वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का केंद्रीय बजट 2021 साहसिक, सुविचारित और विवेकपूर्ण है. लेकिन सबसे अहम बात ये है कि यह वो मोड़ साबित हो सकता है जिसके बाद सीतारमण को शायद अधिक गंभीरता से लिया जाए और उन्हें उन नकारात्मक टिप्पणियों और कठोर आलोचनाओं— कुछ उचित और अधिकतर महिलाओं के खिलाफ पूर्वाग्रह वाली संस्कृति के कारण— से छुटकारा मिल सके जिनसे कि वह रक्षा मंत्री और फिर वित्त मंत्री बनने के बाद निरंतर जूझती रही हैं.
यह सीतारमण के लिए बड़ी कामयाबी का ऐसा पल साबित हो सकता है जिसका उनकी पार्टी के लिए भी विशेष मायने हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जिस एक बात में बहुत पीछे दिखती है, वो है नई प्रतिभाओं को तैयार करना. सशक्त महिला नेताओं की कतार तैयार करने में पार्टी की नाकामी तो और भी अधिक स्पष्ट नज़र आती है.
भाजपा में महिला नेता हैं कहां? संतुलन बनाने और अपने लिए एक और सुषमा स्वराज ढूंढने में पार्टी क्यों विफल रही है? यानि राजनीतिक, चुनावी और प्रशासनिक रूप से प्रभावशाली महिला राजनेता. भाजपा की ये स्थिति ऐसे समय है जब कई अन्य राजनीतिक दलों में इससे बिल्कुल अलग प्रवृत्ति देखी जा सकती है.
मैंने इससे पहले दलील दी थी कि पार्टी में प्रतिभाओं की कमी को देखते हुए मोदी सरकार को विदेश मंत्री एस जयशंकर की तरह लैटरल एंट्री के ज़रिए और लोगों को शासन में शामिल करने की ज़रूरत है, विशेष रूप से वित्त मंत्रालय को संभालने के लिए. लेकिन बजट 2021 को देखते हुए कहा जा सकता है कि अभी उम्मीद बाकी है और इसके साथ ही शायद निर्मला सीतारमण बदलाव के मुहाने पर आ चुकी हैं. बेशक, सुषमा स्वराज जैसा प्रभावशील नेता बनने की राह अभी भी लंबी और कठिन है.
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भाजपा में महिला नेताओं का अभाव
भारतीय राजनीति के पुरुष-प्रधान होने की बात स्वयंसिद्ध है जिस पर बहस की गुंजाइश नहीं है. इसके बावजूद, भाजपा समेत तमाम पार्टियों की प्रभावशाली महिला राजनेताओं ने राजनीतिक व्यवस्था में एक अमिट छाप छोड़ी है.
1990 के दशक की शुरुआत में जब भाजपा अपनी राष्ट्रीय प्रोफाइल और उपस्थिति बढ़ाने लगी, तो उस समय अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी उसके अग्रणी नेताओं में थे. लेकिन सुषमा स्वराज और उमा भारती उन चेहरों, और उससे भी अधिक उन आवाज़ों में शामिल थीं जिन्होंने पार्टी को परिभाषित किया.
तेज़तर्रार, उत्साही और जनाधार वाली ये महिला नेत्रियां हिंदुत्व प्रेरित विभाजनकारी राजनीति की भाषा बोलने समेत अपनी पार्टी की कई अपेक्षाओं पर खरी उतरती थीं. विडंबना यह है कि मोदी-शाह के दौर में दोनों ने अपनी चमक खो दी, मुख्यतया पार्टी की अंदरुनी राजनीति और खराब स्वास्थ्य के कारण. मिसाल के तौर पर, विदेश मंत्री के रूप में भी सुषमा स्वराज अपने पहले के व्यक्तित्व की छाया भर रह गई थीं. इसके बावजूद, उनके निधन को न केवल भाजपा के लिए बल्कि समस्त भारतीय राजनीति के लिए गहरी क्षति के रूप में देखा गया था.
राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे भाजपा की एक और प्रभावशाली महिला नेता रही हैं. लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में हार, साथ ही पार्टी हाईकमान से लगातार तनातनी के कारण पार्टी के भीतर उनको हाशिए पर डाल दिया गया है, जहां से उनके दोबारा उभरने की संभावना क्षीण दिखती है.
दूसरी पार्टियों की स्थिति बहुत अलग है. दशकों तक सोनिया गांधी कांग्रेस की सबसे शक्तिशाली शख्सियत रही हैं. ममता बनर्जी और मायावती दोनों ने अपने-अपने राज्यों पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य को नए सिरे से परिभाषित किया है. जयललिता बेहद लोकप्रिय और सफल मुख्यमंत्री थीं. महबूबा मुफ्ती का जम्मू-कश्मीर में खासा प्रभाव है और मोदी सरकार भी इस बात को मानती है, जो कि अनुच्छेद 370 निरस्त किए जाने के बाद उन्हें लंबे समय तक नज़रबंद रखे जाने से स्पष्ट है.
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में सुप्रिया सुले हैं, तो शिरोमणि अकाली दल में हरसिमरत कौर बादल और तेलंगाना राष्ट्र समिति में के कविता. इस बारे में वंशवाद की दलील दी जा सकती है लेकिन यह राजनीति में पुरुषों पर भी लागू होती है.
मोदी-शाह के दौर में भाजपा में केवल दो महिला नेता प्रमुखता से उभरी हैं— स्मृति ईरानी और निर्मला सीतारमण. हालांकि, दोनों का मिलाजुला और आमतौर पर अप्रभावी रिकॉर्ड रहा है.
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कामयाबी के बड़े क्षण की दरकार
स्मृति ईरानी वंशवाद के विनाशक के रूप में अपनी चुनावी ताकत दिखा चुकी हैं, जब 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने अमेठी में राहुल गांधी के खिलाफ बड़ी जीत हासिल की. लेकिन खुद को क्षमतावान साबित करने के बावजूद, सरकार में ईरानी के रिकॉर्ड को प्रभावशाली नहीं कहा जा सकता.
वास्तव में, ईरानी ने शुरुआती दौर में ही सफलता का स्वाद चख लिया था, जब 2014 में केंद्र में भाजपा के सत्तारूढ़ होने के बाद उन्हें प्रतिष्ठित मानव संसाधन विकास विभाग सौंपा गया था. हालांकि, इस जुझारू नेता के लिए परिस्थितियां जल्दी ही प्रतिकूल होने लगीं. बेमतलब विवादों में फंसने, अहंकार के प्रदर्शन, लोगों से ठीक से पेश नहीं आने और निरंतर मीडिया की आलोचना झेलने के कारण ईरानी का रुतबा लगातार घटता गया.
अमेठी की जीत के बाद, भले ही ईरानी को विशेष महत्व वाला कोई पद नहीं मिला हो लेकिन लगता है कि वह फिर से अपने पांव जमा चुकी हैं और उसके बाद से उन्होंने कोई गलत कदम नहीं उठाया है. लेकिन क्या मोदी और शाह उनके दुर्भाग्यपूर्ण पहले कार्यकाल को बेहतर तरीके से संभाल सकते थे?
शायद हां. सच्चे नेता अपने मातहतों को तैयार करते हैं, उन्हें मार्गदर्शन देते हैं और मज़बूत बनाते हैं, न कि पदावनति करके उन्हें सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करते हैं.
निर्मला सीतारमण के लिए भी मामला आसान नहीं रहा है. उन्हें 2017 में रक्षा मंत्री और फिर 2019 में वित्त मंत्री चुने जाने पर बहुतों को हैरानी हुई थी. राजनीति में निर्मला का कभी भी बड़ा कद नहीं रहा है और उनके पास जनाधार तो बिल्कुल ही नहीं है. उनके लिए स्थिति तब और खराब हो गई जब उन्होंने अपने मंत्रालयों से जुड़े मुद्दों की कमज़ोर समझ प्रदर्शित की.
फिर, उनसे कुछ दुर्भाग्यपूर्ण भूलें भी हुईं. उदाहरण के लिए प्याज पर संसद में उनके बयान को ले सकते हैं, जब प्याज की कीमतों में तेज़ी के मुद्दे पर एक बहस के दौरान उन्होंने अपने परिवार की मिसाल पेश की जो प्याज या लहसुन नहीं खाता है. उनकी ये टिप्पणी भले ही मूर्खतापूर्ण, हास्यास्पद और असंवेदनशील रही हो लेकिन बदले में उन्हें जो उपहास मिला, वह महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह से प्रेरित था. इसे ट्विटर पर ट्रेंड कराए गए हैशटैग #SayItLikeNirmalaTai से बखूबी समझा जा सकता है.
जब भारतीय अर्थव्यवस्था में तेज गिरावट आई और सरकार की प्रतिक्रिया घिसीपिटी रही, तो वैसे में निर्मला सीतारमण को ही बलि का बकरा बनाया गया.
हालांकि, सोमवार एक नई शुरुआत का दिन साबित हो सकता है, जब निर्मला सीतारमण प्रशंसा बटोरने वाला बजट पेश कर आखिरकार अपने आलोचकों को चुप कराने और ये साबित करने में सफल रही हैं कि स्थितियां उनके नियंत्रण में हैं. हालांकि, सुषमा स्वराज जैसी नेत्री पाने के लिए मोदी-शाह की भाजपा को अभी एक लंबी और कठिन राह तय करनी है.
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(व्यक्त विचार निजी हैं)
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