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Thursday, 28 March, 2024
होममत-विमतप्रतिरोध की परंपरा में अविस्मरणीय है गणेशशंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप’ का योगदान

प्रतिरोध की परंपरा में अविस्मरणीय है गणेशशंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप’ का योगदान

हिन्दी पत्रकारिता की जो परम्परा शुरू की गई, सच्चे मायनों में वह अन्यायी सत्ताओं के प्रतिरोध की ही रही है.

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कोलकाता में सक्रिय कानपुर के वकील पंडित जुगलकिशोर शुक्ला द्वारा 1826 में आज के ही दिन यानी 30 मई को बड़ा बाजार के पास स्थित 37, अमर तल्ला लेन, कोलूटोला {कोलकाता} से ‘हिन्दुस्तानियों के हित’ में साप्ताहिक ‘उदंत मार्तंड’ के प्रकाशन से हिन्दी पत्रकारिता की जो परम्परा शुरू की गई, सच्चे मायनों में वह अन्यायी सत्ताओं के प्रतिरोध की ही रही है.

देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम से तीन साल पहले 1854 में श्यामसुन्दर सेन द्वारा प्रकाशित व सम्पादित हिन्दी के पहले दैनिक ‘समाचार सुधा वर्षण’ ने प्रतिरोध की इस परम्परा को प्राण-प्रण से समृद्ध करना आरंभ किया तो खीझे हुए अंग्रेजों ने उस पर देशद्रोह का आरोप लगाकर अदालत में खींच लिया. लेकिन श्यामसुन्दर सेन ने हार माने अथवा माफी मांगे बगैर ऐसी कुशलता से अपना पक्ष रखा कि अंग्रेजों की अदालत ने ही देश पर अंग्रेजों के कब्जे को गैरकानूनी करार दे दिया और माना कि देश की सत्ता तो अभी भी वैधानिक या तकनीकी रूप से बहादुरशाह जफर में ही निहित है. देशद्रोही तो वास्तव में अंग्रेज हैं जो गैरकानूनी रूप से मुल्क पर काबिज हैं और उनके खिलाफ बादशाह का संदेश छापकर ‘समाचार सुधा वर्षण’ ने देशद्रोह नहीं किया बल्कि अपना कर्तव्य निभाया है.


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दरअसल, पहला स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ तो ‘समाचार सुधा वर्षण’ ने बहादुरशाह जफर के उस संदेश को खासी प्रमुखता से प्रकाशित किया था, जिसमें उन्होंने देष के हिन्दुओं और मुसलमानों से अपील की थी कि वे अपनी सबसे बड़ी नेमत आजादी के अपहर्ता अंग्रेजों को बलपूर्वक देश से बाहर निकालने का पवित्र कर्तव्य निभाने के लिए कुछ भी उठा न रखें.

आगे चलकर इस परंपरा का अलम अपनी तरह के अनूठे स्वतंत्रता सेनानी गणेशशंकर ‘विद्यार्थी’ द्वारा सम्पादित कानपुर के दैनिक ‘प्रताप’ के हाथ आया तो उसने भी गोरी सत्ता की आंखों की किरकिरी बनने में कुछ उठा नहीं रखा. स्वाभाविक ही उसे उनके हाथों क्रूर दमन का सामना करना पड़ा. लेकिन वह उसे उसके पथ से विचलित नहीं कर सका.

प्रसंगवश, अवध में अंग्रेजों और उनके ‘आज्ञाकारी’ तालुकेदारों के अत्याचारों से त्रस्त किसान 1920-21 में अचानक उग्र होकर हिंसक आन्दोलनों पर उतर आये तो गोरी सत्ता ने उनका तो बेरहमी से दमन किया ही, उनका पक्ष लेने वाले समाचारपत्रों और पत्रकारों को भी नहीं छोड़ा. इनमें अपनी खुली किसान पक्षधरता के कारण ‘प्रताप’ उनके कोप का कुछ ज्यादा ही शिकार हुआ. क्योंकि वह पूरी तरह देश की आजादी और किसानों के हितों को समर्पित था. उसका ध्येयवाक्य था- ‘दुश्मन की गोलियों का सामना हम करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे.’ तिस पर उसकी सम्पादकीय नीति अंगे्रजों को इतनी भी गुंजायश नहीं देती थी कि वे आजादी के लिए महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांगे्रस द्वारा चलाये जा रहे अहिंसक और चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में क्रांतिकारियों द्वारा संचालित सशस्त्र अभियानों के अंतर्विरोधों का किंचित लाभ उठा सकें. उसमें इन दोनों ही तरह के अभियानों का लगभग एक जैसा समर्थन और सम्मान किया जाता था.

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अंग्रेजों की सेना और पुलिस ने सात जनवरी, 1921 को अपने नेताओं की गिरफ्तारी का विरोध कर रहे किसानों को रायबरेली शहर के मुंशीगंज में सई नदी पर बने पुल पर रोका और गोलियां चलाकर बेरहमी से भून डाला, तो प्रताप पहला ऐसा पत्र था, जिसने उसे ‘एक और जलियांवाला’ की संज्ञा दी.

उन दिनों के हालात में किसी भी पत्र के लिए यह अपने विनाश को आमंत्रित करने जैसा था. यह जानते हुए भी ‘प्रताप’ के सम्पादक गणेशशंकर विद्यार्थी ने उसके 13 जनवरी, 2021 के अंक में ‘डायर शाही और ओ डायरशाही’ शीर्षक अग्रलेख लिखा, तो अंग्रेज न सिर्फ तिलमिला गये, बल्कि बदला लेने पर उतर आये. उतरते भी क्यों नहीं, विद्यार्थी ने लिखा था, ‘ड्यूक आफ कनाट के आगमन के साथ ही अवध में जलियांवाला बाग जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति शुरू हो गयी है, जिसमें जनता को कुछ भी न समझते हुए न सिर्फ उसके अधिकारों और आत्मा को अत्यंत निरंकुशता के साथ पैरों तले रौंदा बल्कि उसकी मान-मर्यादा का भी विध्वंस किया जा रहा है. डायर ने जलियांवाला बाग में जो कुछ भी किया था, रायबरेली के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ने मुंशीगंज में उससे कुछ कम नहीं किया. वहां एक घिरा हुआ बाग था और यहां सई नदी का किनारा और क्रूरता, निर्दयता और पशुता की मात्रा में किसी प्रकार की कमी नहीं थी.’

यही नहीं, ‘प्रताप’ ने रायबरेली के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ए. जी. शेरिफ के चहेते एमएलसी और खुरेहटी के तालुकेदार वीरपाल सिंह की, जिसने मुंशीगंज में किसानों पर फायरिंग की शुरुआत की थी, ‘कीर्तिकथा’ छापते हुए उसे ‘डायर का भाई’ बताया और यह जोड़ना भी नहीं भूला कि ‘देश के दुर्भाग्य से इस भारतीय ने ही सर्वाधिक गोलियां चलाईं.’ फिर तो अंग्रेजों ने वीरपाल सिंह को मोहरा बनाकर ‘प्रताप’ के सम्पादक व मुद्रक को मानहानि का नोटिस भिजवाया और उनके क्षमायाचना न करने पर रायबरेली के सर्किट मजिस्ट्रेट की अदालत में मुकदमा दायर करा दिया.

इस मुकदमे में सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यासकार और अधिवक्ता वृंदावनलाल वर्मा ने ‘प्रताप’ की पैरवी की. उन्होंने 65 गवाह पेश कराये, जिनमें राष्ट्रीय नेताओं मोतीलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू और विश्वंभरनाथ त्रिपाठी आदि के अलावा किसान और महिलाएं थीं. रायबरेली के कई डाॅक्टरों, वकीलों और म्युनिसिपल कमिश्नरों ने भी ‘प्रताप’ की खबरों और विश्लेषणों की सच्चाई की पुष्टि की.


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बाद में जिरह में गणेशशंकर विद्यार्थी ने खुद भी मजबूती से अपना पक्ष रखा और लिखित उत्तर में कहा कि उन्होंने जो कुछ भी छापा, वह जनहित में था और उसके पीछे सम्पादक या लेखक का कोई खराब विचार नहीं था. यहां तक कि वे वीरपाल को व्यक्तिगत रूप से जानते तक नहीं थे. 22 मार्च, 1921 को अपनी बहस में वृन्दावनलाल वर्मा ने भी उनका जोरदार बचाव किया.

इस सबके बावजूद 30 जुलाई, 1921 को अव्वल दर्जा मजिस्ट्रेट मकसूद अली खां ने प्रताप के सम्पादक व मुद्रक दोनों को एक-एक हजार रुपये के जुर्माने और छः-छः महीने की कैद की सजा सुना दी. लेकिन न ‘प्रताप’ ने अपना रास्ता बदला, न ही गणेशशंकर विद्यार्थी ने. जानना दिलचस्प है कि अपने सम्पादनकाल में विद्यार्थी जी ने पांच बार जेलयात्राएं कीं और ‘प्रताप’ सेे बार-बार जमानत मांगी गई.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)

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