scorecardresearch
Friday, 29 March, 2024
होममत-विमतचीन के सेमी-कंडक्टर के मंसूबों पर लगा पश्चिमी प्रतिबंधों का ग्रहण, अब शी जिनपिंग क्या करेंगे?

चीन के सेमी-कंडक्टर के मंसूबों पर लगा पश्चिमी प्रतिबंधों का ग्रहण, अब शी जिनपिंग क्या करेंगे?

अत्याधुनिक चिप्स को प्रायः आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं के लिए भविष्य का ईंधन कहा जाता है. लेकिन प्रतिबंधों ने चीन को दोयम दर्जे की ताकत वाली हैसियत में पहुंचा दिया है

Text Size:

उस जापानी एडमिरल इसोरोकू यामामोतो के नाखून काटने के बाद ‘गीशा’ (गणिका समान जापानी महिला) ने अपनी फीस बताई थी 80 सेन (एक सेन जापानी मुद्रा येन के 100वें भाग के बराबर होता था). सारे नाखून काटने की फीस 100 सेन होती थी, लेकिन यामामोतो का कहना था कि साम्राज्यवादी रूसी नौसेना से लड़ाई में उसने अपनी दो उंगलियां गंवा दी हैं इसलिए उनसे पैसे कम लिये जाएं. पर्ल हार्बर में अमेरिकी नौसेना के पैसिफिक बेड़े को लगभग नष्ट करने वाले हमले की रणनीति बनाने वाले नेवी कमांडर यामामोतो अपनी शामें अक्सर पोकर और जापानी बोर्ड गेम ‘शोगी’ (एक जुआ) खेलते हुए बिताते थे. बहरहाल, उस गीशा को समझ में आ गया था कि यह अनुभवी सैनिक पैसे की कीमत तो जानता ही है, रणनीति पर भी अच्छी पकड़ रखता है.

एडमिरल यामामातो ने अपने उच्च अधिकारियों को ज़ोर देकर चेता दिया था कि “अमेरिका से लड़ाई जीतने का कोई सवाल ही नहीं है. जब जीत की संभावना इतनी कम हो तो हमें लड़ाई शुरू ही नहीं करनी चाहिए.”

अब, पिछले सप्ताह चीन ने घोटाले से ग्रस्त सेमीकंडक्टर फंड (जिसे प्रायः ‘बिग फंड’ कहा जाता है) के जरिए अत्याधुनिक कंप्यूटर चिप्स का विकास करने के लिए 150 अरब डॉलर की योजना का नेतृत्व करने के लिए नौकरशाह झांग शीन को नियुक्त किया. झांग को शायद पता है कि इस योजना के सफल होने की कम ही उम्मीद है. सेमीकंडक्टर की विदेशी तकनीक पर चीन की निर्भरता खत्म करने के लिए शी जिनपिंग ने 2015 में जो तथाकथित ‘मेड इन चाइना 2025’ योजना शुरू की थी उसमें अरबों डॉलर भ्रष्टाचार और फिजूलखर्ची की भेंट चढ़ गए हैं लेकिन कोई उपलब्धि नहीं हुई है.

अमेरिका, नीदरलैंड और जापान ने नयी टेक्नोलॉजी को लेकर जो प्रतिबंध लागू किए हैं उनके मद्देनजर शी को विश्वास हो गया था कि अब कोई विकल्प नहीं रह गया है. अत्याधुनिक चिप्स को प्रायः आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं के लिए भविष्य का ईंधन कहा जाता है. प्रतिबंधों ने चीन को दोयम दर्जे की ताकत वाली हैसियत में पहुंचा दिया है.

एडमिरल यामामातो होते तो उन्होंने शी से कहा होता कि आप गलत दरवाजा खटखटा रहे हैं. इतिहासकार एडवर्ड मिलर ने लिखा है कि प्रतिबंधों के चलते शाही जापान को बैंकिंग सिस्टम और 80 फीसदी तेल तथा स्टील तक पहुंचना असंभव हो गया तो उसे लगा कि अब हमला करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

यामामातो जब पर्ल हार्बर पर हमले की योजना बना रहे थे, जिसके तहत पहले ही दिन के घातक हमले में युद्ध का फैसला हो जान था, तब यह भी वकालत कर रहे थे कि जापान चीन पर हमला बंद करे और नाजी जर्मनी से संबंध तोड़े. उन्होंने चेतावनी दी थी कि अमेरिका के विशाल औद्योगिक संसाधन के कारण जापान की हार निश्चित है.

टेक्नोलॉजी पर शीतयुद्ध

शीतयुद्ध के पूरे दौर में पश्चिमी देशों ने ‘को-ऑर्डिनेटिंग कमिटी फॉर मल्टीलैटरल एक्सपोर्ट कंट्रोल्स’ या ‘कोकॉम’ के नाम से मशहूर टेक्नोलॉजी-निषेध व्यवस्था के तहत टेक्नोलॉजी के मामले में सोवियत संघ से बढ़त बनाए रखी. हालांकि सोवियत विज्ञान ने कई प्रभावशाली टेक्नोलॉजिकल उपलब्धियां हासिल कीं, लेकिन ‘कोकॉम’ ने इस प्रगति को बेहद महंगा बना दिया. विशेषज्ञ स्लावा गेरोविच ने सोवियत संघ द्वारा कंप्यूटर साइंस में की गई अहम प्रगति का ब्योरा दर्ज किया है और वह 1975 में शुक्र ग्रह पर कदम रखने में बहुचर्चित सफलता पाई थी.

हालांकि सोवियत खेमे की वैज्ञानिक खुफियागीरी ने इन कमजोरियों की काफी हद तक भरपाई की थी लेकिन अवर्गीकृत दस्तावेज़ बताते हैं कि टेक्नोलॉजी की चोरी के बूते आर्थिक रूप से कुशल और आत्मनिर्भर आविष्कार व्यवस्था बना पाना मुश्किल रहा.

‘कोकॉम’ के पीछे जो चिंताएं काम कर रही थीं उनमें टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के नतीजे भी थे. शाही जापानी वायुसैनिक ताकत को और चीजों के अलावा ब्रिटिश टेक्नोलॉजी और अमेरिकी मशीनों और पुर्जों का बड़ा सहारा मिला. जापानी वायुसैनिक ताकत की बढ़ती आधुनिकता ने प्रथम विश्वयुद्ध के बाद युद्धपोतों के आकार संबंधी सीमाओं को तोड़ने में मदद की.

इतिहासकार जस्टिन पाइक ने लिखा है कि हालांकि जापान की बढ़ती वायुसैनिक ताकत और आधुनिकता को लेकर कई खुफिया चेतावनियां दी गई थीं लेकिन नस्लवादी सोच के कारण रणनीतिकारों ने इन खतरों को कमतर आंका.

सोवियत संघ और चीन के ऐतिहासिक संबंध विच्छेद के बाद अमेरिका ने चीन को विशाल ‘कोकॉम’ दीवार को लांघने की इजाजत देने को राजी हो गया. ताइ मींग चेउंग और बेत्स गिल्ल ने लिखा है कि जब चीन पश्चिम का बड़ा व्यापारिक साझीदार बना तो राष्ट्रीय सुरक्षा की जगह आर्थिक चिंताएं ज्यादा महत्वपूर्ण हो गईं. एयरोस्पेस, मेटेरियल साइंस, न्यूक्लियर फिजिक्स और कंप्यूटिंग में अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी तक चीन की पहुंच आसान हो गई.

पश्चिमी देशों ने चीन के लिए सैन्य टेक्नोलॉजी तक पहुंच भी आसान बना दी, जिसे उन्होंने सोवियत संघ के लिए बाड़ खड़ा करने जैसा मान लिया. विलियम टोव और डगलस स्टुअर्ट ने लिखा है कि जापान ने मिसाइल गाइडिंग और ट्रैकिंग सिस्टम के लिए बेहद जरूरी इंटीग्रेटेड सर्किट्स चीन को उपलब्ध कराया. जापान के विशेषज्ञों ने चीनी टेक्निशियनों को अत्याधुनिक हवाई सुरक्षा सिस्टम और मिलिटरी सिस्टम में कंप्यूटरों के उपयोग के बारे में पाठ पढ़ाए. इजरायल भी प्रतिस्पर्द्धी मिलिटरी टेक्नोलॉजी देने वाला अहम स्रोत बन गया.


यह भी पढ़ेंः अफगान IS के हमलों में भारतीय हमलावरों का नेतृत्व करने वाले, कश्मीर जिहाद कमांडर के मारे जाने का अनुमान


शी का अंतिम दांव

1969 में अपने चुनाव से पहले अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने चीन के साथ पश्चिमी देशों की सुलह का एक खाका जारी किया था. 1949 की क्रांति के बाद से अमेरिका चीन को मान्यता देने से इनकार करता रहा था क्योंकि साम्यवाद को वह एशिया में अपने हितों के लिए एक खतरा मानता था. लेकिन निक्सन का कहना था कि यह रणनीति गलत थी, कि “दुनिया तब तक सुरक्षित नहीं हो सकती जब तक चीन बदलता नहीं है.” “इसलिए, जिस हद तक हम घटनाओं को प्रभावित कर सकते हैं, हमारा लक्ष्य यह होगा कि उसमें बदलाव आए. इसका एक ही रास्ता है कि हम चीन को बदलने के लिए राजी करें.”

अब शी विश्व शक्ति समीकरण को नये सिरे से जिस तरह बदलने और एशिया में चीन का वर्चस्व स्थापित करने की जो कोशिश कर रहे हैं वह निक्सन के इसी तर्क का नतीजा है. चीनी राष्ट्रपति ने इस दांव पर जुआ खेला है कि चीन ने विश्व अर्थव्यवस्था में जो केंद्रीय महत्व हासिल कर लिया है वह उसे उनके कदमों के नतीजों से अछूता रख सकता है.

‘बिग फंड’ की कहानी से साफ है कि शी ने गलत दांव खेल दिया. ऊंची पहुंच रखने वाले टेक घोटालेबाज सरकारी पैसे को संदिग्ध उपक्रमों में डालने में उस्ताद साबित हुए. हुयावी किरीन 9000 मोबाइल फोन के चिप्स जैसे सच्चे आविष्कार प्रतिबंधों के कारण नाकाम हो गए क्योंकि उन प्रतिबंधों ने उस डिजाइन को बाजार के लिए तैयार किए जाने वाले प्रोडक्ट में तब्दील करने वाली मशीन तक पहुंच रोक दी. चीन के पास वह बुनियादी वैज्ञानिक आधार नहीं था जो चिप बनाने वाली मशीन बना सके.

एलियट नोट कहते हैं, “सरकारी पूंजी निवेश का यह उन्माद, राजनीतिक प्रमुखता, और राष्ट्रवादी नरेटिव 1957 के विनाशकारी ‘ग्रेट लीप फॉरवर्ड’, जो स्टील उत्पादन बढ़ाने के लिए था, जैसा रहस्यपूर्ण लगता है.” ऐसा लगता है कि आज का नया ‘ग्रेट लीप फॉरवर्ड’ शून्य में महान छलांग साबित होने वाला है.

क्या आगे युद्ध है?

चीन पर हमले के बाद जापान ने बड़ी शान से घोषणा की थी कि “पूर्वी एशिया में एक नयी व्यवस्था” आ रही है. इसमें कहा गया था कि जापान “कम्यूनिज़्म के खिलाफ संयुक्त मोर्चा बनाने और एक नयी संस्कृति बनाने तथा पूरी पूर्वी एशिया में आर्थिक एकजुटता लाने” की योजना बना रहा है. यूरोप में नाजी जर्मनी की सफलताओं के बाद जापान को यकीन हो गया कि पश्चिमी देश विस्तारवादी युद्ध का जवाब दे देंगे. जापान को बस अपने लिए जरूरी संसाधन जीतने हैं और एशिया में अपना प्रभाव स्थापित करना है.

जापानी नीति निर्माण से जुड़े उग्रवादी हस्तियों ने हिसाब लगाने में भारी भूल की. संसाधनों पर जल्दी कब्जा करने की कोशिश ने उसे ऐसे युद्ध में उतार दिया जिसे वह नहीं जीत सकता था.

शी को शायद पता है कि उनका अरबों डॉलर वाला सेमीकंडक्टर केवल उनके रणनीतिक फैसले को स्थगित करता है. प्रतिबंधों और सुस्त होती अर्थव्यवस्था के मद्देनजर चीनी राष्ट्रपति उस संकट से कट कर निकल सकते हैं जिसमें उन्होंने अपने देश को पहुंचा दिया है.

शी के सामने केवल यही रास्ता नहीं है. वे सोच सकते हैं कि पश्चिमी देश केवल ताइवान जैसे सहयोगियों की रक्षा की खातिर सुपर पावर वाले युद्ध की भारी आर्थिक तथा सैन्य कीमत अदा करने को राजी नहीं होंगे. अगर वे राजी होते भी हैं तो शी भी यह कीमत चुकाने को राजी हो सकते हैं. आखिर, चीन की आर्थिक वृद्धि दर सुस्त हो रही है और उसकी आबादी बूढ़ी हो रही है, जिसका अर्थ यह हुआ कि शी को अब कुछ करना ही पड़ेगा वरना बाजी हमेशा के लिए हारनी पड़ेगी.

परमाणु हथियारों ने जब जापान के साथ युद्ध को खत्म किया तब से विश्व व्यवस्था इस धारणा पर आधारित रही है कि कोई भी परमाणु शक्ति एक और युद्ध में फंसना नहीं चाहेगी. वैसे, 1941 में शुरू युद्ध ने दिखा दिया था कि प्रतिरोधी शक्ति विफल भी सकती है. जब नेताओं को यह लगेगा कि निश्चित हार ही युद्ध का विकल्प है, तो वे गलत सलाह पर मौके तलाशने की कोशिश कर सकते हैं. क्या शी किसी सैद्धांतिक मृगमरीचिका के फेर में अपने देश की मेहनत से अर्जित संपन्नता की बलि चढ़ाना चाहेंगे? एशिया में हुए अंतिम ‘ग्रेट वार’ का रास्ता यही बताता है कि हम इस सवाल का कोई निश्चित जवाब नहीं मान कर बैठ सकते हैं.

(लेखक दिप्रिंट में राष्ट्रीय सुरक्षा संपादक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: कश्मीरी जिहाद गायब हुआ, अब भारत की बड़ी चूक ही उसकी वापसी करा सकती है


share & View comments