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Saturday, 2 November, 2024
होममत-विमतबिहारी कोई भाषा नहीं बल्कि एक पहचान है, और हां, इस घालमेल के लिए अंग्रेजों को दोष दिया जा सकता है

बिहारी कोई भाषा नहीं बल्कि एक पहचान है, और हां, इस घालमेल के लिए अंग्रेजों को दोष दिया जा सकता है

दूसरे राज्यों में जा बसे बिहारियों को औपनिवेशिक नामकरण महत्वहीन/निरर्थक लगता है या वे इस स्थापित चलन का प्रतिवाद करने की हिम्मत नहीं कर पाते.

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बिहार के बाहर कई लोग यही मान कर चलते हैं कि बिहारी यानी बिहार के लोग या तो भोजपुरी बोलते हैं या ‘बिहारी’ और ये दोनों ही भाषाएं हिंदी का एक बिगड़ा हुआ रूप हैं. ‘बिहारी’ को प्रायः भोजपुरी का पर्याय भी मान लिया जाता है.

लेकिन सच तो यह है कि बिहारी लोग ‘बिहारी’ नहीं बोलते क्योंकि यह कोई भाषा नहीं है बल्कि एक भौगोलिक पहचान है. जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन नाम के एक आइरिश ने भारत का पहला ‘आधुनिक’ भाषायी सर्वेक्षण करते हुए बिहार की सभी भाषाओं को एक वर्ग में रखकर बिहारी भाषा नाम दे दिया था. यही वजह है कि उस भौगोलिक क्षेत्र में प्रयुक्त भोजपुरी, मैथिली, मगही, अंगिका, बज्जिका आदि सभी भाषाओं को बिहारी भाषा कहा जाने लगा.

बाद के वर्षों में भारत सरकार ने बिहारी बोलियों को कई जनगणनाओं में अधिकृत तौर पर हिंदी की बोलियों में गिनना शुरू कर दिया. इस प्रकार, ग्रियर्सन के वर्गीकरण और बिहार की भाषाओं की सरकारी जनगणना के कारण बिहारी भाषाएं, बिहारी हिंदी, अथवा केवल बिहारी जैसी अभिव्यक्तियां अस्तित्व में आईं. ‘बिहारी भाषाएं’ एक अकादमिक शब्द है जो मुख्य रूप से बिहार की समस्त भाषाओं का प्रतिनिधित्व करती है. बिहारी हिंदी, इस संदर्भ में, मैथिली को छोड़कर, हिंदी की बोलियों के रूप में बिहार की भाषाओं के सरकार के वर्गीकरण का परिणाम है. दूसरी ओर, शेष भारत के लिए बिहारी एक सामान्य, गैर-अकादमिक शब्द है, जो बिहार की किसी भी या सभी भाषाओं के लिए प्रयोग में लाया जाता है.

विडंबना यह है कि जो बिहारी देश के दूसरे हिस्सों में जाकर नहीं बसे उन्हें यह नहीं पता है कि वे जो भाषा बोलते हैं उसे एक अलग नाम दिया गया है- ‘बिहारी’, जो कि उनकी भाषा के पारंपरिक नाम से अलग है. जो लोग दूसरे राज्यों में जाकर बस गए हैं उन्हें या तो यह औपनिवेशिक नामकरण महत्वहीन/निरर्थक लगता है या वे इस स्थापित चलन का प्रतिवाद करने की हिम्मत नहीं कर पाते.

भारतीय संविधान बिहार की केवल एक भाषा- मैथिली को मान्यता देता है, वह भी इसमें 2003 में किए गए 92वें संशोधन के बाद. भोजपुरी को एक बोली के तौर पर मान्यता दी गई है. हालांकि एक भाषाविद के लिए भाषा और बोली के बीच का अंतर विवादास्पद है. भाषा और बोली के बीच का यह कृत्रिम भेद भाषायी से ज्यादा राजनीतिक मामला है. चूंकि हरेक ‘बोली’ भाषा के बुनियादी मानदंडों पर भी फिट बैठती है, इसलिए उसे आसानी से भाषा कहा जा सकता है. इसलिए इस लेख में भोजपुरी समेत किसी भी भाषायी व्यवस्था को बोली नहीं, भाषा ही कहा गया है.


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‘हिन्दी का दूसरा रूप’ नहीं

भोजपुरी के साथ यह गलतफहमी जुड़ी हुई है कि वह तो ‘हिंदी का ही एक रूप’ है. इस गलतफहमी के चलते ऐसी स्थिति बन जाती है कि प्रमाणिकता को विरूपण मान लिया जाता है और इस तरह वह उपहास का कारण बन जाता है.

तालव्य व्यंजन ‘श’ का उच्चारण बिहारी जीभ के लिए एक दुःस्वप्न जैसा है और बोलने वाला इसका उच्चारण दंतव्य व्यंजन ‘स’ करता है. मातृभाषा के रूप में अपनाई गई भाषा के आधार पर यह जो परिवर्तन स्वतः हो जाता है वह श्रोता को तो काफी मज़ाकिया लगता है मगर वक्ता के लिए, जो और कोई नहीं बल्कि बिहारी होता है, हमेशा के लिए शर्म का कारण बन जाता है.

भोजपुरी में बोला गया सरल वाक्य भी उन अज्ञानी और शिक्षित भारतीयों के चेहरे पर मुस्कराहट ला देता है, जो न तो भोजपुरी समझते हैं और न बोलते हैं. और संयोग से यदि कोई बिहारी ठेठ बिहारी लहजे में नहीं बोलता है तो उसके साथी उसे यह एहसास दिलाना कभी नहीं भूलते कि उसे तो उस खास बिहारी लहजे में ही बोलना चाहिए. इसके साथ ही भाषा को लेकर मेरे जैसे सजग बिहारी (हालांकि मैं अक्सर अतिसुधार करता हूं) को यह सुनना पड़ता है कि ‘तुम तो बिहारी जैसे बोलते अथवा दिखते नहीं हो’. आश्चर्य की बात यह है कि मैं अभी तक यह फैसला नहीं कर पाया हूं कि इसे अपनी प्रशंसा समझूं या अपने ऊपर कटाक्ष.

ऐसा इसलिए है कि बिहारियों के उच्चारण पर उनके आंचलकिता का प्रभाव रहता है, जो कि हिंदी की ध्वन्यात्मकता की तुलना में अमानक प्रतीत होता है. वैसे, भोजपुरी स्वयं में एक अलग भाषायी व्यवस्था है. इसकी अपनी एक ध्वनी व्यवस्था है, जो विशिष्ट ध्वनीगुच्छ नियमों के माध्यम से विभिन्न भोजपुरी शब्दों को अनूठे स्वरूप प्रदान करती है. साधारण शब्दों में कहें तो हिन्दी भाषा की तुलना में भोजपुरी में महाप्राण ध्वनियां अधिक हैं, जो आम हिंदी शब्दों के ‘मानक’ उच्चारण को प्रभावित करती हैं.

उदाहरण के लिए, मानक हिंदी ‘ल’, ‘म’, या ‘न’ के महाप्राण रूपों को स्वनिम (उच्चारित ध्वनि की सबसे छोटी इकाई) के रूप में स्वीकार नहीं करती जबकि भोजपुरी में ‘ल्ह’, ‘म्ह’, ‘न्ह’ ध्वनियां अर्थ व्यतिरेक उत्पन्न करने की क्षमता रखती हैं, न की ये सहस्वन अथवा संयुक्त व्यंजन हैं.

इसलिए हिन्दी के इस ‘गैर मानक’ स्वरूप की यह धारणा कुछ और नहीं बल्कि एक भ्रांति है. इसके अलावा, अपनी सीमित शारीरिक क्षमता के कारण हम उन भाषाओं के स्वनिमों को मूल भाषी के रूप में उच्चरित नहीं कर पाते, जो हमारी मातृभाषा के स्वनिम नहीं हैं. उदाहरण के लिए हम भारतीय लोग ठेठ अंग्रेजों की तरह अंग्रेजी नहीं बोल पाते क्योंकि हमारी जो मूल भाषा के स्वनिम हैं वे अंग्रेजी के शब्दों के उच्चारण को प्रभावित करती हैं. इस प्रकार, एक भोजपुरी बोलने
वाला पहले ही एक अलग ध्वन्यात्मक प्रणाली को अपना चुका होता है और जिसका प्रभाव यदि हिन्दी बोलते समय सजग होकर रोका नहीं गया तो वह हिन्दी ध्वनियों की अभिव्यक्ति को प्रभावित करता रहेगा.


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बिहारी पहचान का भोजपुरीकरण

बिहारी लोग भोजपुरी के अलावा मैथिली, मगही, अंगिका, बज्जिका आदि भी बोलते हैं. जब झारखंड अलग नहीं हुआ था तब कुरुख, मुंडरी, हो, संथाली जैसी समृद्ध आदिवासी भाषाएं भी इस भौगोलिक क्षेत्र का हिस्सा थीं. मैं इन भाषाओं को बिहार की ही भाषा मानता हूं. यह निजी पसंद है, इसका भू-राजनीति से कोई मतलब नहीं है.

अगर थोड़ा ध्यान देकर सुना जाए तो भोजपुरी या मैथिली या मगही भाषी के हिंदी उच्चारण में ध्वन्यात्मक अंतर को साफ पहचाना जा सकता है. लेकिन गैर-बिहारी शिक्षित भारतीयों ने बिहारी पहचान को केवल भोजपुरी से जोड़ दिया है जबकि वास्तव में बिहारी की कोई एक समरूप पहचान नहीं है. इस पहचान के अंदर कई विभिन्ना उप-पहचान उपस्थित हैं जो विशिष्ट भाषाई विशेषताओं के साथ चिह्नित हैं.

उदाहरण के लिए, मैथिली भाषी बिहारी को मैथिल बिहारी, मगही भाषी को मगह बिहारी, या भोजपुरी भाषी को भोजपुरिया बिहारी कहा जाता है. ये उप-पहचान अपने-अपने विशिष्ट पहनावों, खानपान या चित्रकारी शैली में निहित हैं. अलग-अलग क्षेत्र में सम्मानित ऐतिहासिक विभूतियां भी अलग-अलग हैं.

उदाहरण के लिए मिथिला के लोग मध्ययुग के बहुभाषी कवि विद्यापति को विशेष सम्मान देते हैं, तो भोजपुर वाले 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के नायक बाबू कुंवर सिंह को बहुत महत्व देते हैं. इसके अलावा, रस्मो-रिवाज काफी मिलते-जुलते तो हैं मगर व्यवहार में उनमें अलग-अलग क्षेत्र के हिसाब से विशिष्टता बरती जाती है.

बहरहाल, हिंदी फिल्मों या टीवी धारावाहिकों में भोजपुरी के साथ ही उपहासपूर्ण व्यवहार किया जाता है क्योंकि उनका मानना है कि बिहारी लोग केवल भोजपुरी बोलते हैं. इस कारण, सिद्धांततः, भोजपुरिया बिहारी पहचान ही गहरे संकट में है और इस पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है.

(लेखक भाषाविज्ञान के असिस्टेंट प्रोफेसर और मेघालय स्थित केंद्रीय हिन्दी संस्थान (शिलांग केंद्र) के क्षेत्रीय निदेशक हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @ikrishna_pandey. व्यक्त विचार निजी है)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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