नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के कारण पूरे भारत में प्रदर्शन हो रहे हैं. कानूनी जानकारों का कहना है कि नए कानून के तहत नागरिकता के लिए धार्मिक परीक्षा संविधान के मूलभूत ढ़ांचे के खिलाफ है. प्रदर्शनकारी इसे भारतीय बहुलतावाद के खिलाफ मान रहे हैं जो सामाजिक ताने-बाने के लिए खतरा है.
नरेंद्र मोदी सरकार प्रदर्शनकारियों की चिंताओं को कमतर करने की कोशिश कर रही है, जिनका गुस्सा अब बढ़ता जा रहा है. लेकिन भारत की राजनीतिक इतिहास और मौजूदा आर्थिक माहौल सत्ता में मौजूद सरकार को इन चिंताओं को गंभीरता से लेने की जरूरत की तरफ इशारा करती है.
छात्र प्रदर्शनों की विरासत
छात्रों ने किस प्रकार से भारतीय राजनीतिक विकास यात्रा को बदला है, इसका अध्ययन लियोज़ और सुसेन रुडोल्फ ने 1987 में अपनी ऐतिहासिक किताब ‘इन परश्यूट ऑफ लक्ष्मी: द पॉलीटिकल इकोनॉमी ऑफ द इंडियन स्टेट’ में किया है.
गृह मंत्रालय के आंकड़ों का इस्तेमाल कर उन्होंने आज़ादी के बाद छात्र आंदोलनों के विकास को दर्ज किया है. छात्र प्रदर्शनों की संख्या 1958 में 93 घटनाएं हुई थी जो 1964 में बढ़कर 395 हो गई और 1970 आते-आते 3,861 हो गई. 1974 में प्रदर्शनों की संख्या बढ़कर 11,540 हो गई. आपातकाल के समय में प्रदर्शनों में कमी आई लेकिन उसके बाद 1980 आते-आते ये बढ़कर 10,600 पर पहुंच गई.
छात्र कई कारणों से एकजुट हुए. 1960 के आखिर में हिंदी को थोपे जाने को लेकर तमिलनाडु में प्रदर्शन हुए. प्रो-हिंदी छात्रों की कोशिशों के बाद भी 1967 में आधिकारिक भाषा कानून में संशोधन करना पड़ा. जिससे राज्यों को ये सुविधा हो गई की वो अंग्रेजी को हिंदी की जगह इस्तेमाल करें, एक आधिकारिक भाषा के तौर पर. 1970 का दौर विद्यार्थियों के आंदोलन के चरम पर थी. जिसमें आर्थिक बदहाली और इंदिरा गांधी की तानाशाही सरकार के खिलाफ छात्र थे. गुजरात का नवनिर्माण आंदोलन और बिहार का जेपी आंदोलन (दोनों का छात्रों ने नेतृत्व किया) राष्ट्र आंदोलन बन गया.
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कांग्रेस के नेतृत्व वाली इंदिरा गांधी के राजनीतिक शासन को चुनौती मिलने लगी जिसके बाद उन्होंने आपातकाल लगा दिया. तानाशाही के खिलाफ एकजुट होने के लिए सभी विपक्षी पार्टी एक साथ आ गए ताकि कांग्रेस को हरा सकें.
छात्रों के आंदोलन की महत्ता के बावजूद, भारतीय राज्य और मीडिया ने इसे गंभीरता से नहीं लिया. गृह मंत्रालय के रिकॉर्ड के अनुसार छात्रों का प्रदर्शन अनुशासनहीनता थी, न कि राजनीतिक प्रदर्शन. सरकारें इसे असंतोष बताती चली आई हैं. ये कथानक इसलिए गढ़ें गए ताकि छात्र प्रदर्शन की वैधता को मान्यता न मिलें. छात्रों को इस तरह पेश किया गया कि वो नासमझ और अपरिपक्व हैं.
इतिहास फिर से दोहराता है
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने सीएए के खिलाफ छात्र प्रदर्शनों को देखते हुए भाषण और पोस्ट किए हैं. छात्रों के तर्कों को सुनने के बजाए उन्होंने प्रदर्शनों को कांग्रेस का कारनामा और दूसरे लोगों का कारनामा बताया जो झूठ और भ्रम फैला रहे हैं.
तानाशाही तरीके दिखने लगे हैं- जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पुलिस द्वारा बर्बर कार्रवाई, प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लेना, इंटरनेट बंद कर देना ये साबित करते हैं.
कई स्तर पर मोदी शाह की प्रतिक्रिया भ्रमित करती है. पहला, यह कांग्रेस नेतृत्व को बहुत अधिक श्रेय देता है, जो राजनीतिक रूप से निर्दोष साबित हुआ है और जमीनी स्तर पर कुछ भी आयोजित करने के लिए तैयार नहीं है. जबकि छात्र पुलिस से प्रदर्शन और मारपीट का सामना कर रहे हैं, कांग्रेस नेता राहुल गांधी दक्षिण कोरिया के प्रधानमंत्री से मिल रहे हैं. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि मोदी सरकार यह स्वीकार करने में विफल रही है कि छात्रों को सीएए के साथ वैध आशंका हो सकती है, और यह उनके डर को दूर करने की जिम्मेदारी है.
लोकतांत्रिक असंतोष में लिप्त नागरिकों के रूप में छात्रों को देखने की विफलता भाजपा नेतृत्व अपने छात्र सक्रियता के इतिहास को भूला रही है. मोदी और अमित शाह ने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के प्रचारकों के रूप में अपनी पहचान बनीं. 1975-1977 के आपातकाल से पहले, युवा मोदी ने इंदिरा गांधी के लोकलुभावन ‘गरीबी हटाओ’ अभियान के खिलाफ गुजरात में नेतृत्व किया, इसे ‘गरीबी हटाओ’ का एक क्रूर कार्यक्रम कहा. आज, छात्र मोदी के दरवाज़े पर भारतीय मुसलमानों, कश्मीरी, असमिया और अन्य समुदाय के खिलाफ क्रूरता का विरोध कर रहे हैं. इन आवाजों को चुप कराने के लिए, असहमति और असंतोष को संभालने के लिए मोदी शासन ने अपनी राजनीतिक अक्षमता दिखाई है.
कहां है अच्छे दिन
छात्रों के प्रदर्शन को भारत की जनसांख्यिकी और अर्थव्यवस्था की बदहाली के संदर्भ में भी देख सकते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अच्छे दिन के वादों के जरिए सत्ता में आए थे. उनकी जीत भारत के युवाओं की आकांक्षाओं को प्रदर्शित कर रही थी, जो बदलाव की दिशा में देख रहा था. जो कांग्रेस के दशकों के भ्रष्टाचार से परेशान था. मोदी के पांच साल बीत जाने के बाद और दोबारा चुनकर आने के बाद भी अच्छे दिन कहीं नज़र नहीं आ रहे हैं.
कॉलेज से डिग्री पा चुके युवाओं में बेरोज़गारी दर लगातार बढ़ रही है, किसानी संकट बढ़ रही है और आर्थिक विकास कमज़ोर हो रही है. वर्ल्ड बैंक ह्यूमन कैपिटल इंडेक्स में भारत 157 देशों में 115वें स्थान पर है. जिसमें स्वास्थ्य और शिक्षा की स्थिति बांग्लादेश और नेपाल से भी खराब है.
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भारत की अर्थव्यवस्था के सामने चुनौती पहले से है लेकिन उनका राजनीतिक कद इसकी जिम्मेदारी भी तय करती है. अभूतपूर्व चुनावी जीत मोदी सरकार को ये हक देती है कि वो मानव विकास, बेरोजगारी और संस्थागत बदलाव के लिए बिल लेकर आएं.
हालांकि, 2014 से, शिक्षा में सार्वजनिक प्रोग्रामिंग कम हो गई है और कुछ गंभीर सुधारों का प्रयास किया गया है. इससे भी बुरी बात यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की देखरेख करने वाली राज्य एजेंसियां चरमरा गई हैं. यदि सांख्यिकीय आंकड़ों के दमन ने आर्थिक सबूतों के लिए तिरस्कार का सुझाव दिया, तो विमुद्रीकरण ने मोदी की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने की इच्छा का खुलासा किया, वो भी बिना उचित परामर्श के.
छात्रों के भविष्य से खेला जा रहा है
नीतिगत गलतफहमी की लागत छात्रों पर पड़ रही है, जिनके जीवन की संभावना एक जीवंत और समावेशी अर्थव्यवस्था पर निर्भर करती है. शहरी युवाओं (15-29 वर्ष की आयु) के लिए श्रम बल की भागीदारी दर घटकर 37.7 प्रतिशत हो गई है, जिसका अर्थ है कि अधिकांश युवाओं ने नौकरी की तलाश छोड़ दी है. फिर भी, मोदी की नीति का एजेंडा उनकी आर्थिक संभावनाओं को बेहतर बनाने पर केंद्रित नहीं है.
छात्र अपने भविष्य की तरफ बैचेनी से देख रहे हैं. भाजपा ने अपने सिग्नेचर प्रोजेक्टस – सीएए, अनुच्छेद-370 को जम्मू-कश्मीर से हटाना, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण पहले हीं हो चुका है.
कोई इसका अनुमान नहीं लगा सकता है कि सीएए-एनआरसी के खिलाफ हो रहा प्रदर्शन भारत को किस दिशा में ले जाएगा. बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि मोदी सरकार आगे बढ़ने पर क्या प्रतिक्रिया देती है और क्या विपक्षी दल हाथ मिलाते हैं. कुछ तत्व ऐसे भी हैं जो इन प्रदर्शनों का इस्तेमाल हिंसा के लिए कर रहे हैं, जिससे बचना काफी जरूरी है.
प्रदर्शन वादों की तस्दीक करती हैं. छात्रों ने अपने सिद्धांतों के लिए खड़े होकर साहस का प्रदर्शन किया है. सबसे अच्छी बात है कि जामिया में पुलिस द्वारा की गई बर्बरता के खिलाफ देशभर के विश्वविद्यालय खड़े हुए हैं और इस कानून के खिलाफ भी आवाज़ बुलंद की है. भारतीय छात्रों ने दिखाया है कि असल में नागरिकता का मतलब है क्या.
(लेखक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में राजनीतिक विश्लेषक हैं. यह उनके निजी विचार हैं.)
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