बिहार में नीतीश कुमार-बीजेपी सरकार के गिरने और नीतीश कुमार-बाकी सब की सरकार के शपथ-ग्रहण के हर्षोल्लास के बीच तीन बातों पर अभी भी जोर देने की दरकार है.
एक: यह कोई सेकुलरवाद की बड़ी जीत नहीं है. नीतीश के साथियों ने यह जाहिर किया है कि वे बीजेपी की विभाजनकारी राजनीति से गहरे परेशान थे. वाकई? क्या वे इन तमाम वर्षों में सो रहे थे? क्या वे जगे और देखा कि विभाजनकारी राजनीति तभी सिर उठाने लगी, जब बीजेपी ने उनकी पार्टी जेडी(यू) को तोड़ने की कोशिश की? हमारे सामने ऐसे मुकाम पहले भी आए हैं. जब नरेंद्र मोदी का बीजेपी में उभार हो रहा था, नीतीश ने जाहिर किया कि मूलरूप से सेकुलर व्यक्ति होने के नाते (यह अलग बात है कि वे बीजेपी के साथ थे) वे मोदी से दूरी रखेंगे. जब उन्होंने 2015 में बिहार चुनाव जीतने के लिए आरजेडी और बाकियों से हाथ मिलाया, तो उन्होंने बताया कि वे मोदी की अगुआई वाली बीजेपी की सांप्रदायिक राजनीति से खौफजदा थे, इसलिए यह कदम उठाया.
लेकिन सहयोगियों से जैसे ही खट-पट हुई, नीतीश फौरन यह सब भूल गए और 2017 में अपना मुख्यमंत्री का पद बचाए रखने के लिए मोदी के पाले में लौट गए. जब राजनीति ने कुछ और सांप्रदायिक राह पकड़ी तो वे उसे अनदेखा करके उसी नरेंद्र मोदी के साथ 2020 में बिहार चुनाव लड़े, जिन्हें एक वक्त वे खारिज कर चुके थे.
नीतीश कुमार के लिए सेकूलरवाद सुविधा के झंडे से ज्यादा कुछ नहीं है.
सभी नागरिकों के लिए एक समान अधिकार वाले बहुलतावादी, विविधता वाले भारत के विचार को खतरा सिर्फ इससे नहीं है कि उत्तर भारत में हिंदुत्व दबदबे वाली विचारधारा है, बल्कि नीतीश जैसे नेताओं के अक्सर ढुलमुल रवैये से है, जो सेकुलरवाद से प्रेरित होने का दावा करते हैं. हर बार जब कोई अवसरवादी नेता अपने खोखले सेकुलर मान्यताओं का दम भरता है, वह भारत के बुनियादी विचार को वोटरों की आंखों में गिरा रहा होता है.
इसलिए नहीं, यह सेकुलरवाद की जीत नहीं है. यह एक घाघ नेता की महज नई कलाबाजी है, जो इतनी दफा पाला बदल चुका है कि वह जरूर सुबह उठकर याद करने की कोशिश करता होगा कि आज उसका सहयोगी कौन है.
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सहयोगियों की समस्या
दो: सेकुलरवाद से तो मामूली ही लेना-देना है, मगर बिहार में नई तालमेल हमें याद दिलाती है कि क्यों बीजेपी की सहयोगियों के साथ समस्या है. महज दो दशक में पार्टी का भाग्य नाटकीय रूप से बदला है. 1996 में जब वह लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी थी, वह स्थायी सरकार नहीं बना सकी थी क्योंकि दूसर पार्टियां उसे दूर ही रखना चाहती थीं. उसने 1999 में सरकार बनाई तो सहयोगियों में एक जयललिता की एआईएडीएमके ने अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को गिरा दिया था. जब फिर वाजपेयी सत्ता में आए तो उन्होंने सहयोगियों को खुश रखने की सावधानी बरती.
बीजेपी का वह अवतार सहयोगियों के प्रति दोस्ताना और साथ लेकर चलने वाला था. वाजपेयी ने कभी अपने जीवनकाल में सरकार बनाने की उम्मीद नहीं की थी (जब पहली दफा उन्हें राष्ट्रपति ने चिट्ठी सौंपी तो इतने भावुक हो गए कि उनकी आंखें गीली हो गईं). इसलिए वे सहयोगियों के एहसानमंद थे, जिन्होंने यह संभव बनाया था.
दूसरी तरफ, मोदी की बीजेपी खुद को सरकार बनाने की स्वाभाविक पार्टी मानती है. वह मानती है कि उसे सरकार चलाने के लिए किसी की जरूरत नहीं है, इसलिए अपने सहयोगियों का सम्मान करने की कोई वजह नहीं देखती. आखिरकार पार्टी लगातार दो बार राष्ट्रीय जनादेश हासिल कर चुकी है और मोदी देश के सबसे लोकप्रिय नेता बने हुए हैं. यह सब सही हो सकता है, कम से कम फिलहाल के लिए, मगर मोदी और अमित शाह (पूर्व बीजेपी अध्यक्ष तथा वर्तमान केंद्रीय गृह मंत्री) इसे और आगे ले गए हैं. बीजेपी के पहले कार्यकाल में, शाह ने कहा था कि वे ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ बनाना चाहते हैं. जब कांग्रेस लगभग बिछ गई और धराशायी हो गई, दो राष्ट्रीय चुनाव और राज्य-दर-राज्य हारने लगी, तो मोदी-शाह ऐसे पेश आने लगे, मानो यह दूसरी पार्टियों के लिए भी सबक होना चाहिए: जैसा कहते हैं करो या टूटने को तैयार हो जाओ.
महाराष्ट्र का मामला लें. बीजेपी-शिवसेना गठजोड़ मुख्यमंत्री के पद के सवाल पर टूट गया. उद्धव ठाकरे चाहते थे कि बीजेपी और शिवसेना बार-बारी से सरकार की अगुआई करें. यह मांग आसानी से मानी जा सकती थी. लेकिन अमित शाह ने कहा कि नहीं, जिससे गठजोड़ टूट गया.
बाद में, बीजेपी ने उद्धव के विधायकों को धमकियों और प्रलोभनों से अपनी ओर करके उन्हें दंडित किया और उनकी गठजोड़ सरकार गिरा दी. इस ऑपरेशन के तहत शिवसेना के बागी नेता एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाया गया, अपने देवेंद्र फडणनवीस को नहीं. तो, क्या यह फायदे का सौदा था? क्या शुरू में उद्धव की शर्तें मानना बेहतर नहीं होता? नहीं, सहयोगियों को वही करना होगा, जो बीजेपी चाहती है. और शिंदे को मुख्यमंत्री बनाना भी कोई कमजोरी का लक्षण नहीं है. बीजेपी का ख्याल है कि कुर्सी मिलने के बाद शिंदे अपने बागी गुट को असली शिवसेना बना सकते हैं और ठाकरे परिवार को हमेशा के लिए खत्म कर सकते हैं. उद्धव की सजा जारी है.
जहां तक राजनैतिक शैली का सवाल है, यह सिर्फ वाजपेयी-आडवाणी कार्यशैली से ही एकदम अलग नहीं है, बल्कि भारत के इतिहास में किसी भी राष्ट्र्रीय पार्टी की कार्यशौली के बिलकुल उलट है. बीजेपी का यह अवतार ऐसा भारत चाहता है, जिसमें हर पार्टी बीजेपी के आगे शरणागत न हो तो उसे खत्म हो जाना होगा. और, अगर वह शरणागत हो भी जाए, जैसा कि बिहार में नीतीश कुमार की जेडीयू थी, बीजेपी किसी भी सूरत में उसे बर्बाद करने की कोशिश कर सकती है.
बीजेपी छोड़ेगी नहीं
और आखिर में: बिहार प्रकरण पर हंसी-खुशी थोड़े समय की ही हो सकती है. बीजेपी इस अपमान को भूलेगी नहीं. वह यथासंभव बिहार के नए गठजोड़ का जीना मुहाल कर देगी. उसे बस अपने दावे को मजबूत करना होगा कि आरजेडी भ्रष्ट है, इसलिए ईडी/सीबीआई के ज्यादा छापे और ज्यादा मुकदमों की उम्मीद कीजिए, क्योंकि जांच एजेंसियों को दौड़ा दिया गया है. मेरा अनुमान है कि उन्हें ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी. आखिर बिहार साफ-सुथरी सरकार का स्वर्ग थोड़े ही है.
नरेंद्र मादी और अमित शाह यह संदेश देना नहीं सह सकते कि कोई सहयोगी उनकी अवमानना करे और फले-फूले. उन्हें उद्धव ठाकरे को सबक सिखाने में तीन साल लगे लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. आखिर में वे कामयाब हुए. इसलिए नीतीश कुमार चाहे जितनी कलाबाजी दिखाएं, रास्ता आसान नहीं है.
(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)
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