदी ने अचानक हस्तक्षेप किया. इसके बाद 73 दिनों तक गतिरोध की स्थिति रही, दोनों तरफ से सेना की तैनाती बढ़ाई गई.

यह संकट कूटनीतिक वार्ताओं के जरिए खत्म किया गया, लेकिन डोकलाम में दखलंदाजी रणनीतिक भूल थी. चीन को शर्मसार होना पड़ा. उसने जो लक्ष्मण रेखा खींची थी उसका उल्लंघन हुआ. मोदी ने इसे सार्वजनिक तौर पर जीत के रूप में पेश किया, मगर वुहान और महाबलीपुरम में अनौपचारिक शिखर बैठकें करके मामले को संभालने की हताश कोशिश की. लेकिन यह बेकार साबित हुई, क्योंकि सत्ता तो बंदूक की नली से निकलती है!

नेहरू की तरह मोदी ने भी, आर्थिक मजबूरियों के चलते और अधिक आश्चर्य की बात यह कि इच्छाशक्ति की कमी के चलते, भारतीय सेना को चीनी सेना की बराबरी के लिए तैयार करने के लिए बहुत कुछ नहीं किया. चीन ने जब पूर्वी लद्दाख में संकट पैदा कर दिया तो मोदी ने खुद को उसी स्थिति में पाया जिस स्थिति में नेहरू 1962 के युद्ध के बाद थे.

मोदी को श्रेय जाता है कि उन्होंने नेहरू की तरह अपनी सेना की कमजोरी और रणक्षेत्र की प्रतिकूलता के बावजूद युद्ध छेड़ने की लापरवाही भरी भूल नहीं की. लेकिन युद्ध में बड़ी तेजी के बिना उभरे संकट से निपटने की सैन्य रणनीति दोषपूर्ण थी और वह चीन को पुरानी स्थिति बहाल करने का दबाव डालने में विफल रही.

गलवान में शिकस्त के बावजूद भारत का जवाब आमतौर पर ठंडा था. कैलास रेंज में जवाबी कब्जे की आधी-अधूरी कोशिश से हासिल सीमित बढ़त चीनी शर्तों पर सेनाओं की वापसी में गंवा दी गई. पैंगोंग त्सो के उत्तर में, कैलास रेंज में और गश्ती प्वाइंट 15,16,17 और 17ए में बफर ज़ोन बनाने की मंजूरी देनी पड़ी जबकि ये सारे इलाके अप्रैल 2020 में भारत के नियंत्रण में थे. देपसंग के मैदानी इलाके के दक्षिणी हिस्से और चार्डिंग-निंग्लुंग नाला मोड़ पर भारत को नियंत्रण से वंचित रहना पड़ा है.

सैन्य स्थिति को गतिरोध की स्थिति कहा जा सकता है, लेकिन भारत की निष्क्रियता के कारण पहल चीन के हाथों में है और वह अपनी सुविधा के समय और स्थान चुनकर संकट खड़ा कर सकता है.

रणनीतिक बढ़त लीजिए

सेनाएं जबकि सीमा पर जमी हुई हैं, संकट खुद-ब-खुद या साजिश के तहत भी पैदा हो सकता है. अब भारत को अपनी निष्क्रियता छोड़कर चीन से बढ़त लेनी चाहिए.

चीन की ‘समग्र राष्ट्रीय शक्ति’ भारत की इस शक्ति से 1.8 गुना ज्यादा है, उसकी अर्थव्यवस्था पांच गुना ज्यादा बड़ी है, और रक्षा बजट तीन गुना ज्यादा बड़ा है. सैन्य टेक्नोलॉजी के मामले में भारतीय सेना चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) से कम-से-कम एक दशक पीछे है. लेकिन, परमाणु शक्ति संपन्न देशों के बीच युद्ध का जो संभावित स्वरूप है उससे संकेत मिलता है कि भारत को अपनी आशंकाओं से निर्देशित नहीं होना चाहिए. चीन के मामले में भारत फिलहाल जिस रणनीतिक पंगुता की स्थिति में है वह खत्म होनी चाहिए.

राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति और स्पष्ट सैन्य रणनीति के अभाव के कारण भारत हड़बड़ी में प्रतिक्रिया करता रहा है और नतीजन पूर्वी लद्दाख में निष्क्रियता है. भारत को अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति की घोषणा करनी चाहिए और अपने राष्ट्रीय हित स्पष्ट करने चाहिए, अपने प्रतिद्वंद्वियों को अपने संकल्प से परिचित कराना चाहिए. यह राष्ट्रीय प्रतिरक्षा रणनीति, सेनाओं में बदलाव के सरकारी एक्शन प्लान का रास्ता साफ करेगा और टिकाऊ सैन्य रणनीति के बारे में स्पष्ट दृष्टिकोण देगा.

1962 के बाद, तीन साल में सेनाओं का आंशिक सुधार हुआ था और 1965 में पाकिस्तान से युद्ध में उसने उल्लेखनीय प्रदर्शन किया था. इसने उसके बदलाव का रास्ता बनाया था और 1971 के बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में भारत ने शानदार जीत हासिल की थी. परमाणु हथियारों से लैस देशों के बीच पूर्ण युद्ध की संभावना नगण्य है. इसलिए भारत को अपने वजूद पर या बड़े पैमाने पर अपनी जमीन गंवाने का खतरा नहीं है. परमाणु हथियारों का डर दिखाने की चाल सीमित युद्ध की आशंका को भी कम कर सकती है.

परमाणु शक्ति की सीमा में, सैन्य तकनीक के मामले में अंतर सीमित है. चीन के पास युद्ध भड़काने का जो विकल्प है वह सामरिक मामले तक सीमित है, और इस क्षेत्र में भारतीय सेना को पहल करनी चाहिए और आक्रामक रुख अपनाना चाहिए.

सीमा पर हालात को संभालने के लिए ऑपरेशन संबंधी साहसी रणनीति होनी चाहिए. सीमाओं पर लक्ष्मण रेखा जरूर घोषित की जानी चाहिए, जो एलएसी और अपने नियंत्रण वाले इलाकों के बारे में हमारी धारणा का प्रतिनिधित्व करे. एलएसी को अतिरिक्त इंडो-तिब्बत आर्म्ड पुलिस पोस्टों के निर्माण से मजबूत बनाया जाए. सटीक निगरानी और टोही व्यवस्था बनाई जाए. इस रेखा के पार किसी भी आक्रामक गतिविधि को दुश्मनी का काम माना जाए और उपयुक्त सैन्य कार्रवाई से उसे दबाया जाए.

यह कोई जटिल ज्ञान नहीं है. रणनीतिक समीक्षा और सैन्य आकलन से जवाब मिल सकता है. अगर पर्याप्त राजनीतिक इच्छा शक्ति दिखाई जाती तो 1000 वर्ग किमी पर पुरानी स्थिति 2020 में ही बहाल की जा सकती थी. इसकी जगह हमने विफलताओं को ढंकने के लिए राजनीतिक और सैन्य निष्क्रियता देखी. हमें मनोवैज्ञानिक पराजय मिली और हमने अपनी जमीन गंवाई, मगर इसे लीपापोती और राजनीतिक प्रचार के जरिए जीत बताया गया. वक़्त आ गया है कि रणनीतिक पहल अपने हाथ में ली जाए. लेकिन इसके लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति चाहिए, जो अब तक दिखी नहीं है.

(संपादन : इन्द्रजीत)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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