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Saturday, 11 May, 2024
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प्रवासी मज़दूरों के लौटने से चुनावी साल में नीतीश सरकार के सिर पर बेरोजगारी का संकट और ज्यादा मंडराने लगा

सीएमआईई के सर्वे के अनुसार प्रवासी मजदूरों की आमद के साथ अप्रैल में बिहार में बेरोजगारी की दर 46.6% थी, नीतीश सरकार चुनावी साल में संकट में घिर रही है.

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पटना: आर्थिक जगत की जानी-मानी संस्था सीएमआईई के एक सर्वे के अनुसार अप्रैल 2020 में बिहार में बेरोजगारी की दर 46.6% थी. प्रवासियों की लगातार ‘घर वापसी’ के साथ जुड़ा यह मुद्दा चुनावी साल में नीतीश सरकार के लिए एक
गहन संकट है.

इस चुनावी वर्ष में बिहार में बढ़ती बेरोजगारी का मुद्दा नीतीश कुमार सरकार को लगातार सता रहा है, राज्य के
व्यापार और उद्योगों में रोज़गार सृजन की पर्याप्त क्षमता के अभाव के कारण लगभग 17 लाख प्रवासी कामगारों की
घर वापसी इस संकट को और गहरा करेगी.

आर्थिक जगत की जानी-मानी संस्था सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन ईकॉनमी (सीएमआईई) के एक सर्वे के अनुसार
अप्रैल 2020 में बिहार में बेरोजगारी की दर 46.6% थी. यह संख्या राष्ट्रीय दर से लगभग दोगुनी है, और घर लौटने
वाले लाखों श्रमिकों के कारण हालात और भी खराब होने वाले हैं.

दिप्रिंट के साथ एक बातचीत में बिहार के उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने स्वीकार किया कि, ‘इतनी संख्या में
प्रवासी मजदूरों की राज्य वापसी सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है. हम देखेंगे कि इस कार्यबल का कैसे बेहतर
उपयोग किया जा सकता है.’

सुशील मोदी ने आगे बताया, ‘हमने पहले ही विभिन्न सरकारी योजनाओं के माध्यम से लगभग 3.5 करोड़ मानव
कार्य दिवस सृजित किए हैं. हमे पूरी उम्मीद है कि आने वाले 6 महीने के बाद कई राज्य इस आपदा से उबरना शुरू
कर देंगे और कई प्रवासी मजदूर बेहतर सेवा शर्तों के साथ वापस अपने काम पर लौटने लगेंगे.’

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इससे पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने अधिकारियों से उन प्रवासी श्रमिकों की ‘स्किल मैपिंग’ करने के लिए
कहा था, जिन्हें ‘राज्य के विकास के काम में लगाया जाना चाहिए’. लेकिन सरकार से बाहर, और इसके भीतर भी,
कई लोग इन कदमों के प्रति आश्वस्त नहीं हैं.

‘हम साल में एक करोड़ रोजगार पैदा कैसे करेंगे?’


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2005 में, जब नीतीश कुमार पहली बार बिहार की सत्ता में आए थे तो उन्होंने वादा किया था कि राज्य के लोगों को
अपनी आजीविका के लिए बाहर नहीं जाना पड़ेगा. इसके बावजूद बेहतर रोज़गार की तलाश में बिहार के मजदूरों के देशभर में फैलने के चलन में कोई खास बदलाव नहीं आया. केरल (प्रति दिन 1,500 रुपये), तेलंगाना (प्रति
दिन 1,200 रुपये) जैसे बेहतर दैनिक मजदूरी वाले राज्यों के प्रति उनका आकर्षण बढ़ा ही है.

एक वरिष्ठ मंत्री, जो अपनी पहचान उजागर करना नहीं चाहते, ने सवालिया लहजे में कहा, ‘बिहार में दैनिक वेतन
300 रुपये प्रति दिन है. अगर हम 15 साल में राज्य में ही बेहतर नौकरी और रोज़गार की पेशकश करके श्रमिकों के
पलायन को रोक नहीं पाए तो एक साल के भीतर इसे पूरा करने की उम्मीद कोई हमसे कैसे कर सकता है?’

सरकारी सूत्रों के अनुसार, फिलहाल राज्य में वापसी कर रहे प्रवासी मजदूरों की संख्या शुरुआती अनुमानों से कहीं
अधिक है. जब श्रमिक ट्रेनें शुरू हुईं थीं तो अनुमान लगाया गया था कि 10 लाख से भी कम मजदूर वापस आएंगे.

हालांकि जैसे-जैसे ट्रेनें बढ़ाई गईं, संशोधित अनुमान 15 लाख पार कर गया. 25 मई तक, लगभग 15.36 लाख प्रवासी
1,036 ट्रेनों से राज्य में वापस आ चुके थे. 26 मई को, 122 और ट्रेनों ने लगभग 2 लाख यात्रियों को वापस लाया.

बिहार के परिवहन आयुक्त संजय अग्रवाल के अनुसार, ‘एक दिन में राज्य में आने वाली ट्रेनों की संख्या दो से शुरू
होकर अब 100 तक हो गई है. अभी प्रवासी मजदूरों को घर वापस लाना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है और यह प्रक्रिया
इसी तरह जारी रहेगी.’ उन्होंने बताया कि पैदल घर लौट रहे प्रवासियों को वापस लाने के लिए 800 बसों की भी
तैनाती की गई है.

हालांकि, इस वक्त सरकार की चिंता इन घर लौटने वाले श्रमिकों के कारण अर्थव्यवस्था और राजनीति पर पड़ने वाले
प्रभाव पर केंद्रित है ना कि इस बात पर कि इसका राज्य के चरमराते हुए ढांचे पर कितना अतिरिक्त दबाव पड़ेगा. शुक्रवार तक, बिहार में 3,296 कॉविड-19 के मामले दर्ज किए जा चुके थे, जिनमें से कम से कम 2,041 ऐसे प्रवासी
मजदूर हैं, जो महाराष्ट्र, दिल्ली, गुजरात और अन्य राज्यों से लौटे हैं.

अपनी पहचान ना उजगार किए जाने की शर्त पर स्वास्थ्य विभाग के एक अधिकारी ने कहा, ‘हमें अभी नहीं पता कि
जब सभी प्रवासी मजदूर वापस लौटेंगे तो संख्या अंततः कहां जाकर रुकेगी.’

विशेषज्ञों और व्यापार जगत की राय

जिस तरह से देशभर से प्रवासी मजदूर अपने गृह राज्य (बिहार) वापस लौट रहे हैं अर्थशास्त्रियों का कहना है कि
रिवर्स माइग्रेशन की यह परिघटना कतई अस्थायी नहीं है. इसका प्रभाव लंबे समय तक रहने वाला है. वे यह भी जोड़ते
हैं कि इससे राज्य को तगड़ा आघात लगने वाला है.

बिहार सरकार के लिए वार्षिक आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट तैयार करने वाली संस्था एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट
(अदरि) के निदेशक पी.पी. घोष ने कहा कि इनमें से अधिकांश मजदूरों के राज्य मे वापस बने रहने की संभावना है
क्योंकि उनमें उन राज्यों के प्रति जहां उन्होंने काम किया था, अपने साथ किए गये घटिया व्यवहार के प्रति नाराज़गी
है.

घोष ने आगे कहा, ‘यह बिहार की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बुरी तरह से प्रभावित करने वाला है क्योंकि प्रवासी
मजदूरों का ग्रामीण अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण – लगभग 30 प्रतिशत -योगदान होता है. उनके द्वारा घर वापस भेजे
गये पैसों से हीं ग्रामीण अर्थव्यवस्था चलती है.’

उन्होंने यह भी कहा कि, ‘इससे ​​बिहार में मानवीय श्रम की उपलब्धता बढ़ेगी और दैनिक मजदूरी घटेगी. ग्रामीण
अर्थव्यवस्था का कमजोर होना बिहार को कुपोषण, स्वास्थ्य की देखभाल, साक्षरता आदि जैसे बुनियादी कारकों के
प्रति नकारात्मक रूप से संवेदनशील बनाएगी.’

घोष ने बताया कि सब्जियों की कीमतों पर पड़ रहे असर के रूप में इसे पहले से ही महसूस किया जा रहा है. ग्रामीण
अर्थव्यवस्था को इस संकट से बचाने के लिए, बिहार सरकार को पर्याप्त नकद हस्तांतरण, या तो सीधे बैंक खातों में
या महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत बढ़े हुए रोज़गार अवसरों के माध्यम
से, सुनिश्चित करना चाहिए.’ उनके अनुसार यह जितना तेज़ी से किया जाए, सरकार के लिए उतना ही बेहतर होगा.

कई अन्य विशेषज्ञ इस संकट को एक चुनौती के साथ-साथ एक अवसर के रूप में भी देखते हैं. पटना विश्वविद्यालय
के पूर्व अर्थशास्त्र विशेषज्ञ प्रोफेसर एनके चौधरी ने कहा कि सही तरीके से इस्तेमाल किया जाने पर य कार्यबल/श्रमिक शक्ति (वर्क फोर्स) बिहार के लिए एक बड़े जनसांख्यिकीय लाभ का कारण बन सकती है.

उन्होने कहा, ‘इनमें से अधिकांश मजदूर अर्ध-कुशल हैं और वे बिहार, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में, में सामाजिक और
आर्थिक परिवर्तन को प्रभावित कर सकते हैं. वे ग्रामीण बिहार की सामंती मानसिकता से बाहर निकल चुके थे. (राज्य
से बाहर) उन्होंने बेहतर जीवन शैली, सामाजिक परिवर्तन और समृद्धि देखी है. उनका मस्तिष्क नए विचारों के प्रति
अधिक खुला है.’

अपने बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, ‘राज्य सरकार को इनका लाभ उठना चाहिए और उनके श्रम को पूंजी
में बदलना चाहिए. उनके कौशल का उपयोग मनरेगा में करना चाहिए. राज्य सरकार को कुशल श्रम को समायोजित
करने के लिए सूक्ष्म और मध्यम उद्योग जगत को बढ़ावा देना चाहिए लेकिन इस सबके लिए एक प्रतिबद्ध सरकार
और नौकरशाही की आवश्यकता होगी.’

लेकिन इस मुद्दे को सुलझाने के प्रति व्यापार और उद्योग जगत में स्पष्ट रूप से हिचकिचाहट है. पीएचडी चैंबर
ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री की राज्य इकाई के अध्यक्ष सत्यजीत सिंह ने कह, ‘बिहार में व्यापार और उद्योग में
उप्लब्ध रोज़गार की कुल क्षमता लगभग 1.25 लाख है जो पहले से ही भरी हुई है.’

सत्यजीत सिंह कहते हैं, ‘सरकार पिछले करीब एक दशक से राज्य में उद्योग जगत को खड़ा करने के प्रति बहुत
अधिक सक्रिय नहीं है. यदि वे अभी भी समुचित प्रयास करते हैं, तो भी उद्योगों को उत्पादन शुरू करने में एक वर्ष से
अधिक का समय लगेगा. (इस वक्त) प्रवासी मजदूरों को समायोजित करने की पूरी जिम्मेदारी राज्य पर है.’

उन्होंने कहा कि, ‘बिहार से आजीविका हेतु इतनी बड़ी आबादी का बाहर पलायन जिन कारणों से हुआ वे अभी भी
राज्य में व्याप्त है. मुझे एकमात्र सकारात्मक पहलू कृषि क्षेत्र में श्रम की उपलब्धता लगता है.’


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कॉविड-19 के बीच स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं

प्रवासी मजदूरों के इस अप्रत्याशित प्रवाह ने बिहार सरकार को भी अचंभे में डाल दिया है. सोमवार को जारी एक
सरकारी बयान में दावा किया गया था कि राज्य में कॉविड-19 के लिए क्वॉरेंटाइन सेंटर्स की संख्या बढ़कर 14,472 हो
गई है और फिलहाल उनमें 11 लाख से अधिक लोग हैं. एक हफ्ते पहले तक इन केंद्रों की संख्या बमुश्किल से 7,880
थी.

इन केंद्रों के खराब प्रबंधन की लगातार आ रहीं खबरों के कारण विपक्ष लगातार हमलावर है और उसके निशाने पर
रहते हुए भी नीतीश कुमार क्वॉरेंटाइन सेंटर्स के अंदर जाकर लोगों के साथ बातचीत कर रहे हैं.

सोमवार को, उन्होंने राज्य के आला अधिकारियों के साथ एक उच्चस्तरीय बैठक की और उन्हें निर्देश दिया कि
प्रवासी मजदूरों के आगमन के साथ ही राज्य में कॉविड-19 के मामलों की तेज़ी से बढ़ रही संख्या के मद्देनजर हर
जिले में पृथकवास (आइसोलेशन) वार्डों की संख्या में वृद्धि की जाए.

राजनैतिक प्रभाव

कॉविड-19 के प्रभाव से उपजे प्रवासी संकट ने बिहार की राजनीति को भी काफी हद तक प्रभावित किया है क्योंकि
वापस लौटने वाले मजदूरों में सरकार द्वारा उन्हें फंसा हुए छोड़ने के प्रति नाराज़गी है.

लालू प्रसाद की राजद, जो इस संकट से पहले तक लस्त-पस्त नज़र आ रही थी, उसके अचानक 2020 के विधानसभा
चुनाव से पहले एक अवसर हाथ लग गया है.

राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी ने कहा, ‘स्वयं भाजपा के नेता अब निजी तौर पर बिहार विधानसभा
चुनाव के लिए सीएम का चेहरा बदलने की बात कर रहे हैं. घर लौट रहे प्रवासी मजदूर नीतीश कुमार को गाली दे रहें
हैं.’

हालांकि, भाजपा इस तरह के किसी भी कदम या विचार से भी इंकार कर रही है. भाजपा प्रवक्ता रजनी रंजन पटेल
ने दिप्रिंट से कहा, ‘शिवानंद जी को भविष्य वक्ता बनने से बचना चाहिए. (चुनाव में) नीतीश कुमार ही हमारा नेतृत्व
करेंगे. शिवानंद जी तो केवल लालू प्रसाद और उनके परिवार के राग दरबारी बने हुए हैं.’

पर यह भी सत्य है कि लौटते हुए प्रवासियों की भारी बाढ़ ने एनडीए के नेताओं को भी चिंतित कर दिया है, वे निजी
तौर पर इस बात से सहमत हैं कि नीतीश कुमार को प्रवासियों की वापसी का विरोध करने के बजाय मार्च में ही उनकी
वापसी की अनुमति दे देनी चाहिए थी. अब उनकी सारी उम्मीद इसी बात पर टिकी है कि राज्य में एक बार फिर से
जातिगत आधार पर वोटिंग होगी, जहां एनडीए का पलड़ा भारी दिखता है.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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