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Sunday, 5 May, 2024
होममत-विमतजॉर्ज फ्लायड के बहाने भारत में हिंसक प्रदर्शन को इजाजत नहीं मिलनी चाहिए, ‘भीड़तंत्र का न्याय’ किसी भी राष्ट्र के हित में नहीं

जॉर्ज फ्लायड के बहाने भारत में हिंसक प्रदर्शन को इजाजत नहीं मिलनी चाहिए, ‘भीड़तंत्र का न्याय’ किसी भी राष्ट्र के हित में नहीं

अमेरिका में पुलिस हिरासत में जार्ज फ्लॉयड की हत्या निश्चित ही निंदनीय है और इसकी दुनिया भर में भर्त्सना हो रही है लेकिन इस पर आक्रोश व्यक्त कर रही जनता द्वारा हिंसा, आगजनी और लूटपाट बेहद चिंताजनक है.

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अश्वेत नागरिक जार्ज फ्लॉयड की पुलिस हिरासत में हत्या की घटना के बाद अमेरिका में भड़की हिंसा और आगजनी की घटनायें अश्वेत नागरिकों के साथ लगातार हो रहे भेदभाव का नतीजा तो हैं लेकिन क्या इन्हें ‘भीड़तंत्र का न्याय’ की श्रेणी में रखा जा सकता है. किसी भी सभ्य समाज में हिंसक भीड़ को कानून अपने हाथ में लेने की इजाजत नहीं है और जब भारत में हिंसक भीड़ कानून अपने हाथ में लेती है तो यही विकसित राष्ट्र उसे मानवाधिकारों का सम्मान करने का पाठ सिखाते नहीं थकते हैं.

लेकिन आज स्थिति यह है कि अमेरिका से लेकर ब्रिटेन तक भीड़तंत्र ही सक्रिय है और वह खुलेआम कानून अपने हाथ में ले रहा है. हालांकि इसे नस्लवाद के खिलाफ आक्रोश का नाम दिया गया है लेकिन भीड़तंत्र के इस तरह के रवैये को कोरोना महामारी के दौरान लॉकडाउन की वजह से नौकरी गंवाने वाले बड़े वर्ग की कुंठाओं से इंकार नहीं किया जा सकता. उग्र भीड़ वाशिंगटन में भारतीय दूतावास के बाहर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की प्रतिमा क्षतिग्रस्त कर देती है और कोई गिरफ्तार नहीं होता. यही भीड़तंत्र बोस्टन में क्रिस्टोफर कोलंबस की प्रतिमा का सिर धड़ से अलग कर रहा है तो डाउनटाउन मियामी में भी उसकी प्रतिमा तोड़े जाने की खबर है.


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भारत में भी कुछ लोग ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ की तर्ज पर तरह तरह के आन्दोलन खड़े करने की वकालत कर रहे हैं. ऐसा लगता है कि पाश्चात्य देशों में नस्लवाद के खिलाफ अचानक भड़की हिंसा और ऐसी ही गतिविधियों की तरह ही भारत में आन्दोलन की हिमायत करने वाले देश में अराजकता पैदा करने की मंशा रखते हैं.

भीड़तंत्र की संस्कृति पर अगर कारगर तरीके से काबू नहीं पाया गया तो कोरोना वैश्विक महामारी के संकट से जूझ रहे दुनिया के तमाम देश एक नये तरह की अराजकता और हिंसा का शिकार हो जायेंगे और फिर सारी स्थिति पर काबू पाना बहुत ही चुनौतीपूर्ण हो जायेगा.

पाश्चात्य देशों से इतर भारत में गैरकानूनी तरीके से एकत्र भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने की घटनाओं पर देश की शीर्ष अदालत ने लगातार कड़ा रुख अपनाया है. देश की सर्वोच्च अदालत ने बेहद स्पष्ट शब्दों में कहा है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था और सभ्य समाज में ‘भीड़तंत्र को कानून अपने हाथ में लेने’ की इजाजत नहीं दी जा सकती.

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लेकिन, अमेरिका के बाद ब्रिटेन और दुनिया के कई अन्य देशों में अश्वेतों के साथ भेदभाव को लेकर अचानक हो रहे उग्र प्रदर्शन और प्रदर्शनकारियों द्वारा की जा रही हिंसा, लूटपाट तथा आगजनी से ऐसा लग रहा है कि मानो इन देशों में अब किसी कानूनी का नहीं बल्कि भीड़तंत्र का राज चलेगा.

अश्वेत जार्ज फ्लॉयड की हत्या की घटना के बाद हिंसा भड़कने की घटनाओं को कोविड-19 महामारी से उत्पन्न कठिनाइयों, लोगों के बेरोजगार होने की वजह से उनमें व्याप्त असंतोष और अवसाद के दृष्टिकोण से भी देखने की जरूरत है. ब्रिटेन में अश्वेतों के साथ भेदभाव के विरोध में अचानक ही गुलामों के कारोबारियों के आदमकद पुतले गिराने और समुद्र में फेंकने की घटनाओं से यह सवाल भी मन में उठ रहा है कि ये आदमकद मूर्तियां तो सदियों से लगी थीं. अभी तक किसी को इनसे कोई आपत्ति नहीं हुई लेकिन अचानक ही यह नफरत क्यों?

अमेरिका में पुलिस हिरासत में जार्ज फ्लॉयड की हत्या निश्चित ही निंदनीय घटना है और इसकी दुनिया भर में भर्त्सना हो रही है लेकिन इस घटना पर आक्रोश व्यक्त कर रही जनता द्वारा हिंसा, आगजनी और लूटपाट करना बेहद चिंताजनक है. यही स्थिति अराजकता को जन्म देती है और फिर इससे कानून व्यवस्था की गंभीर समस्या पैदा हो जाती है.

अफगानिस्तान और इराक में भी हिंसक समूहों द्वारा इसी तरह की गतिविधियों के सहारे प्राचीन मूर्तियों और स्मारकों को नष्ट किया गया था.

अमेरिका और ब्रिटेन में अचानक ही प्राचीन मूर्तियों को (भले ही वे गुलामों के व्यापारियों की हों) गिराये जाने की घटनाओं ने तालिबान द्वारा मार्च 2001 में अफगानिस्तान के बामियान में चौथी और पांचवी शताब्दी में बलुआ पत्थर से बनी बुद्ध की दो विश्व प्रसिद्ध मूर्तियों को विस्फोट से उड़ाकर नष्ट किये जाने की घटना को ताजा कर दिया है. बलुआ पत्थर पर उकेरी गईं ये प्राचीन प्रतिमायें विश्वभर में बुद्ध की सबसे ऊंची मूर्तियों में से थीं.

ऐसी स्थिति में सवाल यही है कि भीड़तंत्र का इन प्राचीन प्रतिमाओं और धरोहरों के खिलाफ अचानक पनपा आक्रोश सुनियोजित है या फिर यह कोरोना वायरस महामारी की वजह से लॉकडाउन के दौरान लोगों में जन्मे मनोविकार और अवसाद का नतीजा है?

मनोचिकित्सकों का मानना है कि कोरोनावायरस महामारी की वजह से लॉकडाउन जैसे सख्त कदम उठाये जाने के कारण दुनिया के अनेक देशो में जनता की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर प्रतिकूल असर पड़ा है. इस वजह से करोड़ों लोग बेरोजगार हो गये हैं और उनके सामने खाने का संकट पैदा हो गया है.

इस महामारी से निपटने के लिये सरकारों की सख्ती की परिणति के रूप में समाज के एक बड़े में वर्ग के आचरण और व्यवहार में अजीब किस्म का बदलाव नजर आता है. इस बदलाव में लोगों के आचरण में अचानक आक्रामकता, चिड़चिड़ापन, अनायास ही क्रोध आना, उत्तेजित होना, खुद को औरों से अलग कर लेना और गुमसुम रहने जैसा असामान्य व्यवहार शामिल हो सकता है.

बहरहाल, इस असामान्य आचरण का कारण जो भी हो लेकिन कोई भी सभ्य समाज हिंसक भीड़ को देश के किसी भी हिस्से में अराजकता फैलाने की अनुमति नहीं दे सकता है.

भारत में हिंसक भीड़ द्वारा गोमांस की तस्करी या फिर बच्चा चोर या मवेशी चोर होने के संदेह में हिसंक भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने और संदिग्ध की पीट-पीट कर हत्या करने जैसी घटनाओं को देश की सर्वोच्च अदालत ने बहुत गंभीरता से लिया है.

न्यायालय ने तुषार गांधी और तहसीन पूनावाल आदि की जनहित याचिकाओं पर जुलाई 2018 में इसी भीड़तंत्र द्वारा न्याय करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिये एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया था. तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति एएम खानविलकर और न्यायमूर्ति धनंजय वाई चंद्रचूड़ की तीन सदस्यीय पीठ ने अपने फैसले में केन्द्र और राज्य सरकारों को विस्तृत निर्देश दिये थे. इनमे भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लिये जाने के मामले में तत्काल प्राथमिकी दर्ज करना और ऐसे मुकदमों की सुनवाई त्वरित अदालत में 6 महीने के भीतर पूरी करके फैसला सुनाना शामिल था.

न्यायालय ने तो भीड़तंत्र की प्रवृत्ति पर अंकुश पाने के लिये उचित कानून बनाने पर विचार करने का संसद को सुझाव भी दिया था लेकिन दुर्भाग्य से इस संबंध में अभी तक कोई कानून नहीं बन पाया है.

शीर्ष अदालत ने सख्त लहजे में कहा था कि भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने की प्रवृत्ति बर्दाश्त नहीं की जा सकती और सरकार को ऐसे मामलों में सख्त कार्रवाई करनी होगी.


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हमारे देश में भले ही हिंसक भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने की घटनाओं पर पूरी तरह अंकुश पाने में सफलता नहीं मिली है. लेकिन इसके बावजूद हमें चौकन्ना रहना होगा ताकि पश्चिमी देशों में ‘अश्वेतों के साथ भेदभाव’ को लेकर हो रही हिंसा, आगजनी और तोड़फोड़ की घटनाओं की आड़ में भारत में कोई समूह इस तरह की अराजकता फैलाने के लिये लोगों को उकसाने में कामयाब नहीं हो सके क्योंकि भीड़तंत्र की व्यवस्था किसी भी राष्ट्र के हित में नहीं है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. यह उनके निजी विचार हैं))

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5 टिप्पणी

  1. इस लेखक को बहताना चाहूंगा की कोरोना के चलते भारत में न्ययालय जो भी फैसले ले रहा है वो इस तरह के आंदोलन चलाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। सरकारे तथा कोर्ट भी कार्यवाही एकपक्षीय दिखाई देना भी आंदोलनों की वजह बन सकता है।

  2. Sir thnku aap jaise kuch sahi soch bale hi hai..Varna libarals ki aad mai jehadi bhediye hi aaj Kal sab kuch decide Kar rahe hai…..

  3. हिंसक आंदोलन का समर्थन तो कोई नहीं करता पर हमारे यहां तो शांति पूर्ण आंदोलन करने वालों पर लाकडॉउन में पुलिस झूठे केस लगा कर जेल में ठूंस रही है। जबकि खुलेआम फायरिंग करने वाले आज़ाद हैं। धड़ल्ले से संप्रदायिक दुर्भावना के कारण अन्याय हो रहा है।

  4. Thank you sir apke vajese Soch wali ki hamare Bharat Jaise desho sabse jysda jaroorat hai leki main ek bat batana chats Hu sir James India jati ke nam pe bhot Sare rajniti karte hai ye beta log hai Jo ek jati khilap dusre jati ko bhadkate hai our APNI rHniti chamkane Kam Karti hai hamare naypalika BHI think se Kam Nahi Kar Rahi ye BHI Hari Dekh ke nay deti collegium system Pura bekar ho gayea has hai judiciary system pe an bharosa Nahi media Puri biki huvi gai bharosa karenge to kispe sabke sab Chor hai sale Ann admi nah ki apeksha karenga to kisease karenga yei bhot badi b samasya hamare desh Mai hai,

  5. Hammare desh ke naypalika media sab bike huve hai amm admi nay apeksha kusase kare ye ek bhot badi chunoti ki bat hai

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