scorecardresearch
Wednesday, 18 December, 2024
होममत-विमतमुख्य चुनाव आयुक्त और आयुक्त का बिल दिखाता है कि बीजेपी 2069 तक सत्ता में रहने के लिए आश्वस्त है

मुख्य चुनाव आयुक्त और आयुक्त का बिल दिखाता है कि बीजेपी 2069 तक सत्ता में रहने के लिए आश्वस्त है

मोदी सरकार का चुनाव आयोग को 'मजबूत' बनाने की ओर बढ़ाया गया कदम जैसा लग तो रहा है.लेकिन सच्चाई ये है कि यह इसके ठीक उलट है.

Text Size:

सितंबर 2018 में, तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में घोषणा की कि पार्टी 2019 का लोकसभा चुनाव जीतेगी और फिर अगले 50 वर्षों तक – यानी 2069 तक भारत पर शासन करेगी.

तब किसी ने भी इसे गंभीरता से नहीं लिया था. पांच साल बाद, भाजपा इस बात को लेकर आश्वस्त दिखाई दे रही है कि वह कम से कम अगले 45 वर्षों तक सत्ता में रहेगी. इसका सबसे नवीनतम प्रमाण मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा की शर्तें और कार्यालय की अवधि) विधेयक, 2023 है. राज्यसभा ने इसे 12 दिसंबर को पारित किया, और लोकसभा इस सप्ताह इसे मंजूरी देने के लिए तैयार है.

ऐसे कानून का प्रस्ताव कोई राजनीतिक दल तभी कर सकता है जब वह इस बात से आश्वस्त हो कि वो अपनी सत्ता नहीं खोने जा रहा है. क्योंकि यह सत्तारूढ़ दल को चुनाव आयोग पर अत्यधिक नियंत्रण देगा, जिससे लोकतंत्र कमजोर होगा. यह सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ के फैसले को उलटने का भाजपा का तरीका है. कोर्ट ने मार्च 2023 में आदेश दिया था कि सीईसी और ईसी की नियुक्ति प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश की एक समिति द्वारा की जाएगी. न्यायाधीशों ने स्पष्ट किया कि यह तब तक लागू रहेगा जब तक संसद इस पर कानून न बना ले.

संविधान का अनुच्छेद 324(2) भारत के राष्ट्रपति (एक तरह से, प्रधानमंत्री) द्वारा सीईसी और ईसी की नियुक्ति का प्रावधान करता है, जब तक संसद इस पर कानून न बना ले. आज की भाजपा की तरह, उन दिनों कांग्रेस को कोई कानून बनाने की आवश्यकता नहीं थी. कौन सा सत्तारूढ़ दल नहीं चाहेगा कि अपने मनचाहे व्यक्तियों को सीईसी और ईसी के रूप में नियुक्त करने का अधिकार रखे? वे दिन थे जब कांग्रेस ने अपने आप को कभी विपक्ष में बैठते हुए नहीं सोचा था. मोदी लहर के बाद भाजपा कथित अजेयता के क्षेत्र में पहुंच गई और सरकार के पास कांग्रेस की कार्यप्रणाली को बदलने का कोई कारण नहीं था.

अपने आदेश में, सुप्रीम कोर्ट ने कानून के साथ आगे नहीं बढ़ने में राजनीतिक दलों की विशेष रुचि पर टिप्पणी की, “कारणों की तलाश बहुत दूर नहीं है. चुनाव आयोग की स्वतंत्रता और सत्ता की खोज, उसके सुदृढ़ीकरण और स्थायित्व के बीच एक अत्यंत महत्वपूर्ण संबंध है. जब तक उस पार्टी का सवाल है जो सत्ता में आती है, अस्वाभाविक रूप से नहीं, सत्ता में बने रहने की लगभग अतृप्त खोज है. एक लचीला चुनाव आयोग शायद सत्ता हासिल करने और उसे बरकरार रखने का सबसे सुरक्षित प्रवेश द्वार प्रदान करता है.”

सुप्रीम कोर्ट के मार्च के फैसले से सचमुच में भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) को वास्तव में स्वतंत्र और स्वायत्त बनाने की संभावना बनी. यही सीईसी और ईसी की नियुक्ति पर कानून बनाने की मोदी सरकार की जल्दबाजी का कारण है. प्रस्तावित कानून तीन सदस्यीय चयन पैनल, जिसमें मुख्य न्यायाधीश भी शामिल हैं, के बारे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निरर्थक बना देगा.


यह भी पढ़ें: ज्ञानवापी मस्जिद से जुड़ी सभी पांचों याचिकाओं को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने खारिज कीं


एक दिलचस्प लेकिन नया जोड़

वास्तव में, जो कानून इस सप्ताह लोकसभा से पारित होने की संभावना है, वह चुनाव आयोग पर कार्यपालिका की पकड़ को और अधिक सशक्त करेगा, जो कि कांग्रेस के युग के दौरान हो रहा था. उससे भी ज्यादा. प्रस्तावित कानून के मुताबिक पुरानी व्यवस्था को ही जारी रखा गया है. जहां सुप्रीम कोर्ट ने पीएम, विपक्ष के नेता और सीजेआई के एक पैनल का सुझाव दिया था. प्रस्तावित कानून सीजेआई के स्थान पर पीएम द्वारा नामित एक कैबिनेट मंत्री को नियुक्त करने का प्रावधान करता है. इसलिए, नियुक्तियों पर मतभेद के मामले में, प्रधान मंत्री और उनके नामित व्यक्ति एक तरफ होंगे और विपक्ष के नेता दूसरी तरफ. जाहिर है बहुमत की चलेगी. ऐसे देखें तो साफ है कि यह प्रधान मंत्री ही हैं जो प्रस्तावित कानून के तहत सीईसी और ईसी का फैसला करेंगे – एक प्रथा जो पिछले सात दशकों से जारी है.

हालांकि, प्रस्तावित कानून में एक दिलचस्प बात यह है कि यह सेवारत और पूर्व ईसी और सीईसी को किसी भी नागरिक या आपराधिक कार्यवाही से छूट प्रदान करता है. विधेयक कहता है: “तत्काल लागू किसी भी अन्य कानून में किसी भी बात के बावजूद, कोई भी अदालत किसी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ किसी भी नागरिक या आपराधिक कार्यवाही पर विचार नहीं करेगी या जारी नहीं रखेगी जो किसी कार्य या शब्द या चीज़ के लिए मुख्य चुनाव आयुक्त या चुनाव आयुक्त के द्वारा तब किया गया, किया गया या बोला गया जब, या उसके आधिकारिक कर्तव्य या कार्य के निर्वहन के दौरान या कार्य करने के लिए तात्पर्यित हो.”

पहली नजर में, यह ईसीआई को ‘मजबूत’ करने का एक कदम जैसा लग सकता है. लेकिन वास्तव में, यह बिल्कुल विपरीत है. इसका उद्देश्य प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त सीईसी और ईसी को कार्यालय में उनके कृत्यों के लिए किसी भी नागरिक या आपराधिक कार्यवाही के खिलाफ ढाल देना है. ऐसे परिदृश्य के बारे में सोचें जहां प्रधान मंत्री ईसी और सीईसी की नियुक्ति करते हैं – उनकी वफादारी और आज्ञाकारिता के सिद्ध रिकॉर्ड को भली भांति देख कर. उनसे अपेक्षा की जाएगी कि वे हर संभव तरीके से अपने कृतज्ञता के ऋण को चुकाएं. कानून बन जाने के बाद उन्हें भविष्य में किसी परिणाम का डर नहीं रहेगा.

कोई यह तर्क दे सकता है कि कोई दूसरा टीएन शेषन हो सकता है. लेकिन वह वो समय था जब कई नौकरशाहों की रीढ़ की हड्डी मजबूत हुआ करती थी. वे अपने राजनीतिक आकाओं को आश्चर्यचकित कर सकते थे क्योंकि उनकी वैचारिक और राजनीतिक प्रतिबद्धताओं और वफादारी का पता लगाने के लिए कोई 360-डिग्री मूल्यांकन प्रणाली नहीं थी.

करें तो पूर्व वित्त सचिव अशोक लवासा ने 2018 में चुनाव आयुक्त बनने पर यह दिखाया. जब तत्कालीन सीईसी और एक अन्य ईसी ने लगभग आधा दर्जन मामलों में पीएम मोदी और अमित शाह को 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान आदर्श आचार संहिता के कथित उल्लंघन करने पर क्लीन चिट दे दी, तो उन्होंने अपना विपरीत मत दिया.उनके असहमति नोट को कभी भी चुनाव आयोग के आदेश का हिस्सा नहीं बनाया गया, लेकिन आयकर विभाग जल्द ही कार्रवाई में जुट गया और उनकी पत्नी को विभिन्न मामलों में नोटिस जारी किया.

अगस्त 2020 तक, लवासा ने एशियाई विकास बैंक में जाने का फैसला किया, भले ही वह अगले वर्ष सीईसी के रूप में सुनील अरोड़ा की जगह लेने की कतार में थे. बाद में आयकर विभाग की ओर से कुछ नहीं सुना गया.

क्या होता है जब बाजी पलट जाती है

कोई भी विपक्षी दल ऐसे परिदृश्य से डरेगा जहां सरकार द्वारा नियुक्त सीईसी और ईसी के पास अपने राजनीतिक आकाओं की इच्छा अनुसार कार्य करने का लाइसेंस होगा – जैसा कि विधेयक में प्रस्तावित है. इसका मतलब यह नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी चाहेंगे कि ये लोग अपनी आत्मा बेच दें. नहीं बिल्कुल नहीं. उनके जैसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री को ईसीआई को कमजोर करने और लोकतंत्र को कमजोर करने की जरूरत नहीं है. हम एक काल्पनिक परिदृश्य के बारे में बात कर रहे हैं जब एक ऐसा प्रधानमंत्री हो सकता है जो सत्ता बरकरार रखने के लिए कुछ भी कर सकता है.

इसलिए, न केवल विपक्ष, बल्कि सत्ता पक्ष का एक वर्ग भी इस विधेयक को लेकर थोड़ा घबराया हुआ होगा. क्या होगा जब सरकार बदल जाएगी और सत्ताधारी दल के नेताओं को विपक्ष में बैठना पड़ेगा? एक कमजोर ईसीआई तब कांग्रेस या किसी भी अन्य पार्टी के सत्ता में आने पर कैसे व्यवहार करेगी? लचीले अधिकारी सत्ता के प्रति वफादार होते हैं, किसी नेता या पार्टी के प्रति नहीं.

इसलिए, अगर मोदी सरकार इस तरह के कानून पर जोर दे रही है, तो इसका कारण वही हो सकता है जो अमित शाह ने 2018 में कहा था: भाजपा 50 साल तक सत्ता में रहेगी. सत्तारूढ़ दल के नेतृत्व को इस पर शायद यकीन होता जा रहा है . अन्यथा वे उपर्युक्त कानून के माध्यम से चुनाव आयोग को कमजोर करने का प्रयास नहीं करते.

(डीके सिंह दिप्रिंट में राजनीतिक संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(संपादन: पूजा मेहरोत्रा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: ‘जो जीता वही सिकंदर’ वाली सोच पुरानी हुई- 2023 के चुनावों पर नए तरीके से विश्लेषण करने की जरूरत


 

share & View comments