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Sunday, 22 December, 2024
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बिहार में भाजपा को जितनी जल्दी हो सके नीतीश कुमार का साथ छोड़ देना चाहिए

मुख्यमंत्री के नाते नीतीश कुमार का ख़राब प्रदर्शन, राज्य में बीजेपी की छवि को पीछे खींच रहा है.

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गृहमंत्री अमित शाह का इसे बार-बार कहना ही, अपने आप में मायने रखता है. वो हमें याद दिलाते रहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी इन सर्दियों में, बिहार विधान सभा चुनाव जनता दल (यूनाइटेड) के अध्यक्ष, नीतीश कुमार की अगुवाई में ही लड़ेगी.

अमित शाह को ये कहते रहना पड़ता है, क्योंकि बिहार की राजनीतिक वास्तविकता ऐसी है, कि किसी को आश्चर्य नहीं होगा, अगर बीजेपी नीतीश कुमार के बिना चुनाव लड़ने का फैसला कर ले और अंत में बिहार को एक बीजेपी मुख्यमंत्री मिल जाएगा.

लेकिन बिहार को एक बीजेपी मुख्यमंत्री देने की अमित शाह की अनिच्छा, ताज्जुब में डालती है क्योंकि उन्हें एक आक्रामक खिलाड़ी माना जाता है, जो आगे निकलकर बैटिंग करता है.

बहानों का कोई अर्थ नहीं

इसके लिए सामान्य रूप से दिए जा रहे स्पष्टीकरण समझ में नहीं आ रहे. नहीं, नीतीश कुमार का जेडी (यू), और लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), एक बार फिर वापस नहीं आ सकते. याद है कि दोनों कितनी बुरी तरह अलग हुए थे? न तो वो एक दूसरे पर भरोसा करेंगे, और न ही जनता उन पर एक साथ भरोसा करेगी.

इसके अलावा, प्रवर्तन निदेशालय की धमकी, आरजेडी और जेडी(यू) दोनों को, इस बार बीजेपी को हराने की कोशिश नहीं करने देंगी. आख़िरकार, नीतीश कुमार को भी एक तथाकथित सृजन घोटाले की चिंता करनी है.

नहीं, नीतीश कुमार बिहार में अजेय नहीं हैं. 2020 का साल, 2010 की तरह नहीं हैं. बतौर नेता उनका क़द घट चुका है, और तीसरे कार्यकाल में हर साल, उनकी राजनीतिक पूंजी कम ही हुई है.

नीतीश कुमार अभी तक खेल में बने हुए हैं तो सिर्फ इसलिए, कि उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं है. युवा तेजस्वी यादव अभी तक निष्क्रियता दिखाने में ही चैम्पियन साबित हुए हैं.


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परिवर्तन का समय

टीना (कोई विकल्प नहीं) फैक्टर को छोड़ दें, तो बिहार के लोग बदलाव के लिए तरस रहे हैं. आप इसे पटना की गलियों में, गंगा के पुलों पर, सीमांचल के गांवों में, हर जगह सूंघ सकते हैं. हवा में बदलाव है, लेकिन कोई उसे पकड़ नहीं पा रहा.

बीजेपी ही वो पार्टी है जो चुनौती देने वाले विपक्ष की जगह भर सकती है. बीजेपी के लिए सही समय है कि नीतीश कुमार को छोड़ दे, और हवा का रुख़ भांपने वाले, लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के, राम विलास पासवान जैसे छोटे सहयोगियों के साथ, अकेले दम पर बिहार चुनाव लड़े.

जाति कोई बाधा नहीं

अकेले खड़े होने में बीजेपी को एक डर सता सकता है: ग़ैर-यादव ओबीसी वोट. बिहार में बीजेपी को अगड़ी जातियों की पार्टी के रूप में देखा जाता है, और बिहार की सियासत में नीतीश कुमार, ग़ैर-यादव ओबीसी वोटों, ख़ासकर ईबीसी (अति पिछड़े वर्ग) के वोटों के प्रतीक की हैसियत से अहमियत रखते हैं, जिस वर्ग को उन्होंने ख़ुद पैदा किया है. इस पुराने हिसाब में इस सच्चाई को अनदेखा किया जाता है, कि बीजेपी काफी लम्बे समय से, ईबीसी वोट पर काम कर रही है, और 2015 में विधान सभा चुनाव हारने के समय भी, उसने इस वर्ग से अच्छे ख़ासे वोट लिए थे.

सिर्फ एक ही मुद्दा है और वो है मुख्यमंत्री की कुर्सी. जिस तरह पंजाब में एक आम राय है, कि सीएम सिख होना चाहिए और वो भी जाट, उसी तरह बिहार सियासत में भी एक आम सहमति है, कि सीएम किसी ओबीसी समुदाय से होना चाहिए. बीजेपी विरोधी ओबीसी मतदाताओं से कहते हैं, कि बीजेपी किसी ऊंची जाति वाले को मुख्यमंत्री की गद्दी पर बिठाकर, अगड़ी जातियों का दबदबा क़ायम करना चाहती है. आख़िरकार, क्या उन्होंने उत्तर प्रदेश में यही नहीं किया?

इस समस्या का एक सीधा सा समाधान है. एक सीएम उम्मीदवार घोषित कर दीजिए, जो ओबीसी कम्यूनिटी से हो. ये समझ में आता है कि शायद बीजेपी उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी को, सीएम पद का उम्मीदवार घोषित करना नहीं चाहेगी. वो भले ही क़ाबिल हो सकते हैं, लेकिन उनके बारे में मज़ाक़ किया जाता है, कि वो बीजेपी के भीतर जेडी (यू) के नुमाइंदे हैं.

अगर बीजेपी कोई सीएम उम्मीदवार घोषित करना चाहती है, तो उसके पास चेहरों की कमी नहीं रहेगी. पार्टी ने नित्यानंद राय को एक ओबीसी नेता के तौर पर तैयार किया, और वो अब केंद्रीय गृह मंत्रालय में, अमित शाह के कनिष्ठ सहकर्मी हैं. वो एक यादव हैं.

बीजेपी के पास काफी समय है एक ऐसा लीडर तैयार करने का, जो सीएम के चेहरे के तौर पर स्वीकार्य हो. और नीतीश कुमार के खिलाफ बढ़ रही सत्ता-विरोधी भावना को देखते हुए, एक नए चेहरे को जल्द ही स्वीकार कर लिया जाएगा.

आला कमान कल्चर

समस्या ये नहीं है कि कोई ऐसा योग्य चेहरा नहीं है, जिसे पार्टी सामने ला सके. समस्या ये है कि बीजेपी किसी को घोषित करना नहीं चाहती. अगर पार्टी सीएम के चेहरे के तौर पर किसी को सामने करती है, तो काफी कुछ श्रेय उस चेहरे को चला जाएगा. और कांग्रेस के हाई कमान कल्चर की तरह, मोदी-शाह भी कोई इलाक़ाई क्षत्रप पैदा नहीं करना चाहते. वो चाहते हैं कि हर चुनाव की जीत मोदी के नाम हो, और जनता के बीच उनकी प्रतिष्ठा बढ़े.

नीतीश कुमार को छोड़कर सीएम के चेहरे के बिना चुनाव लड़ना, बीजेपी के लिए थोड़ा जोखिम भरा हो सकता है. और फिलहाल वो जोखिम उठाने के मूड में नहीं है.

नतीजों के बाद

बीजेपी ये कर सकती है कि चुनावों के बाद कोई सरप्राइज़ दे सकती है. बिहार को संबोधित एक ‘वर्चुअल रैली’ में अमित शाह ने कहा है, कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को, दो-तिहाई बहुमत के साथ जीत हासिल होगी. अगर ऐसा हुआ तो बीजेपी और राम विलास पासवान की एलजेपी के पास मिलकर, इतनी सीटें हो सकती हैं कि वो, एक बीजेपी मुख्यमंत्री बिठा सकते हैं. वो केवल ये कह रहे हैं कि चुनाव ‘नीतीश कुमार की अगुवाई में’ लड़ा जाएगा.

यही वजह है कि नीतीश कुमार के भाग्य का फैसला, सीटों के बटवारे में हो सकता है. बीजेपी के लिए बहुत मुश्किल होगा कि वो, नीतीश कुमार को अपने से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने दे. सौदेबाज़ी की अपनी बढ़त के साथ, बीजेपी सुनिश्चित करेगी कि वो ज़्यादा से ज़्यादा जिताऊ सीटों पर लड़े, और मुश्किल सीटों पर जेडी(यू) को लड़ने दे.

और नीतीश कुमार भले ही मुख्यमंत्री के तौर पर लौट आएं, लेकिन बीजेपी के लिए वो कोई ख़तरा नहीं हैं. उनके बाद, बीजेपी ही है जो उनकी हिरासत को हासिल करेगी, और ईबीसी वोट को अपनी मुठ्ठी में रखेगी, क्योंकि आरजेडी और कांग्रेस के उसे पाने की कोई उम्मीद नहीं है.


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नैतिक ज़िम्मेदारी

अगर बीजेपी सच में बिहार के लोगों के कल्याण को लेकर प्रतिबद्ध होती, तो वो इतना समय नहीं लगाती. वो नीतीश कुमार को तुरंत छोड़ देती, और सीएम के लिए कोई चेहरा सामने लाती. नीतीश कुमार के तीसरे कार्यकाल में, उनकी नाकामियों की एक लम्बी फहरिस्त है: शराब-बंदी, पटना में बाढ़, बढ़ते अपराध, शिक्षा व स्वास्थ्य की अनदेखी, और अंत में, मज़दूर संकट से निपटने में, सबसे ख़राब प्रदर्शन.

नीतीश कुमार की ख़राब छवि आज राज्य में, बीजेपी और नरेंद्र मोदी को पीछे ले जा रही है. अब ये बीजोपी के ऊपर है कि अपने मतदाताओं, कार्यकर्ताओं, और नेताओं की ख़ातिर, इस अवसर का फायदा उठाए.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक दिप्रिंट के कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

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