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Saturday, 21 December, 2024
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फुले और आंबेडकर ने भारत में जातिगत भेदभाव देखा था इसलिए वे काले लोगों के साथ हो रहे नस्लीय भेदभाव को समझते थे

नस्ली और जातीय भेदभाव के बीच समानता को पहली बार उजागर करने का श्रेय ज्योतिराव फुले को जाता है. उन्होंने करीब 150 वर्ष पहले अमेरिका के कालों और भारत के दलितों की स्थिति की परस्पर तुलना की थी.

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अश्वेत अमेरिकी जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद विरोध प्रदर्शनों की सुनामी वर्तमान दौर के नस्लवाद तक सीमित नहीं रह गई है. यह इतिहास में दफन मुद्दों को भी बाहर निकाल रही है और प्रदर्शनकारियों को अतीत के नस्लवादियों और गुलामों के व्यापार से जुड़े लोगों की प्रतिमाओं पर हमलों के लिए प्रेरित कर रही है.

नस्ली भेदभाव और जाति के आधार पर भेदभाव के ‘सह-संबंधों’ का एक लंबा इतिहास रहा है. आधिकारिक या शैक्षणिक नज़रिए से भले ही उनमें विभेद हो, पर व्यवस्थित अमानवीय शोषण और अत्याचार की दृष्टि से दोनों अक्सर एक ही श्रेणी में रखे जाते रहे हैं.

गुलामगीरी पर फुले के विचार

नस्ली और जातीय भेदभाव के बीच समानता को पहली बार उजागर करने का श्रेय भारत के अग्रणी समाज सुधारक ज्योतिराव फुले (1827-1890) को जाता है. उन्होंने करीब 150 वर्ष पहले अमेरिका के कालों और भारत के दलितों की स्थिति की परस्पर तुलना की थी.

राजा राममोहन राय (1772-1833) के 55 साल बाद पैदा हुए फुले ने अपनी मराठी किताब ‘गुलामगीरी’, अंग्रेज़ी में ‘स्लेवरी’, को अमेरिका के ‘अच्छे लोगों’ को समर्पित किया था. उन्होंने वर्ष 1873 में प्रकाशित ‘स्लेवरी’ के समर्पण उद्धरण में लिखा: ‘अमेरिका के अच्छे लोगों के लिए, उनके द्वारा नीग्रो गुलामी के विरुद्ध प्रदर्शित उदात्त त्याग और समर्पण भाव की प्रशंसा के तौर पर और इस प्रबल इच्छा के साथ कि मेरे देशवासी भी इस महान उदाहरण से मार्गदर्शन लेते हुए ब्राह्मण दासता से अपने शूद्र बंधुओं की मुक्ति के सारे अवरोधों को दूर करेंगे.’

पुस्तक की भूमिका में ‘नीग्रो गुलामी’ के विषय पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है. फुले ने निराशा के साथ लिखा, ‘ब्राह्मणों के उपदेश अधिकांश अज्ञानी शूद्रों के दिलो-दिमाग पर इस तरह से जड़ जमाए हुए हैं कि वे, अमेरिका के नीग्रो गुलामों की तरह, उन्हीं लोगों का विरोध कर रहे हैं जोकि उनके लिए लड़ने और उन्हें गुलामी की ज़ंजीरों से मुक्त कराने के लिए तैयार हैं.’ फिर भी, उनका मानना था कि अमेरिकी लोगों की ‘परोपकारिता’ के पीछे ‘स्वतंत्रता का सिद्धांत’ है, जिसके कारण वे बिना किसी लाभ के नीग्रो लोगों के हित में काम कर रहे थे, यहां तक कि अपने जीवन को भी खतरे में डाल रहे थे. (सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ ज्योतिराव फुले, सं: जी.पी. देशपांडे, लेफ्टवर्ड बुक्स, 2002, पृ. 38)


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फुले 1870 के दशक में या उससे भी पहले ‘नीग्रो’ और ‘शूद्रों’ के बीच संबंध कैसे जोड़ पाए? ऐसा लगता है कि ‘कर्तव्यों और अधिकारों के बारे में’ उन्होंने अधिकांश ज्ञान पुणे के स्कॉटिश मिशन स्कूल में प्राप्त किया था. ये 1847 की बात है, जब फुले 14 साल के थे और एक साल पहले ही उनकी शादी हुई थी. उन्होंने अपने मित्र गोवांडे के साथ मिलकर शिवाजी और जॉर्ज वाशिंगटन के बारे में पढ़ाई की थी. लेकिन उन पर सर्वाधिक प्रभाव थॉमस पेन की किताब ‘राइट्स ऑफ मैन’ का पड़ा था. (महात्मा ज्योतिराव फुले, धनंजय कीर, पॉपुलर प्रकाशन, मुंबई, 1974, पृ. 13-14)

क्रिस्टॉफ जैफ़रलॉट ने भी फुले के विचारों के निर्माण और उनके ‘अमेरिका के संस्थापकों के दर्शन का’ ज्ञान हासिल करने में स्कॉटिश मिशन स्कूल की भूमिका का उल्लेख किया है. जैफ़रलॉट के अनुसार, ‘उनका (फुले) मानना था कि समानता और स्वतंत्रता की धारणा अमेरिका में शिखर पर पहुंच चुकी है, और बाद में उन्होंने निचली जातियों और अमेरिकी अश्वेतों की स्थिति के बीच समानता को उजागर किया. फुले के अनुसार अमेरिकी समाज अश्वेतों को मुक्ति प्रदान कर चुका था.’ (डॉ. आंबेडकर एंड अनटचेब्लिटी, क्रिस्टॉफ जैफ़रलॉट, पर्मानेंट ब्लैक, 2005, पृ. 15)

गुलामी प्रथा को समाप्त करने वाले अमेरिकियों की तारीफ करते हुए फुले ने लिखा, ‘इस बात की औरों के मुकाबले वास्तव में शूद्र और अतिशूद्र अधिक सराहना करेंगे… क्योंकि सिर्फ गुलामों को ही इस बात का अहसास हो सकता है कि गुलामी क्या होती है और गुलामी की ज़ंजीरों से मुक्त होने का आनंद क्या होता है.’ उन्होंने उनकी स्थितियों की तुलना करते हुए आगे लिखा, ‘… जहां अश्वेतों को पकड़कर रखा गया और गुलामों के रूप में बेचा गया, शूद्र और अतिशूद्र भाटों और ब्राह्मणों द्वारा अधीनस्थ किए गए और गुलाम बनाए गए. एक इस अंतर के अलावा, बाकी सारी परिस्थितियां जिनसे उन्हें गुजरना पड़ा, एक जैसी थीं… अश्वेतों द्वारा झेले गए सारे कष्ट शूद्रों और अतिशूद्रों ने भी सहे हैं जिन्हें ब्राह्मणों के हाथों संभवत: अपेक्षाकृत अधिक कष्ट झेलना पड़ा.’ (सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ ज्योतिराव फुले, सं: जी.पी. देशपांडे, लेफ्टवर्ड बुक्स, 2002, पृ. 40)

आंबेडकर और अश्वेत आंदोलन की धाराएं

भीमराव आंबेडकर, जो फुले के निधन के कुछ महीनों बाद पैदा हुए थे, ने 1913 और 1916 के बीच कोलंबिया यूनिवर्सिटी में वक्त गुजारा था. यह अश्वेत अमेरिकियों के इतिहास का अहम दौर था. गृह युद्ध और गुलामी के संवैधानिक उन्मूलन के ज़रिए अश्वेतों की मुक्ति की फुले की धारणा के दशकों बाद भी अश्वेत ‘खुद को गोरों की संकल्पना से मुक्त करने के लिए संघर्षरत थे जिसमें उनके लिए उनके अस्तित्व को परिभाषित किया गया था.’ (एस. डी. कपूर, इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, दिसंबर 27, 2003, पृ. 53-54). ये मानना उचित होगा कि आंबेडकर जैसे पढ़ाकू अश्वेत आंदोलन की धाराओं को पहचानने से नहीं चूके होंगे. बाद में उन्होंने गुलामी और छुआछूत पर विस्तार से लिखा. गुलामी की रोमन काल की प्रथा से लेकर समकालीन अन्यायों तक का उल्लेख करते हुए उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि छुआछूत की प्रथा गुलामी से भी बुरी है. (आंबेडकर राइटिंग एंड स्पीचेज़, खंड 5)

आंबेडकर ने एक कदम और आगे बढ़कर प्रभावशाली नागरिक अधिकार कार्यकर्ता और शिक्षक प्रो. डब्ल्यू ई बी डू बॉयस को छोटी-सी मदद के लिए पत्र लिखा: ‘मैं नीग्रो समस्या के विषय का छात्र रहा हूं… भारत के अछूतों और अमेरिका में नीग्रो की हालत के बीच इतनी अधिक समानता है कि उसका अध्ययन करना ना सिर्फ स्वाभाविक बल्कि अनिवार्य है. मुझे ये पढ़ना बहुत दिलचस्प लगा कि यूएनओ में अमेरिका के नीग्रो समुदाय द्वारा याचिका दायर की गई है. भारत के अछूत भी ऐसा करने की सोच रहे हैं.’ उन्होंने उस याचिका की दो-तीन प्रतियां भेजने का आग्रह किया. 31 जुलाई 1946 को लिखे जवाबी पत्र में प्रो. डू बॉयस ने सहयोग का वादा किया.


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कोलंबिया यूनिवर्सिटी के एक अन्य छात्र और प्रसिद्ध गुजराती कवि-लेखक कृष्णलाल श्रीधरनी ने भी अमेरिकी नीग्रो और भारतीय अंत्यजों की तुलना की थी. एक गांधीवादी होने के नाते, उन्होंने ‘जाति और अंत्यज’ के विषय पर अपने निष्कर्ष में घोषित किया: ‘इन सबका परिणाम ये हुआ कि अस्पृश्यता ने अपनी अधिकांश नैतिक स्वीकृति गंवा दी है, और इसलिए इसका समाधान अमेरिका में नीग्रो समस्या के समाधान की तुलना में कम कठिन है.’ (माय इंडिया, माय अमेरिका, डुएल, स्लोअन एंड पियर्स, न्यूयॉर्क, 1941, पृ. 337)

हालांकि वास्तविकता फुले के आभार और श्रीधरनी की अभिलाषा से कहीं अधिक खराब है. लेकिन जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद अमेरिका और अन्य जगहों पर विरोध प्रदर्शनों में बड़ी संख्या में गोरों की भागीदारी ने अमेरिका में बदलावों के प्रति उम्मीद जगाई है. हालांकि इन आंदोलनों ने अभी तक भारत में, ट्विटर पर हैशटैगों के अलावा, किसी आंदोलन की अलख नहीं जगाई है.

(लेखक अहमदाबाद स्थित वरिष्ठ स्तंभकार हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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