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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतजयंती : भुला दिये गये भारतीय समाजवाद के पितामह आचार्य नरेन्द्र देव

जयंती : भुला दिये गये भारतीय समाजवाद के पितामह आचार्य नरेन्द्र देव

नरेन्द्र देव जिन्होंने स्वतंत्रता संघर्ष के दिनों में कांग्रेस में रहकर समाजवाद की अलमबरदारी की और स्वतंत्रता के बाद का जीवन कांग्रेस का समाजवादी विकल्प खड़ा करने में होम कर दिया.

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भारतीय समाजवाद के दुर्दिन में उसके वारिसों के लिए उसके पितामह की दिखाई राह पर चलना तो दूर की बात, उन्हें याद करना भी असुविधाजनक हो जायेगा, इसकी अभी कुछ साल पहले तक कल्पना भी नहीं की जाती थी. जी हां, हम उन आचार्य नरेन्द्र देव की बात कर रहे हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता संघर्ष के दिनों में कांग्रेस में रहकर समाजवाद की अलमबरदारी की और स्वतंत्रता के बाद का जीवन कांग्रेस का समाजवादी विकल्प खड़ा करने में होम कर दिया.

आज की तारीख में इसका ‘सिला’ उन्हें इस रूप में मिला है कि न कांग्रेस के महानायक पं. जवाहरलाल नेहरू के वारिस उन्हें ‘अपना’ समझते हैं, न ही समाजवाद के महानायक डाॅ. राममनोहर लोहिया के वारिस. उनकी जयंतियों व पुण्यतिथियों तक पर किसी को उनकी याद नहीं आती.

2017 में जब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की अखिलेश यादव सरकार थी, आचार्य की कर्मभूमि फैजाबाद स्थित वह ऐतिहासिक घर भी, जिसमें रहकर अध्ययन व चिंतन करते हुए वे इस निष्कर्ष तक पहुंचे कि मनुष्यमात्र की मुक्ति का एकमात्र रास्ता समाजवाद से होकर गुजरता है, बिक गया और उनका नहीं रह गया.

एक डील के तहत कई नियम-कायदों को धता बताकर व्यावसायिक उद्देश्यों वाले काम्प्लेक्स के निर्माण के लिए उसमें तोड़-फोड़ शुरू हुई तो प्रदेश में ‘अपनी सरकार’ के खुमार में डूबे समाजवादी खेमों के पास यह आरोप लगाने का विकल्प भी नहीं था कि समाजवाद विरोधी सरकार मनमानी पर आमादा है. तब उन्होंने यह कहकर अपनी निराशा व्यक्त की थी कि जब इस पितामह आचार्य का समाजवाद ही वक्त के थपेड़े नहीं झेल पा रहा, तो किसी तरह लड़-भिड़कर उनका यह घर बचा भी लिया जाये तो उससे क्या हासिल होगा?


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बहरहाल, आचार्य नरेन्द्र देव पैदा भले ही 1889 में सीतापुर में हुए थे, आगे चलकर फैजाबाद ही उनकी कर्मस्थली बना, जहां उनके दादा बरतनों के व्यवसायी थे. आचार्य दो ही साल के थे कि उनके दादा का निधन हो गया और वे पिता के साथ फैजाबाद चले आए. पिता वकील थे और चाहते थे कि बेटा भी वकालत पढ़े, लेकिन नरेंद्र देव को बकालत में ज्यादा रुचि नहीं थी. बाद में उन्होंने इस लिहाज से इलाहाबाद विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री हासिल की कि वकालत करते हुए स्वतंत्रता संघर्ष में सुविधापूर्वक भाग ले सकेंगे.

फैजाबाद से अयोध्या तक

वक्त के थपेड़ों के बीच रहने को तो खैर अब वह फैजाबाद ही नहीं रह गया {उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने उसे अयोध्या में बदल दिया}, जहां 1915 से 1920 तक आचार्य ने वकालत की थी, लेकिन फैजाबाद स्थित उनका जो घर अब उनका नहीं रह गया, उसका भी एक समृद्ध इतिहास है. 1939 में फैजाबाद में पुरुषोत्तमदास टंडन की अध्यक्षता में प्रतिष्ठापूर्ण प्रांतीय साहित्य सम्मेलन हुआ तो 15 नवम्बर की शाम यह घर सम्मेलन में आमंत्रित कवियों के काव्यपाठ के दौरान आचार्य से लम्बी चख-चख के बाद निराला द्वारा रात के कविसम्मेलन के बहिष्कार का गवाह बना था और 19 फरवरी, 1956 को आचार्य के निधन के बाद भी लोग उसे ‘आचार्य जी की कोठी’ ही जानते थे. बत्तीस कमरों और 101 दरवाजों व खिड़कियों वाली यह कोठी, जो 1934 से 1937 तक समाजवादी राजनीति का बड़ा केंद्र रही, आचार्य और और डाॅ. राममनोहर लोहिया के मिलन की गवाह भी बताई जाती है. एक समय समाजवादी राजनीति में उसकी वही जगह थी, जो कांग्रेस की राजनीति में इलाहाबाद के आनन्द भवन की. समाजवादी खेमे कभी-कभी उसमें आचार्य का स्मारक बनाने की मांग भी किया करते थे.

दिलचस्प यह कि आचार्य के इस घर का ही नहीं, उनके जीवन, यहां तक कि नाम का भी, ऐसे बदलावों से गुजरने का इतिहास है. उनका माता-पिता का दिया नाम अविनाशीलाल था, जिसे नामकरण संस्कार के वक्त नरेन्द्र देव में बदल दिया गया था. बाद में काशी विद्यापीठ में उनके अभिन्न रहे स्वतंत्रता सेनानी, राजनेता व साहित्यकार श्रीप्रकाश ने अपनी श्रद्धा निवेदित करने के लिए उन्हें आचार्य कहना शुरू किया तो वह आगे चलकर उनके व्यक्तित्व का पर्याय ही नहीं, नरेन्द्र देव का स्थानापन्न भी बन गया.

राजीव और संजय गांधी, नामाकरण और नरेंद्र देव

कम ही लोग जानते हैं कि 20 अगस्त, 1944 को श्रीमती इंदिरा गांधी पहली बार मां बनीं, तो समाजवादी आचार्य ने पं. नेहरू के अनुरोध पर उनके शिशु का नाम राजीव गांधी रखा. वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर बताते हैं कि वे दूसरी बार मां बनीं तो उनके दूसरे बेटे संजय का नामकरण भी आचार्य ने ही किया. लेकिन 1989 में इन्हीं राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री के तौर पर आचार्य की जन्मशती मनाने के प्रस्ताव को लेकर कोई उत्साह नहीं प्रदर्शित किया. उन्होंने प्रस्तावकों को शिक्षामंत्री शीला कौल के पास भेज दिया, जिन्होंने प्रस्तावकों से कह दिया कि बेहतर हो कि वे उत्तर प्रदेश सरकार से सम्पर्क कर लें.
यह तब था, जब स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान 1942 से 45 तक अहमदनगर किले में बंद रहे आचार्य ने उसी किले में बंद पं. जवाहरलाल नेहरू को ‘डिस्कवरी आफ इंडिया’ के लेखन में अपनी विद्वता का इतना ‘लाभ’ दिया था कि उन्होंने भूमिका में इसका उल्लेख किया. आचार्य ने अपना ‘अभिधर्मकोश’ भी इसी किले में पूरा किया, जिस पर उन्होंने 1932 में बनारस की जेल में रहते हुए काम शुरू किया था.

वकालत छोड़ आंदोलन में हुए शामिल

आजादी के बाद 1948 में उन्होंने कांग्रेस का नीतिगत विपक्ष निर्मित करने के उद्देश्य से उससे इस्तीफा दे दिया, साथ ही नैतिक आधार पर उत्तर प्रदेश विधानसभा की सदस्यता छोड़ दी, फिर उसी सीट से उपचुनाव लड़ा और हार गये तो नेहरू खासे व्यथित हुए थे. लेकिन शीला कौल की नजर में आचार्य प्रदेश स्तर के नेता थे. भले ही वे 1936 से ही देशवासियों से कहते आये हों कि हमारा काम ब्रिटिश साम्राज्य के शोषण के अंत मात्र से पूरा नहीं होने वाला. हमें जनता का शोषण करने वाले देसी शोषक वर्गों को भी काबू करके एक नयी शोषणमुक्त सभ्यता निर्मित करनी होगी.

1921 में असहयोग आंदोलन प्रारंभ हुआ तो आचार्य ने अपनी वकालत छोड़ दी थी. वे पहले लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में उनके क्रिया कलापों को गति प्रदान करने में लगे, फिर पंडित नेहरू और शिवप्रसाद गुप्त के बुलावे पर काशी विद्यापीठ चले गये. उनकी मानें तो वहां उनके जीवन का सबसे अच्छा हिस्सा व्यतीत हुआ, जिसमें पढ़ने-लिखने और राजनीति करने की अपनी दोनों मूल प्रवृत्तियों को उन्होंने एक साथ तुष्ट किया. समय के साथ देश ने उनका हिन्दी, संस्कृत, उर्दू, पाली, प्राकृत, बंगला, जर्मन, फ्रेंच और अंग्रेजी समेत कई विदेशी व भारतीय भाषाओं, दर्शनों, शास्त्रों व संस्कृतियों व इतिहास के ज्ञाता, व्याख्याकार और कई विश्वविद्यालयों के कुलपतियों का रूप भी देखा. इनमें बौद्ध धर्म व दर्शन का उनका अपनी तरह का अनूठा व अप्रतिम अध्ययन तो बेमिसाल है.

खराब स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने स्वतंत्रता संघर्ष में सक्रिय भागीदारी की और जेल यातनाएं सहीं. 1942 में वे इतने गम्भीर रूप से बीमार पड़े कि चिंतित गांधी जी को अपना मौनव्रत तोड़कर उनकी परवाह करनी पड़ी. फिर तो वे चार महीनों तक उनके आश्रम में ही रहे. कांग्रेस में और उसके बाहर रहते हुए आचार्य की राजनीतिक सक्रियताओं के आयाम कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से सोशलिस्ट पार्टी/प्रजा सोशलिस्ट पार्टी तक फैले हुए हैं. इनमें उल्लेखनीय यह कि गांधी जी से स्नेहसिक्त सम्बन्धों के बावजूद वे ‘गांधीवादी’ नहीं बने और कहा करते थे कि वे पार्टी छोड़ सकते हैं लेकिन मार्क्सवाद नहीं.


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लाल बहादुर शास्त्री और चंद्रेशेखर रहे हैं शिष्य

अलबत्ता, उनका मार्क्सवाद किसी पार्टीलाइन पर नहीं चलता था और न ही किसी अंधानुकरण का मोहताज था. वे भारतीय परिस्थितियों के मुताबिक उसके समन्वयात्मक स्वरूप के हिमायती थे. यही कारण है कि वे कभी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं बने. सर्वहारा के नाम पर किसी व्यक्ति या गुट की, वह मजदूरों का गुट ही क्यों न हो, तानाशाही उन्हें स्वीकार नहीं थी. न ही वे मजदूरों व किसानों की क्रांतिकारी शक्तियों के बीच कोई विरोध देखते थे. जैसे लोहिया को ‘पंचमढ़ी थीसिस’ वैसे आचार्य को उनकी ‘गया थीसिस’ के लिए भी जाना जाता है. देश के दो प्रधानमंत्री-लालबहादुर शास्त्री और चंद्रशेखर-एक समय उनके शिष्य हुआ करते थे.

राष्ट्रीयता और समाजवाद को वे अपने समय की मुख्य प्रेरणाएं मानते और समाजवाद को राष्ट्रीय आकांक्षाओं के अनुरूप ढालने पर पर जोर देते थे. भारतीय समाजवाद को राष्ट्रीयता और किसानों के सवाल से जोड़ने में आचार्य के योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता. उन्होंने समय समय पर ‘विद्यापीठ’ व ‘समाज’ त्रैमासिकों, ‘जनवाणी’ मासिक और ‘संघर्ष’ व ‘समाज’ साप्ताहिकों का संपादन किया. इनमें उनके जो लेख प्रकाशित हुए, उनके संग्रह हैं-‘राष्ट्रीयता और समाजवाद’, ‘समाजवाद: लक्ष्य तथा साधन’, ‘सोशलिस्ट पार्टी और मार्क्सवाद’, ‘भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास’, ‘युद्ध और भारत’, ‘किसानों का सवाल’ आदि.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

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