नरेंद्र मोदी ने जनादेश हासिल करने की पहली कोशिश 2002 में की थी और तब से इन 20 वर्षों में गुजरात में ऐसा कोई चुनाव नहीं हुआ है जिसने राष्ट्रीय राजनीति को न प्रभावित किया हो. 2022 का चुनाव भी कोई अपवाद नहीं है. इस चुनाव का नतीजा कम-से-कम यह तो तय कर ही देगा कि 2024 में मोदी और भाजपा का मुख्य प्रतिद्वंद्वी कौन होगा, और अगर उनके खिलाफ कोई गठबंधन बनता है तो उसका नेता कौन होगा.
नतीजे आने में अभी एक सप्ताह बचा है. चुनावी राजनीति में चमत्कार तो हो ही सकते हैं, जैसा कि राजनीति और चुनाव आंकड़ों के जानकार योगेंद्र यादव ने 2007 में अनुमान लगाया था कि गुजरात में चमत्कार मुमकिन है. लेकिन तब या 2012 या 2017 में वैसा कुछ नहीं हुआ. और सारे संकेत यही हैं कि 2022 में भी चमत्कार नहीं होगा.
पिछले दो दशकों में केवल 2017 में ही कांग्रेस, भाजपा को झटका देने के करीब पहुंच सकी. लेकिन उसके बाद से मोदी का कद बढ़ता गया है और उनके खिलाफ चुनौती कमजोर पड़ती गई है. तो फिर, खबर क्या है? यह चुनाव बेरंग क्यों नहीं है, और इसका नतीजा तय क्यों नहीं मान लिया गया है?
इस सवाल का जवाब यह है कि अगले 12 महीनों में गुजरात के अलावा जिन बड़े राज्यों—कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़– में चुनाव होने वाले हैं वे 2024 की गर्मियों में होने वाली बड़ी जंग का मैदान तैयार कर देंगे.
बाकी बचे चुनावों में कांग्रेस अगर शानदार प्रदर्शन करती है तब भी वह दो पुराने प्रतिद्वंद्वियों के बीच जंग की पुरानी कहानी ही दोहराएगी. इन चारों राज्यों में वोट सीधे मोदी के नाम पर नहीं डाले जाएंगे. वे और उनकी भाजपा ऐसे झटकों को उसी तरह झेल लेगी जिस तरह 2019 में झेला था. लेकिन मोदी जब खेल में हों तो कहानी बदल जाती है.
गुजरात विधानसभा का चुनाव दूसरे चुनावों से भिन्न है. यह एक मात्र ऐसा राज्य है जहां चुनाव में मोदी के सीधे दांव लगे हैं. यहां चुनाव मोदी के नाम के इर्द-गिर्द इस कदर केंद्रित होता है कि कई लोग निवर्तमान मुख्यमंत्री का नाम तक भूल जाते हैं. वैसे, क्या आप उनका नाम बता सकते हैं? दिल पर हाथ रखकर बताइए, गूगल मत कीजिए.
इसलिए, गुजरात में मोदी की जीत हो तब भी जिस पक्ष ने उन्हें सबसे कड़ी चुनौती दी होगी उसे काफी लाभ हो सकता है. यह वैसा ही है जैसे किसी खेल में गोल्ड मेडल का हकदार तो तय हो और मुक़ाबला सिल्वर और ब्रोंज पदकों के लिए हो रहा हो. इस बदलाव का श्रेय आम आदमी पार्टी (आप) को जाता है.
अरविंद केजरीवाल ने वहां अच्छा प्रदर्शन किया तो वे मोदी और राहुल गांधी के अलावा सचमुच में राष्ट्रीय नेता के रूप में उभर सकते हैं, और आप एक उभरती राष्ट्रीय ताकत बन सकती है. क्या वे कांग्रेस को पीछे छोड़कर नंबर दो बन सकते हैं? नहीं भी बने तो कोई बात नहीं. अगर वे सम्मानजनक रूप में तीसरे नंबर पर भी पहुंच गए (यह कोई भविष्यवाणी नहीं है, सिर्फ एक तर्क है) तो वे उभरती नयी राष्ट्रीय ताकत माने जाएंगे, और कांग्रेस ढलान पर फिसलती मानी जाएगी.
क्योंकि तब भाजपा गुजरात में कांग्रेस को लगातार पांचवीं बार शिकस्त देगी. कांग्रेस हमेशा की तरह दूसरे नंबर पर भी आती है और अगर वह 2017 वाला प्रदर्शन नहीं दोहराती तो वह लुप्त होती ताकत मानी जाएगी. तब नयी पार्टी का सितारा बुलंद होता दिखेगा. यह भाजपा के लिए चिंता का कारण है.
गुजरात के इस चुनाव में कांग्रेस की चर्चा कम होने के दो कारण हैं. एक तो यह है कि कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व, खासकर गांधी परिवार उदासीन दिख रहा है. दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि भाजपा अपनी नयी प्रतिद्वंद्वी के मुक़ाबले पुरानी की बात कम ही कर रही है. बात से ज्यादा, यह देखिए कि वह कर क्या रही है.
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चुनाव अभियान से पहले कई महीनों से भाजपा के तमाम प्रवक्ता, नेता, सोशल मीडिया योद्धा और सबसे महत्वपूर्ण ‘एजेंसियां’ केवल एक ही पार्टी ‘आप’ पर सारा ध्यान केंद्रित किए थीं. भाजपा पाक-साफ होने के दावे के साथ भले इसका खंडन करे लेकिन इस तथ्य को छुपाया नहीं जा सकता कि आप ही उसका मुख्य निशाने पर है, और ज़ोर इस बात पर है कि उसे पनपने नहीं देना है.
गुजरात में पनपने से पहले ही उसे कुचल देने की हड़बड़ी इतनी है कि वहां चुनाव कवर करने गए पत्रकार यह धारणा लेकर लौटे हैं कि भाजपा चाह रही है कि कांग्रेस बेहतर प्रदर्शन करे. वह खुद अच्छी जीत हासिल तो करना चाहती है लेकिन यह भी चाहती है कि कांग्रेस बहुत खराब प्रदर्शन न करे. दो पराजित प्रतिद्वंद्वियों में से वह, अपने साथ बवंडर लाने वाले प्रतिद्वंद्वी के मुक़ाबले अधिक पतनशील प्रतिद्वंद्वी को ज्यादा बेहतर मानती है. सो, फिलहाल भाजपा इसी उधेड़बुन में है.
पिछले दो दशकों यानी मोदी युग की शुरुआत से इस राज्य की राजनीति पर निरंतर दो तथ्य हावी रहे हैं. एक तो यह कि भाजपा ने हमेशा जीत के साथ अपना वर्चस्व बनाए रखा है. दूसरे, कांग्रेस का 30 से 40 फीसदी के बीच का मजबूत वोट बैंक (2017 में यह 41.4 फीसदी का था) बना रहा है.
इसका मतलब यह है कि अपने वर्चस्व के चरम पर भी भाजपा इस वोट बैंक में सेंध नहीं लगा पाई है. उसने कांग्रेस को इस सीमा के नीचे स्थायी बंधक बना रखा है. अगर आप इस गतिरोध को तोड़ पाती है तो जो लड़ाई अब तक खंदकों और चौकियों से लड़ी जा रही थी वह मैदानी जंग में तब्दील हो जाएगी. इसीलिए भाजपा केजरीवाल को लेकर राजनीतिक रूप से इतनी उन्मादी हुई जा रही है.
चूंकि केजरीवाल नये हैं और गुजरती मतदाताओं ने अभी उन्हें परखा नहीं है इसलिए उनके लिए काफी गुंजाइश है. वे बिलकीस बानो, सार्वजनिक कोड़ेबाजी जैसे मामलों पर चुप रह सकते हैं और फिर भी अगर उन्हें उभरती ताकत के रूप में देखा जाता है तो कांग्रेस के पक्के समर्थक मुस्लिम मतदाता उनके प्रति आकर्षित हो सकते हैं— उनमें से कुछ तो जरूर. केजरीवाल समान नागरिक संहिता, कट्टर राष्ट्रवाद, नोटों पर लक्ष्मी-गणेश की तस्वीर छापने की बातें कर सकते हैं.
हम इतने वर्षों से कहते आए हैं कि केजरीवाल ने अपनी राजनीति को जिस तरह विचारधारा से मुक्त रखने का फॉर्मूला अपनाया है वह अंततः टिकाऊ नहीं साबित होगा. वैसे, वह ‘अंततः’ अभी नहीं आया है. आज विचारधारा के बोझ से मुक्त रहना उन्हें हर किसी का, खासकर भाजपा का पाठ पढ़ने की गुंजाइश देता है.
यह खास तौर से मोदी और शाह के लिए चिंता का कारण होना चाहिए, और है भी. कांग्रेस के मामले में तो विचारधारा की रेखाएं स्पष्ट हैं लेकिन आप का मामला कुछ उलझाऊ है. अगर आप राहुल गांधी की पदयात्रा पर नज़र रख रहे हों तो साफ दिखेगा कि वे 2024 की चुनौती को बुनियादी तौर पर विचारधारा की जंग बनाने की कोशिश कर रहे हैं. सावरकर एक महान राष्ट्रवादी थे या एक कायर पिट्ठू? ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के पीछे विचार यही है कि भाजपा की विचारधारा ने देश को बांट दिया है. मोदी और शाह के लिए इससे लड़ना आसान है. लेकिन आप उससे कैसे लड़ेंगे, जो आपकी ही बातों का आपके खिलाफ इस्तेमाल कर रहा हो? और मुफ्त बिजली, पानी, जैसी ‘रेवड़ियां’ खुले हाथों से बांटता फिर रहा हो?
आप के साथ अपने मुक़ाबले को भाजपा स्वच्छ बनाम भ्रष्ट के द्वंद्व में बदलने की कोशिश करती रही है. लेकिन उसे दो मुश्किलों का सामना करना पड़ा है. पहली यह कि तमाम एफआइआर, खुलासे, आरोपित खबरें, गुप्त कैमरे, जेल और दूसरी जगहों के वीडियो आप के समर्थकों को इस संदेश में यकीन नहीं दिला पा रहे हैं कि ‘आप भ्रष्ट है’. दूसरी यह कि यह तर्क गले नहीं उतरता कि भारत में अब तक जो राजनीति हुई है उसमें भाजपा की राजनीति सबसे साफ-सुथरी है. मिसाल के लिए चाहे यह गुजरात के मोरबी में हुआ हादसा हो या दिल्ली में भाजपा के अधीन चले भ्रष्ट और अक्षम नगर निगमों के कारण पैदा हुआ संकट हो.
तीसरे, ऐसा लगता है कि संसाधन और प्रचार क्षमता के मामलों में कांग्रेस के विपरीत आप ही भाजपा का पूरा मुक़ाबला कर सकती है. वह कांग्रेस के उलट है, जो कि न केवल सहमी-सहमी दिखती रही है बल्कि चुनाव में जी-जान लगाकर भिड़ने से कतराती रही है, चाहे यह पंजाब का चुनाव ही क्यों न रहा हो.
पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी के अलावा आप ही आज भाजपा के मुक़ाबले में खड़ी दिखती है. इसलिए, केजरीवाल गुजरात में अगर दूसरे नंबर पर आते हैं तो यह भाजपा के लिए हार के समान ही होगा. लेकिन अगर वह तीसरे नंबर पर भी आती है और उसे 15 फीसदी के आसपास वोट मिलते हैं तो यह 2024 के लिए भाजपा को चिंता में डाल सकता है, खासकर तब जब आप दिल्ली में एमसीडी के चुनाव जीत लेती है, जिसकी संभावना गुजरात के मुक़ाबले ज्यादा है. इसीलिए, गुजरात का यह चुनाव 2002 के बाद हुए चुनावों के मुक़ाबले और जैसा भी हो मगर बेरंग नहीं है.
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(संपादनः शिव पाण्डेय)
(अनुवादः अशोक कुमार)
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