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Saturday, 21 December, 2024
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भाजपा के पांच तुरुप के पत्ते – चुनावी मशीनरी, मोदी, मंदिर, मीडिया और मनी – सब फेल हो गए?

नरेंद्र मोदी को अब अर्थव्यवस्था, घृणा के माहौल और रफाल पर कड़े सवालों का जवाब देने के लिए तैयार होना पड़ेगा.

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राजनीति के विद्वान इसे अपनी खास भाषा में चुनावी लोकतंत्र का ‘सेल्फ-करेक्टिंग मैकेनिज़्म’ मतलब आत्म-सुधार की क्षमता कहकर बुलाते हैं. एडम स्मिथ का गढ़ा ‘हिडेन हैंड’ का मुहावरा बड़ा मशहूर है. माना जाता है कि बाज़ार के भीतर एक अदृश्य ताकत होती है और यह ताकत बाजार आधारित अर्थव्यवस्था की खामियों को खुद ही सुधार लेती है. ठीक इसी तरह प्रतिस्पर्धात्मक लोकतंत्र के बारे में माना जाता है कि वो राजनीतिक व्यवस्था की ज़्यादतियों को खुद ही सुधार लेता है. साल 2018 के विधानसभा चुनावों के नतीजों ने यही काम किया है.

प्रभुता के चरम पर जा पहुंचे नरेन्द्र मोदी के अजेय जान पड़ते प्रभामंडल के भीतर हर संस्था, मान-मूल्य और संविधान-प्रदत्त स्वतंत्रता बंधुआ बनते जा रहे थे- राज-व्यवस्था बड़ी तेज़ी से चुनावी अधिनायकवाद की खाई में फिसलती जा रही थी कि अचानक इस फिसलन ने खुद ही पर एक ब्रेक लगा लिया है. एकबारगी, 2019 का चुनावी मैदान मुकाबले के एकदम खुले हुए अखाड़े में तब्दील हो गया है.

एक होता है असली अजेंडा जिसपर जनता वोट करती है-विधानसभा चुनाव के इन नतीजों का पहला संदेश तो यही है. नतीजों से साफ-साफ झांक रहा है कि खेती-किसानी की दुर्दशा और ग्रामीण-संकट कोई हवा-हवाई बात नहीं बल्कि अभी की एक असलियत है. हालांकि मध्यप्रदेश में सरकार के गठन को लेकर अभी तस्वीर का साफ होना बाकी है लेकिन गौर करें कि छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश में मतदाताओं का मन सत्ताधारी बीजेपी के खेमे से अब बहुत दूर जा छिटका है. मध्यप्रदेश के मालवा, पूर्वी राजस्थान और छत्तीसगढ़ की बिचली पट्टी में बीजेपी ने मुंह की खायी है जो साबित करता है कि गुजरात ही की तरह इन राज्यों में भी किसानों का आक्रोश बीजेपी पर भारी पड़ा है.


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एक्ज़िट-पोल ने रुझान को ठीक पकड़ा था और एक्ज़िट-पोल के इशारों को सामाजिक मानचित्र के खानों में रखकर परखें तो दिख पड़ेगा कि बीजेपी को ग्रामीण मतदाताओं, खासकर किसानों के बीच तगड़ा झटका लगा है. इन चुनावों से यह भी साबित हुआ है कि बेरोज़गार नौजवानों ने सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ खुलकर वोट किया. चुनाव-पूर्व के सभी सर्वेक्षणों में कहा गया था कि बेरोज़गारी इस बार बड़ा चुनावी मुद्दा है.

योगी आदित्यनाथ ने तो यों तो कोई कोर-कसर ना उठा रखी और बड़े आक्रामक तेवर में अपना अभियान चलाया लेकिन चुनाव के नतीजों से यह भी झलकता है कि मंदिर का मुद्दा इस बार नहीं चला. हो सकता है, देश के बाकी हिस्सों के लिए यह बात सही ना हो लेकिन मुल्क की हिन्दीपट्टी के 2019 के बारे में अब हम कह सकते हैं कि यहां चुनावी अजेंडा होगा: हिन्दू ना मुसलमान, बस किसान और जवान.

चुनाव के नतीजों से लोकतंत्र का एक और संदेश उभरा है: धनबल और मीडियाबल चुनाव जीतने के लिए ज़रुरी तो हैं लेकिन इतना ही भर काफी नहीं. यह बात किसी से छुपी नहीं कि खर्च करने के मामले में बीजेपी अपने विरोधियों के मुकाबले कोसों आगे थी. विरोधियों ने अगर एक रुपया खर्च किया तो बीजेपी ने 10 रुपये. इलेक्टोरल बांड (चुनावी बांड) का रास्ता वैधानिक तो है लेकिन इतना पोशीदा भी कि कोई एक हाथ से दे तो दूसरे हाथ को इसकी भनक तक ना लगे और सब जानते हैं कि बीजेपी को 95 फीसद चुनावी चंदा इसी रास्ते हाथ लगा.

जहां तक मीडिया का सवाल है- उसके बारे में जितना कम कहा जाय उतना ही अच्छा. बस इतना ही भर कहना काफी होगा कि खुद को ‘आज़ाद’ कहने वाली मीडिया का एक बड़ा हिस्सा जिस तरह सत्ताधारी पार्टी का प्रवक्ता बना नज़र आ रहा है वह भारतीय लोकतंत्र के इतिहास के सबसे शर्मनाक अध्याय के रुप में याद किया जायेगा. यह भी कोई छुपी बात नहीं कि बीजेपी ने अपने मुख्य प्रतिद्वन्द्वी के खिलाफ बागी उम्मीदवार या पार्टी खड़े करने में खुलकर खजाना लुटाया. जैसे तेलंगाना में टीआरएस को इन हथकंडों का फायदा हुआ वैसे ही हिन्दीपट्टी में बीजेपी के लिए भी ये हथकंडे मददगार बने. लेकिन, इन चुनावों में बीजेपी की हार हुई है और यह हार याद दिलाती है कि किसी पार्टी के लिए असली मुद्दों और सचमुच के लोगों से अपने को हमेशा जोड़े रखना ज़रुरी होता है.

तीसरी बात, इन चुनावों से चेहरा-केंद्रित राजनीति की सीमा भी उजागर हुई है. यह कहना तो खैर जायज़ ना होगा कि मोदी-युग बीत चला. हर चुनाव का इशारा यही है कि मोदी सबसे लोकप्रिय नेता हैं, लोकप्रियता के मामले में राहुल गांधी और खुद अपनी ही पार्टी की तुलना में वे बहुत आगे हैं. लेकिन इतना भर ज़रुर कहा जा सकता है कि अब उनमें वो बात ना रही कि किसी भी चुनाव को मनचाही राह पर मोड़ दें और और चाहें तो अपनी नाम की ताबीज़ पहनाकर किसी खंभे को भी चुनाव में जीत दिला दें जबकि सत्ता में आने के अपने पहले दो सालों में उन्होंने ऐसा कर दिखाया था.

यों कहें कि मोदी ने अपने हाथ में जो जादू की छड़ी थाम रखी थी उसके देवता कूच कर चुके हैं और अब उन्हें अर्थव्यवस्था, नफरत के माहौल, संस्थाओं की खस्ताहाली और राफेल के मोर्चे से उठते कठिन सवालों के जवाब देने के लिए तैयार रहना होगा. कांग्रेस को सबसे शानदार जीत छत्तीसगढ़ में मिली है और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस यह तक नहीं बता पायी थी कि वहां उसका नेता कौन है- आभामंडल से भरे किसी खास चेहरे की बात तो खैर छोड़ ही दें.


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चुनाव के नतीजों ने सत्ताधारी पार्टी की अकड़ की कान उमेठी है और चुनावी नतीजे विपक्ष के निठल्लेपन की भी दवा साबित हो सकते है.कांग्रेस मध्यप्रदेश में बहुमत के आंकड़े से दूर रही और राजस्थान में बड़े बहुमत की तरफ बढ़ते उसके कदम एकबारगी थमकर रह गये. इस नाकामी को देखते हुए मान सकते हैं कि कांग्रेस चुप नहीं बैठेगी, वह हाथ पर हाथ धरे इस इंतज़ार में खड़ी नहीं रहेगी कि देखें, मोदीराज के पाये कब ढहते हैं.

वसुंधराराजे सिंधिया की सरकार के खिलाफ उमड़ते भारी जनाक्रोश और शिवराज सिंह चौहान के शासन में चहुंओर फैल चुके ग्रामीण-संकट को अगर कांग्रेस भुनाने में नाकाम रही तो समझिए कि इस पार्टी के साथ कोई भारी गड़बड़ है. कांग्रेस बेशक पिछले पांच साल से विपक्ष में हैं लेकिन वह कभी विपक्ष की भूमिका निभाते हुए सड़कों पर ना दिखी. छत्तीसगढ़ की कहानी तनिक अलग है. यहां कांग्रेस ने पांच सालों में ज़मीनी स्तर के आंदोलन चलाये, विरोध-प्रदर्शन भी किये.

और इस सिलसिले की आखिरी बात यह कि चुनाव के नतीजों से गठबंधन की रणनीति की भी सीमा उजागर हो गई है. कांग्रेस ने कागज़ी गुणा-भाग के सहारे अपने जानते तेलंगाना में सबसे ताकतवर गठबंधन बनाया था. कागज़ी गुणा-भाग लगाकर देखें तो कांग्रेस-टीडीपी-सीपीआई और टीजेएस का गठबंधन टीआरएस पर बहुत भारी जान पड़ेगा. लेकिन, कांग्रेस यह ना सोच पायी कि जिस पार्टी से गठबंधन करने जा रही है लोग उसे तेलंगाना राज्य के निर्माण की राह में रोड़े अटकाने वाली पार्टी मानते हैं- लोगों ने अपनी तरफ से इस गठबंधन को ही नकार दिया.

माना जा रहा था कि अजित जोगी-बीएसपी का गठबंधन छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को नुकसान पहुंचायेगा. लेकिन, छत्तीसगढ़ की जनता ने अपने सूबे की राजनीति के सबसे खिलंदड़ बिचौलिए को सिरे से नकार दिया. इससे निकलता संदेश साल 2019 के लिए महागठबंधन बनाने की कोशिशें के मद्देनज़र बहुत अहम साबित हो सकता है. संदेश यह कि गठबंधन उपयोगी साबित हो सकता है लेकिन वह किसी पार्टी की साख का विकल्प नहीं बन सकता, साख आपके पास पहले से होनी चाहिए. चुनाव सपने दिखाने का नाम है, लोगों में आस जगाने और नये कथानक रचने का नाम है. लेकिन उभरते मोदी-विरोधी गठबंधन के पास अभी ये चीज़ें नहीं हैं.

बीजेपी ने 2019 के चुनावी दंगल की राह पर अपने पांच अचूक दांव के भरोसे कदम बढ़ाये थे. बीजेपी के ये पांच दांव थे: चुनावी मशीनरी, मोदी, मंदिर, मीडिया और मनी(धनबल). इनमें पहले के तीन दांव अब उतने भरोसेमंद नहीं रहे. बीजेपी के पास अब भी मज़बूत संगठन-बल है लेकिन यह पहले की तरह अपराजेय नहीं रहा, ‘मोदी’ नाम का दांव अब भी कारगर है लेकिन उसमें पहले वाली बात ना रही जब जादू सिर चढ़कर बोलता था, अब मोदी की लोकप्रियता उतार पर है. मंदिर का मुद्दा धर्मभीरु जनता में जोश तो जगा सकता है लेकिन यह जोश अब वोट में तब्दील होता नहीं दिखता. मुमकिन है इन तीन दांव के कमज़ोर पड़ने का असर से बाकी के दो दांव पर भी हो- उनमें भी कहीं मोच और अकड़न आ जाये.

अब मीडिया के दिग्गजों को जान पड़ेगा कि उन्हें अपने संदेशों की नोंक-पलक संवारने की ज़रुरत है. कम से कम इतनी उम्मीद तो हम पाल ही सकते हैं कि मीडिया जिस बेशर्मी से सत्तापक्ष की पैरोकारी करता नज़र आ रहा था, उससे अब परहेज़ करेगा. इसी तरह, जो बड़े दानदाता हैं वे भी अब किसी एक ही पार्टी की झोली में अपना चंदा उड़ेलने में कुछ संकोच बरतेंगे. कांग्रेस और बाकी दलों को चुनावी दौड़ में बने रहने के लिए अपने हिस्से की ज़रुरी रकम के लिए अब तरसना नहीं पड़ेगा. साल 2019 का चुनावी दंगल अब कहीं ज़्यादा समतल अखाड़े में लड़ा जायेगा और यह सुधार बिल्कुल ठीक समय पर हुआ है- ऐसा नहीं कह सकते कि अखाड़ा बहुत पहले ही समतल हो गया.

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