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Friday, 1 November, 2024
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जातिमुक्ति एक नैतिक विचार हो, न कि जातिवाद-विरोधी कानून से बचने की चाल

जातिमुक्ति का दावा अक्सर प्रभावशाली या आम भाषा में उच्च या सवर्ण जातियों के द्वारा किया जाता है. इस विचार की जड़े भारत में हैं.

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कैलिफोर्निया की सीनेट जातिभेद को रोकने और जाति के आधार पर वंचितों को संरक्षण देने के विधेयक को (34-1) मंजूरी दे चुकी है. इसे अफगान मूल की सीनेटर आयशा वहाब ने पेश किया था. इससे पहले सीनेट न्यायिक कमेटी ने भी इसे बिना किसी विरोध के पारित किया था और ये विधेयक अब कैलिफोर्निया असेंबली में जाने के लिए तैयार है. इसे लेकर पक्ष से ज्यादा शोर इस समय विरोधी खेमे की तरफ से है. विरोध की दो शक्लें हैं. एक तो कि किस तरह से इस विधेयक को कानून बनने से रोका जाए और दो, अगर ये कानून बन गया तो इससे अमेरिका में बसे दक्षिण एशिया की प्रभावशाली या तथाकथित उच्च जातियों के लोगों को कैसे बचना चाहिए.

इस क्रम में जाति और जाति पहचान को लेकर तमाम तरह के तर्क दिए जा रहे हैं. इसमें एक तर्क जो सबसे ज्यादा बोला और लिखा जा रहा है वो ये है कि दक्षिण एशिया के लोग जब अमेरिका आ गए और यहां बस गए तो अब उनकी जाति पर क्यों बात हो रही है. इसी का विस्तार उनका ये कहना है कि- हम न तो जाति मानते हैं और न ही जानते हैं. ऐसे में हम जाति के आधार पर भेदभाव कैसे कर सकते हैं? हम तो अपने बच्चों को जाति के बारे में बताते नहीं है. ऐसे में जो बच्चे यहीं पैदा होकर बड़े हुए उन पर जाति की पहचान क्यों थोपी जा रही है?…आदि.

कैलिफोर्निया विधेयक SB-403 के विरोध में अग्रणी संगठन हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन ने इस बात पर सवाल उठाए हैं कि इस कानून के तहत, दक्षिण एशिया के लोगों की जाति कैसे निर्धारित होगी. सीनेटर वहाब को भेजे एक पत्र में फाउंडेशन ने लिखा है– “कैलिफोर्निया में जिन दक्षिण एशियाई लोगों की कोई जाति नहीं है, क्या उनको अपनी जाति जानने के लिए भारतीय कानूनों को और उसके तहत जाति की प्रशासनिक व्यवस्था की समझदारी बनानी पड़ेगी.”

 इससे जुड़ा एक दिलचस्प सुझाव स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में शिक्षक अनुराग मैराल की तरफ से आया है वे लिखते हैं- कैलिफोर्निया में कार्यरत हर हिंदू अमेरिकी को ये घोषित कर देना चाहिए कि वह हिंदू दलित है.”  वे लिखते हैं कि  अन्यथा दूसरी व्यवस्था यही होगी कि कैलिफोर्निया राज्य असंवैधानिक रूप से ये तय करने लग जाएगा कि मेरे बच्चों का धर्म और उनकी जाति क्या है. अनुराग का दावा है कि उन्होंने ये विचार गांधीवादी परंपरा से लिया है.

ये सारे तर्क इस बुनियाद पर टिके हैं कि जाति दक्षिण एशिया के लोगों की सामाजिक पहचान का जरूरी हिस्सा नहीं है और इस जब चाहे इस्तेमाल किया जा सकता है और जब मर्जी तब जातिमुक्त बना जा सकता है. इस दावे की गहन अकादमिक और समाजशास्त्रीय पड़ताल होनी चाहिए.

मेरा तर्क है कि जाति की पहचान से समस्या आने की आशंका को देखकर हिंदू संगठन और विचारकों की ओर से जो ये तर्क आ रहा है कि भारतीय प्रवासी जाति-पाति नहीं मानते और जाति मुक्त हैं, ये दावा तथ्यों पर आधारित नहीं है. अमेरिका में जाति आधारित बेशुमार संगठन चलते हैं और लोग उनसे जुड़े हुए हैं. जाति आधारित भेदभाव की शिकायतें (1,2,3) भी अक्सर सामने आती रही है. यही नहीं, वहां जाति के अंदर ही शादी सुनिश्चित करने के लिए मैट्रिमोनियल सर्विसेज हैं और कंपनियों में अघोषित रूप से जाति के नेटवर्क काम करते हैं. साथ ही, जातिभेद विरोधी कानून तो सिर्फ जातिवाद साबित होने की स्थिति में ही लागू होगा, इस कानून का विरोध भी इस ओर संकेत करता है कि अमेरिका में जाकर बसने भर से जाति खत्म नहीं हो जाती.


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जाति-मुक्त होने का दावा और हकीकत

जातिमुक्ति का दावा अक्सर प्रभावशाली या आम भाषा में उच्च या सवर्ण जातियों के द्वारा किया जाता है. इस विचार की जड़े भारत में हैं. दरअसल संविधान लागू होने के बाद, बल्कि उससे पहले भी वंचित जातियों के लिए संरक्षण और आरक्षण आदि के प्रावधान हुए तो इन प्रावधानों से बाहर की जातियों ने खुद को “जनरल” यानी सामान्य कहना शुरू कर दिया. यानी जो राज्य के अफर्मेटिव एक्शन प्रोग्राम के दायरे में हैं, उन लोगों की तो जातियां हैं और बाकी लोग जनरल हैं. उन्होंने ये पहचान अपने लिए खुद बना ली और बाद में ये भाषा सरकारी दस्तावेजों में भी प्रचलित हो गई.

इसका मतलब ये नहीं है कि जाति एक सुविधाजनक बदली जाने वाली पहचान पहचान बन गई. ये किसी ड्रेस की तरह है कि जिसे मन हो या जरूरत हो तो पहन लिया जाए और जब मन न हो, या जरूरत न हो, या जब इसका होना असुविधाजनक लगे तो इसे उतार कर सुरक्षित रख दिया जाए. किसी व्यक्ति का जनरल या जाति-मुक्त होने का दावा उसे जाति के अंदर अपने बच्चे के लिए रिश्ता ढूंढने से या जाति के आधार पर संपर्क ढूंढकर नौकरी खोजने या जाति नेटवर्क का लाभ लेकर बिजनेस खोलने या विस्तार करने से नहीं रोकता.

समाजशास्त्री सतीश देशपांडे ने जाति न देखने (कास्ट ब्लाइंडनेस) और खुद को जाति से अलग और ऊपर मानने की उच्च जातियों की सोच पर गंभीर लेखन किया है. उनका मानना है कि उच्च जातियां ऐतिहासिक रूप से सत्ता में और ऊपर के पदों पर मौजूद रहीं, उच्च जाति होने का उन्हें सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक लाभ मिला. लेकिन जाति की बुराइयों से खुद को अलग दिखाने या अपनी प्रगतिशील छवि बनाने के लिए वे जातिमुक्त होने का दावा कर सकते हैं.

दूसरी ओर, वंचित जातियां अपनी कमजोर स्थिति से निकलने या शासन के अफर्मेटिव एक्शन के उपायों का फायदा लेने के लिए जाति को क्लेम करती हैं. साथ ही यथास्थिति को बदलने की चाहत भी अक्सर उन्हीं लोगों में होती है, जिन्हें यथास्थिति से समस्या है. इसलिए जाति और जातिभेद की बात भी अक्सर वंचित जातियों के लोग ज्यादा करते हैं. इसलिए ये धारणा बन सकती है कि वंचित जातियों के लोगों की जाति होती है और बाकी लोग तो जनरल हैं! यही वजह है कि जिन राज्यों या इलाकों में जातिवाद के खिलाफ ज्यादा आंदोलन हुए या जहां आंदोलन कामयाब हुए वे जातिवादी राज्य माने जाते हैं. जहां अभी जाति के खिलाफ प्रतिरोध नहीं हुआ है, व राज्य जातिवाद से मुक्त माने जाते हैं. ऐसे राज्यों में पश्चिम बंगाल और ओडिशा प्रमुख है. जबकि तमिलनाडु को लोग अकसर सबसे ज्यादा जातिवादी राज्य बताते हैं क्योंकि वहां जातिवाद से मुक्ति की सबसे मजबूत परंपरा है.

दरअसल जाति व्यवस्था के प्रति किसी व्यक्ति या समुदाय की राय इस बात से भी निर्धारित होती है कि जाति क्रम में वह व्यक्ति या जाति कहां है. जाति व्यवस्था के शिखर पर बैठे व्यक्ति को जाति भगवान की बनाई हुए, वैदिक या पौराणिक, कर्म आधारित समाजिक विभाजन, कर्मफल सिद्धांत, पूर्व जन्मों के कर्मों का फल आदि कुछ भी नजर आ सकती है. इसे वह आसानी से रहस्यवादी तरीके से देख सकता है और इसके आधार पर शास्त्र चर्चा कर सकता है. लेकिन जाति के आधार पर अगर कोई समुदाय गटर पर उतरने या मैला साफ करने के लिए अभिशप्त है, तो उसे जाति व्यवस्था इतनी रहस्यवादी नहीं लगेगी. जिन जातियों को पीढ़ियों से शिक्षा से या शस्त्र धारण करने से रोका गया, उनके लिए जाति कोई शास्त्रीय वस्तु नहीं हो सकती.

इस संदर्भ में ये समझना जरूरी है कि जाति हर किसी के लिए तकलीफदेह नहीं है, न ही वह हर समय तकलीफदेह है. अमेरिका जाने वाले किसी सवर्ण व्यक्ति के लिए संभव है कि जाति एक सीढ़ी का काम करे. परंपरागत रूप से और पीढ़ियों से शिक्षा तक पहुंच का वह लाभार्थी हो सकता है. अमेरिका में खासकर यूनिवर्सिटी और टेक सेक्टर में सवर्ण जातियों के लोग शुरुआत में पहुंचे क्योंकि भारत में शिक्षा पर पकड़ के कारण वही अमेरिका जाने के लिए सक्षम थे. ऐसे में कई ऐसे परिवार थे और हैं जो अपने बच्चों को बचपन से ही मानसिक रूप से तैयार कर रहे हैं कि उन्हें अमेरिका जाकर जॉब करनी है. अमेरिका में मौजूद जाति के नेटवर्क और रिश्तेदारियां इन बच्चों के लिए अमेरिका आना आसान बनाती हैं. लेकिन अमेरिका पहुंचने के बाद अगर जाति की सीढ़ी की उपयोगिता नहीं नजर आती है तो उसे ठोकर मार कर गिरा दिया जा सकता है.

इसकी तुलना में वंचित जातियों के लोग बेहद कमजोर धरातल पर होते हैं और कोई आसानी से ये कह सकता है कि अमेरिका में तो टैलेंट चलता है, और जिनमें टैलेंट है, वही तो जाएगा. क्योंकि वहां तो जाति के आधार पर रिजर्वेशन नहीं है!

वैसे भी जातिवाद हमेशा जातियों (बहुवचन) की मौजूदगी में काम करता है. अगर किसी खास जगह या खास परिस्थिति में एक ही जाति या जाति-समूह के लोग मौजूद हैं, तो जातिवाद भेदभाव की शक्ल में नजर नहीं आएगा. अमेरिका में जातिवाद की समस्या अब पैदा हो रही है क्योंकि पिछले डेढ़-दो दशकों में वंचित जातियों खासकर दलित समूहों के लोग भी वहां पहुंचने लगे हैं और अन्य खासकर पहले से जमे दक्षिण एशियाई लोगों के साथ उनका आमना-सामना हो रहा है.

इसका एक मतलब ये है कि जातिवाद का लाभार्थी होने के लिए जरूरी नहीं है कि कोई व्यक्ति ये कहे कि मैं इस या उस जाति का हूं. ऐसा मानना भी जरूरी नहीं है. ये संभव है कि इसके बिना भी जाति उसके फायदे में काम करे. अमेरिका में जाति के आधार पर मार-पिटाई या बलात्कार नहीं हो रहे हैं और कोई किसी को घोड़ी से नहीं उतार रहा है, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि वहां जातिवाद नहीं है. वहां का जातिवाद भेदभाव से ज्यादा अपने लोगों को आगे बढ़ाने और दूसरों को रोकने की शक्ल में नजर आएगा. अमेरिका में जो दक्षिण एशियाई व्यक्ति खुद को जातिमुक्त बताता है, वह बहुत सहजता से जातिवाद कर सकता है.

(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं, और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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