चुनावी राज्य उत्तर प्रदेश में छोटी-छोटी राजनीतिक पार्टियों की बाढ़ सी आ गई है, जिनमें से अधिकतर समाजवादी पार्टी (एसपी) से हाथ मिला रही हैं. ऐसी दलील दी जा रही है कि इन गठबंधनों ने एसपी को, सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी का एक प्रमुख प्रतियोगी बना दिया है.
मैं संक्षेप में राज्य में इन पार्टियों के उदय, इनके मूल सामाजिक आधार, और लोकतंत्र के लिए इनके परिणामों पर नज़र डालता हूं.
वोटर आधार…
उत्तर प्रदेश विधान सभा के 1951 से 2017 के बीच के चुनावी नतीजों के विश्लेषण से पता चलता है, कि 2002 के चुनावों के बाद से, पंजीकृत ग़ैर-मान्यता प्राप्त राजनीतिक पार्टियों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है. ये वो पार्टियां हैं जो विधानसभा चुनाव में प्रदेश स्तर की पार्टी होने के लिए ज़रूरी न्यूनतम वोट हासिल नहीं कर पातीं. उत्तर प्रदेश में उदय हो रही अधिकांश ऐसी राजनीतिक पार्टियां, भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा परिभाषित इसी प्रशासनिक कैटेगरी में आती हैं.
पंजीकृत ग़ैर-मान्यता प्राप्त राजनीतिक पार्टियों के कुल मतदान प्रतिशत से पता चलता है, कि 1991 के चुनावों को छोड़कर, 1989 के बाद से इस तरह की राजनीतिक पार्टियां अच्छा ख़ासा वोट शेयर हासिल करने में कामयाब रही हैं.
छोटी पार्टियों का सामाजिक आधार
मीडिया की ख़बरों के अनुसार, एक दर्जन से अधिक पंजीकृत ग़ैर-मान्यता प्राप्त राजनीतिक पार्टियां, गठबंधनों का हिस्सा बन गईं हैं. इन पार्टियों में सहेलदेव राजभर भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी), अपना दल, अपना दल (एस), निषाद पार्टी, महान दल, जन अधिकार पार्टी, जनवादी पार्टी (समाजवादी), आज़ाद समाज पार्टी, भागीदारी पार्टी, भारतीय वंचित समाज पार्टी, भारतीय मानव समाज पार्टी, जनता क्रांति पार्टी, राष्ट्रीय उदय पार्टी, विकासशील इंसान पार्टी, क़ौमी एकता दल, और पीस पार्टी के साथ और कई पार्टियां शामिल हैं.
इन छोटी पार्टियों के नेतृत्व के सामाजिक प्रोफाइल से पता चलता है, कि इनमें से एक अच्छी बड़ी संख्या का आधार उत्तर प्रदेश की सबसे अतिपिछड़ी जातियों (MBCs) में है. अति पिछड़ी जातियां, अन्य पिछड़े वर्गों (OBCs) के अंदर हासिए पर रह रही जातियां/ समुदाय हैं. इनमें से कुछ एससी दर्जे और ओबीसी आरक्षण के उप-वर्गीकरण की मांग करती आ रहे हैं .
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इनका उदय कैसे हुआ
उत्तर प्रदेश में छोटी-छोटी पार्टियों के उदय के चार प्रमुख कारण हैं: (1) पुरानी पार्टियों का विखंडन, (2) मौजूदा पार्टियों में नेतृत्व परिवर्तन, (3) जातियों के बीच बढ़ती असामानता, और (4) जातियों का नस्लीकरण.
उपरोक्त ग्राफ बताता है कि उत्तर प्रदेश में छोटी-छोटी पार्टियों की संख्या 1989 के चुनाव से बढ़नी शुरू हुई. दरअसल यह वह समय था जब देश की दो प्रमुख पार्टियों- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और जनता पार्टी/दल के अंदर विखंडन शुरू हुआ. इसलिए, बहुत सी छोटी-छोटी पार्टियां जो 1989 के बाद सामने आईं, उनका ताल्लुक़ जनता परिवार या कांग्रेस से है. बाद में उनमें से कुछ का बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी), समाजवादी पार्टी (एसपी), और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) में विलय हो गया. लेकिन, पिछले दो दशकों में बीएसपी और एसपी दोनों, नेतृत्व परिवर्तन से होकर गुज़री हैं. जिसकी वजह से इनकी चुनावी रणनीतियों भी बदली हैं, और संगठन के अंदर राजनीतिक निष्ठाएं टूटी हैं. दोनों पार्टियों से ऐसे तमाम नेता निकाल/निकाले गए, जिन्होंने अपना ख़ुद का संगठन बना लिया. इसके अलावा, इन पार्टियों ने अपना ध्यान ऐसे उम्मीदवारों को नामांकित करने पर लगाया है, जिनके जीतने की संभावना सबसे अधिक होती है. इस नज़रिए ने नए उभरे हुए नेतृत्व के उम्मीदवार नामांकित होने की संभावनाओं को समाप्त कर दिया है. इसलिए किसी स्थापित पार्टी में शामिल होने की बजाय, नए नेतृत्व की रणनीति ये होती है कि नए सिरे से एक राजनीतिक संगठन बनाएं, और फिर उन स्थापित पार्टियों के साथ गठबंधन करें.
अति पिछड़ी जातियां जहां से अधिकतर छोटी-छोटी पार्टियां निकल रहीं हैं, उनकी आम शिकायत है कि आरक्षण तथा अन्य विकास की नीतियों के लाभ से ये छूट जा रहीं हैं. अपनी ख़ुद की राजनीतिक पार्टियों के ज़रिए, ये जातियां/ समुदाय अपने मुद्दों को मुख्यधारा में लाने की कोशिश कर रहे हैं, जोकि स्थापित पार्टियों में संभव नहीं हो पा रहा है.
जातियों का नस्लीकरण (Ethnicization) एक अन्य महत्वपूर्ण और अपरिहार्य कारक है, जिसकी वजह से ख़ासकर अतिपिछड़ी जातियों में में छोटी-छोटी पार्टियों का उदय हो रहा है. नस्लीकरण एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें कोई भी जाति या समुदाय स्वायत्त बन जाता है. दक्षिण की राजनीति की व्याख्या करने के लिए समाज विज्ञानियों ने इस सामाजिक प्रक्रिया का व्यापक रूप से इस्तेमाल किया है. लेकिन उत्तर की राजनीति को व्यापक रूप से संस्कृतीकरण के चश्मे से देखा जाता है. राजनीतिक मानव विज्ञानी लूसिया मैक्लवीथ को उत्तर प्रदेश की यादव जाति के अध्ययन में नस्लीकरण की प्रक्रिया के मज़बूत साक्ष्य मिल चुके हैं.
नस्लीकरण की इस जारी प्रक्रिया में उत्तर प्रदेश के अति पिछड़ी जातियां अपनी सामाजिक हैसियत सुधारने के लिए, मिथक और अफसाने बनाकर अपने अतीत को फिर से गढ़ रहे हैं. राजा सुहेलदेव राजभर की फिर से खोज, इसी सामाजिक प्रक्रिया का हिस्सा है. जब किसी जाति का एलीट वर्ग इस विचार को सफलतापूर्वक स्थापित कर लेता है, कि उनकी जाति/समुदाय की सामाजिक हैसियत अतीत में बेहतर थी, जब उनके राजा-रानियों का राज था, तो वह जाति/समुदाय यह सोचने लगता है कि भविष्य में उनकी सामाजिक स्थिति तभी बेहतर हो पाएगी, जब उनके अपने राजा-रानी फिर से अवतरित होंगे. यह समझ आम लोगों को अपनी जाति के राजनेताओं को अपनी ‘जाति का राजा-रानी’ के रूप में देखने को प्रेरित करता है.
मुलायम सिंह यादव और मायावती जैसे नेताओं का प्रारंभिक उदय इसी तरीक़े से हुआ, जब यादवों तथा जाटवों ने अपने इन नेताओं को क्रमश: राजा और रानी का दर्जा दे दिया. अति पिछड़ी जातियां भी अब इसी प्रक्रिया को दोहराने की कोशिश कर रहे हैं. मुझे उत्तर प्रदेश में अपने दो दौर के फील्ड वर्क यह तथ्य व्यापक रूप में पता चला है. अतः, अति पिछड़ी जातियों के बीच छोटी-छोटी पार्टियों के उदय को, ‘जातियों के राजा-रानी’ के उदय के तथ्य के ज़रिए समझा जा सकता है.
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परिणाम
छोटी-छोटी पार्टियों की राजनीति में भूमिका का ठीक से विश्लेषण अब तक नहीं हो पाया है क्यों कि उनमें से बहुत सी पार्टियां एक चुनाव के बाद ख़त्म हो जाती हैं. ऐसी पार्टियों के ऊपर कम ध्यान दिए जाने का एक और कारण ये है, कि उनके चुनावों पर प्रभाव डालने की संभावना कम रहती है. लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि ये इकाइयां चुनावी परिणामों को प्रभावित नहीं करतीं.
ऐसी पार्टियां पर चुनावी परिणामों पर तीन संभावित प्रभाव डाल सकती हैं.
पहला, सत्ताधारी पार्टियों के खिलाफ आम लोगों के बीच असंतोष की भावना पैदा करने में, ये एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं. प्रमुख विपक्षी राजनीतिक पार्टियों को अकसर अपने पारंपरिक वोट बेस से बाहर जाकर, मतदाताओं को लामबंद करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. छोटी पार्टियां इस मामले में सहायक साबित होती हैं. छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन प्रमुख पार्टियों के लिए उनका वोट शेयर बढ़ाने, और ऐसी स्थिति में जीत दिलाने में मदद करता है जहां जीत का अंतर बहुत कम रहा होता हो.
जाति-आधारित छोटी पार्टियों के उदय से, मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों को उस जाति विशेष के उम्मीदवार को ज्यादा संख्या में नामांकित करने से राहत मिल जाती है. इससे पार्टियां दूसरी जातियों के उम्मीदवारों के ज्यादा नामांकन की गुंजाइश हो जाती है, जिन्हें बहुत कम प्रतिनिधित्व मिला होता है.
अरविन्द कुमार (@arvind_kumar), पीएचडी स्कॉलर, राजनीति व अंतरराष्ट्रीय संबंध विभाग, रॉयल हॉलोवे, लंदन यूनिवर्सिटी. व्यक्त विचार निजी हैं.
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