scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतहिंदी मीडिया में आज तक ब्राह्मणवाद जारी है, स्वर्णिम जातीय अतीत का मोह लार टपका रहा है

हिंदी मीडिया में आज तक ब्राह्मणवाद जारी है, स्वर्णिम जातीय अतीत का मोह लार टपका रहा है

मृणाल पांडे की किताब हिंदी मीडिया के इतिहास के साथ उसका राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र भी समझाती है, चरमोत्कर्ष की घड़ी में उसके पतन की वजह बताती है.

Text Size:

ये कहां आ गये हम? जो लम्हा हिंदी पत्रकारिता के लिए आकाश चढ़ने का हो सकता था उन्हीं लम्हों में हिंदी पत्रकारिता आखिर रसातल में क्यों समा बैठी?

मैं ‘आजतक’ पर था — जिसकी स्थापना पत्रकारिता के मानक और मेरे बड़े भाई जैसे सुरेंद्र प्रताप सिंह ने की थी, जिन्हें सब ‘एसपी’ बुलाते थे. बहुत दिन बाद इस चैनल पर आया था. इस चैनल के जुड़वां अंग्रेज़ी के ‘इंडिया टुडे’ पर बोलने के लिए मुझे अक्सर ही न्यौता मिलता है, लेकिन, होगा कोई कारण जो मुझे ‘आजतक’ पर इन दिनों नहीं बुलाया गया, ना तो मेरे पूर्वजन्म के विषय चुनावों पर और ना ही उस किसान-आंदोलन पर ही जिसमें मेरी प्रत्यक्ष भागीदारी रही. किसी ने बताया की ऊपर से इशारा है हिंदी चैनलों को, लेकिन, अब इसमें सच क्या है – राम ही जानें!

‘आजतक’ का वह शो कर्नाटक चुनाव पर था. चैनल की पटकथा बड़ी साफ थी: कांग्रेस समाज को बांटने वाला ओबीसी कार्ड खेलकर चुनाव जीती है. राहुल गांधी ने जिस हड़बड़ी में जाति जनगणना को अपना समर्थन दिया उससे यही बात साबित होती है. चैनल की इस पटकथा का अनकहा संदेश भी छुपा नहीं था: बीजेपी अपनी कमजोरियों और भ्रष्टाचार के कारण नहीं बल्कि जाति की उस गंदी राजनीति के कारण हारी है जो एक खुराफाती सोच का हिस्सा है और जिस सोच की परिणति राष्ट्रव्यापी जाति जनगणना की मांग के रूप में होने जा रही है. राजनीति के पतन की तस्वीर साफ-साफ उकेरने की नीयत से एंकर ने दर्शकों को याद दिलाना ज़रूरी समझा कि देश में एक वक्त वो भी था जब 20 में से 13 मुख्यमंत्री और लोकसभा के एक चौथाई सांसद ब्राह्मण थे. इसके आगे-पीछे कोई ‘किन्तु-परन्तु’ नहीं, लेशमात्र झिझक या संकोच नहीं! बिना लाग लपेट के स्वर्णिम अतीत का मोह दर्शकों के सामने लार टपका रहा था, जिसे सूरज येंगदे ‘ब्राह्मण श्रेष्ठता’ की विचारधारा बताते हैं उसका जीता जागता नमूना.


यह भी पढ़ें: विवेक की कमी से ग्रस्त इस देश के अक्ल से मंद डिग्रीधारियों को राजीव भार्गव की किताब पढ़नी चाहिए


जैसे कीचड़ की बौछार हो रही हो…

अब मेरे दिमाग में ‘एसपी’ की छवि घूम रही थी. पूर्वी उत्तर प्रदेश के राजपूत परिवार में जन्मे और कोलकाता में पले-बड़े ‘एसपी’ जातिगत अन्याय से जुड़े मुद्दों पर पैनी नज़र रखते थे और सामाजिक न्याय से जुड़ी खबर में कोई रिपोर्टर असंवेदनशील या लापरवाह भाषा बरते तो उसे बरजते भी थे. मैं इस बात का साक्षी हूं कि उन्होंने ‘आज तक’ के शुरुआती दिनों में कैसे न्यूज़रूम में सामाजिक विविधता का ताना-बाना बनाया था.

जाहिर है उस ‘आज तक’ के इस रूप को देख कर मैं क्षुब्ध था. फिर भी जब मैं एंकर के सवालों की तरफ मुखातिब हुआ तो मैंने संयम से काम लिया और जवाब में मुख्य रूप से चार बातें कहीं. एक तो ये कि 3 प्रतिशत आबादी का राजनीतिक प्रभुत्व ऐसी बात नहीं कि जिस पर गर्व किया जाए. यह किसी भी सभ्य समाज के लिए चिंता का विषय होना चाहिए. दूसरी बात कि ‘आज तक’ का अपना सटीक एक्जिट पोल इस मान्यता को साफ गलत ठहराता है कि कर्नाटक के इस चुनाव में पिछली बार की तुलना में कांग्रेस के पीछे ओबीसी समुदाय की भारी-भरकम गोलबंदी हुई. तीसरे ये कि बाकी राजनीतिक दलों की तरह बीजेपी भी जाति की राजनीति करती है, बीजेपी को जाति-आधारित सबसे वफादार लेकिन अदृश्य द्विज या अगड़ी जातियों का वोट-बैंक हासिल है. चौथी बात ये कि विपक्ष अगर जाति जनगणना की मांग कर रहा है तो इसमें कोई नई बात नहीं है क्योंकि जाति जनगणना का बीजेपी ने 2010 में संसद में समर्थन किया था और साल 2018 में तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने ओबीसी जनगणना का वादा भी किया था. अच्छा लगा कि मुझे अपने हिस्से की बात कहने का पूरा समय दिया गया. शो के खत्म होने के बाद मैंने आज तक के ब्राह्मण-मोह पर चुटकी लेते हुए चैनल की अपनी वीडियो ट्वीटर पर डाल दी. ज़ाहिर है, मैंने अपने ट्वीट में एंकर के बारे में एक भी शब्द नहीं लिखा था, वैसे भी उनके बारे में मैं बड़ा कम जानता हूं.

बस, फिर तो कीचड़ का परनाला खुल गया. एंकर की प्रतिक्रिया वो थी जिसे तर्कशास्त्र की पाठ्य पुस्तक में ‘एड होमिनेम’ वाला कुतर्क बताया जाता है, जब तर्क का जवाब देने की बजाय व्यक्तिगत हमला किया जाए. तथ्यों और तर्कों की काट में तो एंकर से कुछ कहते ना बना, लेकिन जवाब में उन्होंने मेरी जन्मपत्री बांचने का काम कुछ यों शुरू किया कि बस मां-बहन करने की कसर रह गई. मुझे कुंठित, अवसरवादी, महापाखण्डी और (हां, आपने ठीक सोचा) देश का गद्दार करार दिया गया. दो साल पहले, इंडिया टुडे समूह ने श्याम मीरा सिंह को नौकरी से हटा दिया था, इसलिए कि समूह की सोशल मीडिया नीति में है कि कर्मचारी अपनी पोस्ट को सिर्फ समाचारों तक सीमित रखेंगे और अपशब्दों का इस्तेमाल नहीं करेंगे. शायद यह दिशा-निर्देश प्रधानमंत्री को बचाने तक सीमित रहा होगा.

देखते-देखते मेरा ट्वीट ‘जो चाहे सो आये और जो मनभाये सो सुनाये’ के खेल में बदल गया. मुझ से कभी प्यार तो कभी गुस्सा रखने वाले वाले दिलीप मंडल जी की अगुवाई में सामाजिक न्याय के सेनानी मैदान में उतर गए. चैनल और एंकर को नाम ले-लेकर कोसा गया, ठीक ही कहा गया कि ये सब ब्राह्मणवादी वर्चस्व के तरफदार हैं, लेकिन कुछ लोगों ने एंकर के बारे में व्यक्तिगत और अशोभनीय टिपण्णी भी की. उधर मुझे ब्राह्मण-द्वेषी बताया गया (जबकि मैंने ब्राह्मणों के विरुद्ध एक शब्द नहीं कहा था), ‘यादव’ कुल को कोसा गया (सार्वजनिक रूप से किसी जाति को गाली देने की छूट कैसे है?) और जब और कुछ हाथ नहीं लगा तो बचपन के मेरे नाम को लेकर मुझ पर और गुजर चुके मेरे मां-पिता पर घिनौनी टिप्पणियां (इस ओछेपन में ‘पत्रकार’ भी शामिल थे!) की गईं. मैंने जवाब देने की कोशिश की लेकिन जल्दी ही अहसास हो गया कि इस कीच क्रीड़ा में शामिल होने का कोई मतलब नहीं है.


यह भी पढ़ें: इकतारा हो या पिटारा, क्या अब नहीं रहेगा हिंदी का बाल साहित्य हैरी पॉटर के सामने बेचारा?


हिंदी पत्रकारिता पर लिखी एक किताब

इस सब के बीच एक सवाल मेरे दिमाग को मथ रहा था: हिंदी-पत्रकारिता, खासकर हिंदी समाचारों की टेलीविजन पत्रकारिता, ऐसे गर्त में क्योंकर जा समाई है? एसपी होते तो ये सवाल मैं उन्हीं से करता क्योंकि उनकी टोली के ज्यादातर प्रशिक्षु पत्रकार चैनल हेड के पद तक पहुंचे हैं, लेकिन अफसोस! कि एसपी जल्दी चले गए, उस घड़ी जब ‘आज तक’ पूरे चैनल का रूप नहीं ले पाया था.

अपने सवाल का उत्तर ढूंढ़ने के लिए मैंने मृणाल पांडे जी की हाल की एक किताब उठाई. हिंदी के समादृत संपादकों के एक छोटे और तेजी से सिमटते कुनबे की चंद बची कड़ियों में एक हैं मृणाल पांडे जी जिन्हें हिंदी के किसी भी बड़े अखबार (हिन्दुस्तान दैनिक) की प्रथम महिला संपादक होने का श्रेय भी हासिल है. मृणाल जी की लिखी “द जर्नी ऑफ हिंदी लैंग्वेज जर्नलिज्म इन इंडियाः फ्रॉम राज टू स्वराज एंड बियॉन्ड” नाम की किताब निजी किस्से-कहानी, समाज-वैज्ञानिक शोध और अभिलेखागारीय इतिहास के दिलचस्प मेल से बने एक शोध-अध्ययन का सुंदर नमूना है जिसमें हिंदी पत्रकारिता के शुरुआती दिनों से लेकर न्यूज़ टेलीविजन के प्रभुत्व तथा डिजिटल मीडिया के उभार तक की कथा कही गई है. ये पहले उत्थान और फिर पतन की उदास कथा सुनाने वाली किताब नहीं बल्कि हिंदी मीडिया के निरंतर आगे से आगे बढ़ते जाने की एक गौरवगाथा है. मृणाल जी ने हिंदी भाषा के उन पत्रकारों जीजिविषा को दर्ज किया है जिन्होंने अंग्रेज़ी-राज के खिलाफ संघर्ष किया, आर्थिक कठिनाइयों का सामना किया और अपने ही दफ्तर में अंग्रेज़ी की गुलामी झेली और दुश्वारियों के इस दूभर मार्ग पर चलते हुए उन्होंने हिंदी मीडिया को प्रसार-संख्या, पंहुच क्षेत्र तथा मुनाफे के लिहाज़ से एक जबर्दस्त उपक्रम में बदल दिखाया. यह किताब बताती है कि कैसे हिंदी मीडिया ने प्रिंट-पत्रकारिता में आ रही गिरावट के वैश्विक रूझान को ठेंगा दिखाया, कैसे उसने अंग्रेज़ी की पत्रकारिता को दौड़ में बहुत पीछे छोड़ दिया और आखिरकार ताकत की उस मुकाम पर पहुंची जिसकी वह हकदार है.

लेकिन किताब में सुनाई गई इस कथा से मेरा सवाल और भी ज्यादा गहरा हुआ. जब किसी उद्यम में उछाल आता है, जैसा कि हिंदी मीडिया में आया, तो आप मान सकते हैं कि उस उद्यम से जुड़े पेशागत मानदंड भी बेहतर हुए होंगे. मृणाल जी की किताब बताती है कि कैसे सूचना की तकनीक में आए बदलाव से समाचारों का उद्योग लगातार बेहतर से बेहतर होता गया, कैसे अखबारों की रूप-सज्जा से लेकर मुद्रण के आकार-प्रकार और शैली तथा विज्ञापन तक में बेहतरी आती गई, लेकिन, समाचार और विचार (मत-अभिमत) से जुड़े पत्रकारीय मानदंडों में क्यों क्षरण होता गया? बेशक इस मामले में हिंदी पत्रकारिता कोई अपवाद नहीं. अंग्रेज़ी पत्रकारिता तथा अंग्रेज़ी भाषा के पत्रकारों की कथा भी इससे अलग नहीं और ईमानदारी से कहें तो भारत के बाहर भी मीडिया की गुणवत्ता में गिरावट आई है, भले ही यह गिरावट उतनी नहीं जितनी कि भारत में है.

मृणाल पांडे जी की किताब मेरे सवालों का जवाब देने के लिए तो लिखी नहीं गई, लेकिन, लेखिका हिंदी पत्रकारिता की दुनिया में आई गिरावट जैसे सनसनीखेज पत्रकारिता की बढ़वार और “लोकवृत्त(पब्लिक स्फीयर) के सामंतीकरण” के चलन को बताने में पीछे नहीं रहतीं. ‘पब्लिक स्फीयर’ के लिए हिंदी में ‘लोकवृत्त’ शब्द का प्रयोग किया जाता है, मूल अवधारणा जर्मन-चिंतक जुर्गेन हैबरमास की है. मृणाल जी की किताब से हिंदी मीडिया, खासकर हिंदी की टेलीविजन पत्रकारिता की शोचनीय अवस्था को समझने के लिए तीन सूत्र मिले—राजनीति, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र.


यह भी पढ़ें: खान मार्केट, जॉर्ज सोरोस गैंग, बुलडोजर राजनीति- TV की दुनिया के ये हैं कुछ पसंदीदा शब्द


टेलीविजन समाचार-जगतः अगड़ी जातियों का बोलबाला

पहला और सबसे प्रकट कारण है राजनीति की भूमिका. यों हिंदी मीडिया हमेशा ही राजनीतिक सत्ता के नजदीक रही है, लेकिन साल 2014 के बाद ‘सेंसरशिप और स्वयं-सेंसरशिप’ का एक नया निजाम देखने को मिला है. यह निजाम सरकार परस्ती करने पर मीडिया इनाम-ओ-इकराम और सुविधाओं से नवाज़ता है, लेकिन कोई समझ की सरकारी लाइन पर सवाल उठाए तो उसकी लानत-मलानत की जाती है, उसकी जुबान सिल देने की कवायद होती है.

दूसरा बड़ा कारण है मीडिया का अर्थशास्त्र. दरअसल, ऐसा कोई रास्ता ही नहीं कि मीडिया एक धंधे के रूप में ठीक-ठीक कमाई भी कर ले और खुद को स्वतंत्र भी बनाये रखे. किताब राज्यार्थिकी(पॉलिटिकल इकॉनॉमी) की औपचारिक बहसों में गए बगैर ये बताती है कि कैसे पुराने मालिकान का स्थान अमेरिका में पढ़े-लिखे नई पीढ़ी के लोग लेते गए, कैसे संपादकों की जगह प्रबंधकों ने ले ली, कैसे भरोसेमंद समाचार की जगह बिकाऊ समाचार ने हथिया ली और कैसे ‘पैसा दो-समाचार बनवाओ’ यानी पेड न्यूज़ की घटना एक रोजमर्रा की बात बनती चली गई.

इस सिलसिले की आखिरी बात ये कि किताब हिंदी न्यूज़रूम का समाजशास्त्र भी बताती है. मृणाल जी ने ध्यान दिलाया है कि न्यूज़रूम में महिलाओं की दखल अंदाज़ी बहुत कम है. हालांकि, ‘महिलाओं को जगह और मौके देने में समाचारों का टेलीविजन जगत तनिक बेहतर साबित हुआ है क्योंकि माना ये गया कि दर्शक एंकर के रूप में युवा और सुंदर चेहरे को देखना पसंद करेंगे.’

मुझे खुशी हुई कि मृणाल जी ने हिंदी न्यूज़रूम की जातिगत संरचना के मुद्दे पर भी गौर किया है. ये बात छिपी नहीं कि हिंदी मीडिया, खासकर हिंदी का टेलीविजन मीडिया-जगत अगड़ी जाति के हिंदुओं का गढ़ है, इसमें ज्यादातर तो ब्राह्मण जाति के लोग हैं. इस मामले में हिंदी मीडिया अंग्रेज़ी भाषा की मीडिया से भी बदतर है. ज़ाहिर है कि ऐसी सामाजिक-संरचना वाले न्यूज़रूम में सत्ता पर काबिज ब्राह्मणों की संख्या में कमी एक सहज चिंता का स्वाभाविक विषय बनती है, एक दुखती जातीय रग को छेड़ती है.

आज तक पर हुए इस पूरे प्रसंग पर टिप्पणी करते हुए मीडिया समीक्षक उर्मिलेश ने कहा कि उन्हें मेरे साथ जो हुआ उसपर अचरज नहीं हुआ. उनके शब्दों में “एक ख़ास किस्म का मीडियापुरम् है! इसमें टीवी चैनलों की दुनिया तो और भी ‘हिंदू अपर कास्ट अफेयर’ है!” उनके अनुसार 2019 के बाद से “चैनलों के संचालकों और कार्यपालकों आदि ने अपने-अपने संस्थानों में ‘वर्णाश्रमी वर्चस्व और उसकी वैचारिक उग्रता’ का और सुदृढ़ीकरण किया है”. वे चुनौती भी देते हैं: “अगर किसी को मेरी बात पर संशय हो तो वह टीवीपुरम् में काम करने वाले, खासकर इसके निर्णयकारी पदों पर आसीन लोगों की सामाजिक पृष्ठभूमि का सर्वेक्षण कराकर देख लें या ऐसे संस्थानों से स्वयं ही इस आशय का आंकड़ा सार्वजनिक करने को कहें”. उनकी बात सुनकर इच्छा जागी कि कोई ‘आज तक’ के पत्रकारों और मैनेजरों की जातीय पृष्ठभूमि का खुलासा करे, लेकिन मुझे नहीं लगता कि ये जानकारी देने के लिए मुझे जल्द बुलावा आएगा.

(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से हैं. उनका ट्विटर हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(संपादनः फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: सेक्युलरवाद की राजनीति के लिए जरूरी है दोस्त बनाना लेकिन वो दुश्मनों की फौज खड़ी कर रहा है


 

share & View comments