भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के 17 नवंबर को सेवानिवृत होने से पहले चार महत्वपूर्ण मामलों में फैसले सुनाने की उम्मीद है, जो भारत और इसके शासन के तौर-तरीके के लिए दूरगामी प्रभाव वाले होंगे.
ये इन फैसलों, खास कर जो रिटायर हो रहे गोगोई लिखेंगे, के जरिए सुप्रीम कोर्ट के आभामंडल को कुछ हद तक पुनर्स्थापित करने का भी अवसर है. ऐसा इसलिए क्योंकि देश की सर्वोच्च अदालत ने भारत की संवैधानिक अखंडता का संरक्षक, और अक्सर प्रवर्तक भी, होने की अपनी प्रतिष्ठा और उच्च नैतिक स्थिति को कुछ हद तक कमज़ोर किया है.
मुख्य न्यायाधीश की अगुआई वाली खंडपीठों द्वारा सुनाए जाने वाले चार फैसलों के मर्म से ये भी जाहिर हो सकेगा कि सुप्रीम कोर्ट ने नरेंद्र मोदी सरकार के चंगुल से खुद को छुड़ाने का इरादा किया है या नहीं. और भी अहम, इससे ये भी साबित होगा कि सर्वोच्च अदालत के फैसले संवैधानिक सिद्धांतों के आधार पर किए जाते हैं या उनमें लोकप्रिय जनभावनाओं का ख्याल रखा जाता है.
आइए इन चार मामलों और इनके संबंध में सुप्रीम कोर्ट के प्रदर्शन पर गौर करते हैं.
राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामला
यह सबसे महत्वपूर्ण और संवेदनशील मामला है, जिस पर अपनी सेवानिवृत्ति से पहले फैसला सुनाना संभव करने के लिए मुख्य न्यायाधीश गोगोई ने रोज़ाना की सुनवाई की है.
‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ होने के कारण खंडपीठों के गठन की जिम्मेदारी मुख्य न्यायाधीश की ही है, इसलिए जस्टिस गोगोई ने ही जनवरी में अयोध्या मामले के लिए पांच जजों की खंडपीठ का गठन किया था जिसमें उनके अलावा न्यायमूर्ति एसए बोबडे, अशोक भूषण, एसए नज़ीर और डीवाय चंद्रचूड़ शामिल हैं.
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इस संबंध में जस्टिस गोगोई का आदेश चकित करने वाला था क्योंकि उनके पूर्ववर्ती मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने अपने 2-1 के फैसले में अयोध्या मामले को केवल एक भूमि विवाद करार देते हुए कहा था कि मामले को संविधान पीठ को सौंपने का कोई आधार नहीं है. सिर्फ जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर ने राय दी थी कि मस्जिद के इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं होने संबंधी सुप्रीम कोर्ट के 1994 के अवलोकन को एक बड़ी खंडपीठ के पास भेजा जाना चाहिए और यहां तक कि उन्होंने इस बारे में विचार के लिए कुछ प्रश्न भी तैयार किए थे.
संविधान पीठ ने सात दशक पुराने एक मामले को लेकर इस तरह जल्दबाज़ी क्यों दिखाई, ये सवाल अभी भी अनुत्तरित है पर असल प्रश्न है: खंडपीठ कानून पर चलेगी, या बहुसंख्यकों की भावनाओं का पक्ष लेगी, या कोई बीच का रास्ता निकालेगी?
राफेल मामला
नरेंद्र मोदी सरकार के फ्रांसीसी कंपनी दशॉ एविएशन से राफेल युद्धक विमान खरीदने के फैसले की अदालत की निगरानी में जांच कराने की याचिकाओं पर पिछले साल दिया गया फैसला विवादित होने के बाद मुख्य न्यायाधीश गोगोई और अन्य जजों ने अपने फैसले के विरुद्ध पुनरीक्षण याचिकाओं पर सुनवाई की.
मामले से जुड़े वकीलों के अनुसार 14 दिसंबर 2018 के फैसले में समस्या ये थी कि अदालत को ‘बहुत सारी अहम सूचनाएं नहीं दी गई थीं’ और वो ‘विवादित फैसला मोदी सरकार द्वारा अदालत को दिए गए धोखे की वजह से आया था’.
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अधिक चिंता की बात ये है कि खंडपीठ ने भारत के आधिकारिक ऑडिटर – नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) – द्वारा रक्षा सौदों की जांच के तरीके का भी गलत संदर्भ दिया. इससे मामले में सुप्रीम कोर्ट के रवैये की आलोचना करने वालों को एक और हथियार मिल गया.
यह देखना दिलचस्प होगा कि मुख्य न्यायाधीश गोगोई की बेंच आलोचनाओं का प्रभावी जवाब कैसे देती है: क्या यह सबकुछ गुप्त रहने देगी या फिर, जैसा कि हर महान संस्था से अपेक्षित होता है, अपनी नासमझी को स्वीकार करते हुए अदालत की विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा को पहुंचे नुकसान को सही करेगी? खंडपीठ के पास इस सवाल को हमेशा के लिए निपटाने का भी मौका भी है कि एक गोपनीय सौदे में अनियमितता के आरोप लगने पर सरकार ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ की आड़ ले सकती है या नहीं.
सबरीमाला मामला
केरल के सबरीमाला मंदिर में माहवारी की उम्र की महिलाओं को पूजा करने की अनुमति देने के सुप्रीम कोर्ट के 28 सितंबर 2018 के फैसले का कई हिंदू संगठनों ने भारी विरोध किया था.
उस फैसले की समीक्षा के लिए 65 पुनरीक्षण याचिकाएं आईं, जिनकी सुनवाई मुख्य न्यायाधीश गोगोई की अगुआई वाली संविधान पीठ कर रही है.
पुनरीक्षण याचिकाओं से इस सवाल का समाधान मिलेगा कि क्या अदालतों को धार्मिक रीति-रिवाजों और नियमों में दखल देना चाहिए. उनके आधार पर इस व्यापक मुद्दे को भी सुलझाया जा सकेगा कि अपने फैसलों के बहुसंख्यकों की मान्यताओं के खिलाफ जाने की स्थिति में क्या अदालतों के पास, विवाद में एक पक्षकार बने बिना, उसे लागू कराने की संजीदगी है.
वित्त विधेयक बनाम धन विधेयक
मुख्य न्यायाधीश गोगोई की अध्यक्षता वाली खंडपीठ को ये भी तय करना है कि वित्तीय विधेयक या संघीय बजट को लोकसभा के स्पीकर के निर्देश पर एक धन विधेयक के रूप में पारित किया जा सकता है या नहीं. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के सामने इस व्यापक मुद्दे को सुलझाने का भी मौका है कि लोकसभा के स्पीकर का फैसला न्यायिक समीक्षा के अधीन आता है या नहीं.
राज्यसभा को दरकिनार करने के लिए वित्त विधेयक, 2017 को धन विधेयक के रूप में पारित कराए जाने पर सबका ध्यान गया था.
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इस मामले में मोदी सरकार ने जहां तकनीकी बारीकियों का सहारा लिया है, वहीं याचिकाकर्ताओं ने अपनी दलील के समर्थन में एक न्यायिक संस्था की स्वतंत्रता का मुद्दा उठाया है.
इस फैसले का सबको इंतजार है क्योंकि इससे इस मुद्दे को भी सुलझाया जा सकेगा कि क्या भारी बहुमत वाली किसी सरकार को विपक्ष और स्थापित संसदीय मानदंडों की पूर्ण अवहेलना करने की अनुमति दी जा सकती है.
पुनश्च : दूरगामी असर वाले इन चार मामलों के अलावा मुख्य न्यायाधीश गोगोई की अध्यक्षता वाली खंडपीठ इस बात का भी फैसला करेगी कि पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के खिलाफ भाजपा सांसद मीनाक्षी लेखी द्वारा दायर आपराधिक अवमानना के लंबित मामले का क्या किया जाए. राहुल गांधी ने मोदी के लिए प्रयुक्त अपने ‘चौकीदार चोर है’ के नारे के संदर्भ में गलत ढंग से राफेल पर पुनरीक्षण याचिकाओं की अनुमति देने वाले सुप्रीम कोर्ट को उद्धृत किया था.
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(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)