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Friday, 1 November, 2024
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कश्मीर के पहाड़ी समुदाय के लिए आरक्षण का मकसद उनकी मदद करना है, लेकिन इससे नई आग भड़क सकती है

फील्डवर्क ने दिखाया है कि पहाड़ी और गुर्जर कैसे गहराई से एक-दूसरे से जुड़े हैं, यहां तक कि उनका राजनीतिक नेतृत्व भी उनमें ठीक से अंतर नहीं कर पाता है.

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बादशाह नूर-उद-दीन मुहम्मद सलीम जहांगीर ने दर्ज किया था, ‘दुनियाभर को जीवन देने वाले सूर्य ने शुक्रवार को अपनी दिशा बदलकर मेष राशि में प्रवेश किया है. वसंत आते ही कश्मीर खिल उठा है. पेड़ों पर खिली सुगंधित कलियां अपने महबूब की बाहों में बंधी किसी ताबीज जैसी नजर आती हैं और कोयल की कूक के बीच मदहोश कर देने वाला माहौल शराब पीने वालों की इच्छा को और बढ़ा देता है.’

‘अल्लाह के इस बंदे के शासन का पंद्रहवां वर्ष खुशियों के साथ शुरू हुआ है.’

1620 ईसवी में उस वर्ष की शुरुआत में कश्मीर में शाही अवकाश के आसार नहीं बन पा रहे थे. किंग्डम ऑफ किश्तवाड़—जो पंजाब की परिधि में पर्वतों से घिरा एक अर्ध-स्वतंत्र हिस्सा था और मुगलिया सुरक्षा व्यवस्था के लिहाज से बेहद अहम था—में विद्रोह भड़क उठा था. यहां कश्मीर के अपदस्थ राजा के भाई ऐबा खान चक और किश्तवाड़ के शासक राजा गुर सिंह के नेतृत्व में विद्रोहियों ने महीनों तक मुगलों के खिलाफ मोर्चा खोले रखा.

इस हफ्ते ही कश्मीर के तीन दिवसीय दौरे पर पहुंचे केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने ऐलान किया है कि केंद्र सरकार पहाड़ी क्षेत्र के पहाड़ी भाषी समुदाय को नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण देगी. धार्मिक और क्षेत्रीय सीमाओं से परे यह सामाजिक समूह लंबे समय से हाशिए पर पड़ा रहा है और आरक्षण की यह घोषणा कश्मीर के कमजोर पड़े राज्य तंत्र को नया जीवन देने की एक कोशिश है. हालांकि, इसे लेकर यह चिंता करने के भी कई कारण हैं कि कहीं यह फैसला एक नई आग न भड़का दे.

मुगलों और सिख सम्राट रणजीत सिंह से लेकर डोगरा राजपूत राजाओं तक कश्मीर के तमाम शासकों ने अपना सिंहासन सुरक्षित रखने के लिए जातीय और धार्मिक जुड़ाव को अपनी हित में जोड़ने-तोड़ने का काम बखूबी किया है. पहाड़ी आरक्षण का मुद्दा दशकों से इसी तरह की जोड़तोड़ से उपजी निराशा का नतीजा है.


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पहाड़ी और कश्मीरी सत्ता की दशा-दिशा

पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में मुजफ्फराबाद और मीरपुर से लेकर राजौरी और पुंछ, पूर्व में किश्तवाड़ से उत्तर में उरी तक पहाड़ी भाषी आबादी एक लंबे-चौड़े इलाके में बसी है. 1931 की जनगणना के बाद से ही पहाड़ी को कश्मीरी और डोगरी के बाद जम्मू-कश्मीर में तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा के तौर पर स्वीकारा गया है. स्कॉलर वंदना शर्मा लिखती हैं, पिछली शताब्दी की शुरुआत में ही किसानों की भाषा वाले एक गंभीर साहित्य का उभरना शुरू हुआ जो एक नए समुदाय के जन्म का दर्शाता है.

कश्मीर के पहले निर्वाचित प्रधानमंत्री शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के बदलाव संबंधी खाका यानी नया कश्मीर मैनिफेस्टो में क्षेत्र की सभी जातियों और भाषाओं को मान्यता का वादा किया गया था.

हालांकि, कुछ भौगोलिक स्थिति और कुछ कश्मीर केंद्रित अभिजात्य वर्ग की चालों ने मिलकर राजौरी और पुंछ के अधिकांश हिस्से को अविकसित ही रहने पर बाध्य कर दिया. एक पिछड़ा क्षेत्र विकास योजना लागू हुई लेकिन 1968-1969 के अंत तक स्थिति यह रही कि क्षेत्र के आधे से भी कम गांवों को संपर्क मार्ग जैसी कोई सुविधा मिल पाई. लगभग सभी ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली उपलब्ध नहीं थी. कश्मीर में साक्षरता का स्तर भी सबसे कम था.

अपने पहाड़ी पड़ोसियों की तरह गुर्जर भैंस-पालकों और बकरवाल चरवाहों को भी पिछड़ापन झेलना पड़ा लेकिन जाति संबंधी एक अतिरिक्त बोझ के साथ. मुगलकाल में गुर्जर-बकरवाल समुदाय न केवल कड़ा कर चुकाता था, बल्कि व्यापक सामाजिक भेदभाव का भी सामना करता था. 1960 के दशक के मध्य में एक छोटे शिक्षित अभिजात वर्ग के उदय ने गुर्जर-बकरवाल को आरक्षण की मांग के लिए प्रेरित किया, जैसा देश में अन्य जगहों पर आदिवासियों को मिलता है.

स्कॉलर पी.एन. पुष्प और के. वारिकू ने कश्मीर की भाषाई राजनीति पर अपने आधिकारिक विश्लेषण में उल्लेख किया है कि 1961 से 1981 के बीच क्रमिक जनगणना के दौरान गुर्जर आबादी में तेज गिरावट दिखाई थी. उनके मुताबिक, राजनीतिक प्रभाव का गुर्जरों का दावा कमजोर करने के लिए राजनीतिक नेतृत्व ने गणनाकर्ताओं को मैन्यूपुलेट किया—खासकर कश्मीरी या डोगरी भाषी क्षेत्रों में. उदाहरण के तौर पर गुर्जरों को केवल प्रमुख भाषाई पहचान दी गई.

लेकिन 1990 में शुरू हुए जिहाद के एक लंबे दौर ने अंततः भारतीय राज्य को गुर्जर समुदाय के बीच पैठ बढ़ाने को प्रेरित किया, इस उम्मीद के साथ कि कश्मीरी जातीय-धार्मिक विद्रोह के खिलाफ उन्हें अपने साथ जोड़ा जा सके. अगले साल ही, गुर्जर और बकरवाल समुदायों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दे दिया गया और इस तरह शिक्षा और सरकारी नौकरियों तक उनकी पहुंच को बढ़ाया गया.


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जातिगत विशेषाधिकार वापस ले रहे?

आलोचकों के लिए पहाड़ी आरक्षण जाति विशेषाधिकार को वापस लेने का सिर्फ एक साधन है. आखिरकार, पहाड़ियों में मुस्लिम और हिंदू राजपूतों के साथ-साथ मुस्लिम सैय्यद और ब्राह्मण जैसी कुलीन जातियां शामिल हैं. टिप्पणीकार जफर चौधरी का तर्क है, ‘गुर्जरों के उन क्षेत्रों में राजस्व अधिकारी बनने के मामले सामने आए हैं जहां उनके परिवार राजपूत जमींदारों की भूमि जोतते थे. चूंकि गुर्जरों को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने का फैसला उलटा नहीं जा सकता था, इसलिए उन्होंने खुद को इसमें शामिल कराने के लिए एक आंदोलन शुरू किया.’

चौधरी बताते हैं, ‘अभी भी ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां गुर्जर राजपूतों या ब्राह्मणों के बराबर बैठने की हिम्मत नहीं कर सकते हैं.’

पहाड़ी आरक्षण समर्थक अपने अलग ही तर्क देते हैं, उनका कहना है कि विभाजन की त्रासद विरासत—और भारत-पाकिस्तान के बीच तीन युद्धों ने उनके समुदाय को जितना प्रभावित किया है, उतना गुर्जरों को नहीं सहना पड़ा है. उनका तर्क है कि जहां किसी जातीयता से इतर एक भाषा उन्हें एक-दूसरे से जोड़ती है, वहीं लगातार आर्थिक पिछड़ापन भी अपने-आप में इसका एक बड़ा कारण है.

गुर्जरों की वकालत करने वालों का कहना है कि मौजूदा जाति कोटा से पहाड़ियों के बीच दलितों को फायदा मिल सकता है, लेकिन जैसा स्कॉलर जावीद भट का अनुमान हैं, पहाड़ियों में लगभग 70 प्रतिशत उन जाति समूहों से आते हैं जो आरक्षण के हकदार नहीं हैं. नई नीति गरीब और अशिक्षित पहाड़ी मुसलमानों को आरक्षण देगी, लेकिन समान रूप से कश्मीरी मुसलमानों को इसका फायदा नहीं मिलेगा. इसी तरह के अभिजात वर्ग के पहाड़ी जाति कोटा के हकदार होंगे लेकिन कश्मीरी पंडित नहीं.

बिना किसी अपवाद कश्मीर के राजनीतिक दलों ने पहाड़ियों को आरक्षण का समर्थन किया है. पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती—जिन्होंने अब अमित शाह के प्रस्ताव का विरोध किया है—ने 2019 में पहाड़ी आरक्षण पर जोर दिया था. नेशनल कांफ्रेंस ने 2014 में आरक्षण का समर्थन किया था. गुर्जरों की नजर में पहाड़ी आरक्षण का प्रस्ताव बताता है कि 2019 में जिस नए कश्मीर का वादा किया गया था, वह बहुत कुछ वैसा ही है जैसा पुराना कश्मीर था.

जम्‍मू में गुर्जरों और हिंदुओं के बीच जमीन को लेकर संघर्ष से लेकर विचारधारा तक के टकराव ने तनाव को बढ़ाया ही है. कश्मीर में आतंकवाद के खिलाफ जंग में अग्रिम मोर्चे पर लड़ने वाले ग्रामीण गुर्जरों को ऐसा लगता है कि उन्हें भारत की तरफ होने की सजा दी जा रही है.


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भाषा और पहचान की सीमाएं

जहांगीर के लिए राजौरी की पहाड़ियां इस्लामी सभ्यता के अंत की पहचान थीं. उन्होंने बेहद कड़वाहट के साथ लिखा है, स्थानीय लोग ‘कभी हिंदू थे (लेकिन) समय के साथ उनकी अनदेखी के निशान अब भी मौजूद हैं.’ मनभावती बाई के पति जहांगीर ने यह भी लिखा है कि जिस तरह हिंदू सती प्रथा का पालन करते हैं, मुस्लिम महिलाओं को ‘उनके पति के साथ कब्र में दफना दिया गया. इसके अलावा, जब किसी साधनहीन व्यक्ति के घर बेटी जन्म लेती है तो वे उसे गला घोंटकर मार डालते हैं. वे खुद को हिंदुओं के साथ जोड़ते हैं और दोनों बेटियों का रिश्ता भी करते हैं. लेकिन उनके लिए लड़कियां अपने घर लाना तो अच्छी बात है, लेकिन भूलकर भी देना नहीं चाहते.’

आस्थाओं की तरह भाषाओं के बीच सीमाएं उस तरह स्पष्ट नहीं खिंची हैं जैसी पहचान की विचारधारा पर चलने वालों को हमेशा दरकार रही है. इतिहासकार जिगर मोहम्मद ने दर्ज किया है, किश्तवाड़ में विद्रोह भड़काने वाले प्रमुख गुट में राजा गुर सिंह के बहनोई, राजा संग्राम मन्हास-वंशी राजपूत, हिंदू और मुसलमानों का एक पूरा नेटवर्क शामिल था, जिसके माध्यम से ही मुगल शासन जम्मू की पहाड़ियों तक फैला था. गुर सिंह को क्षमा कर दिया गया और फिर से शासन करने के लिए रिहा कर दिया गया.

फील्डवर्क ने दिखाया है कि पहाड़ी और गुर्जर कैसे गहराई से एक-दूसरे से जुड़े हैं, यहां तक कि उनका राजनीतिक नेतृत्व भी उनमें ठीक से अंतर नहीं कर पाता है. पॉलिटिकल साइंटिस्ट कुलजीत सिंह ने पाया कि पहाड़ी बोलने वाले उत्तरदाता कम से कम दो अन्य भाषाएं भी अच्छी तरह से जानते थे. वहीं, शोधकर्ता जहूर भट और महमूद खान ने गूजरी बोलने वालों के मामले में भी समान निष्कर्ष निकाले.

स्कॉलर बलराज पुरी ने नोट किया है कि अकेले डोडा जिले के निवासी अन्य भाषाओं के साथ-साथ कश्मीरी, डोगरी, हिमाचली, भद्रवाही, पोगली और सिराजी आसानी से बोल सकते हैं.

उपनिवेशकाल के सिविल सेवक वॉल्टर लॉरेंस के शब्दों में ऐसा लगता है कि गुर्जर ‘काफी लंबे इंसानों की एक जाति है जो शक्ल से स्टुपिड नजर आते हैं.’ लॉरेंस ने एकदम धृष्टता के साथ नस्लवादी टिप्पणी करते हुए कहा था कि उनमें और पहाड़ियों में भेद करना मुश्किल है. लॉरेंस के मुताबिक, गुर्जर परिमू और हिंदकी बोलते थे—इन्हीं भाषाओं को परिमी और हिंदको, या पहाड़ी और गूजरी के नाम से भी जाना जाता है.

पुष्प और वारिकू ने नोट किया है, 1941 की जनगणना पर काम करने वाले भाषाविदों ने भी कोई बड़ा अंतर नहीं पाया. उनके मुताबिक, गुर्जरों की भाषा गूजरी राजस्थानी में शामिल है. योजना में जिसी पहाड़ी भाषा को अलग से दिखाया गया है, वह गुजरी के काफी करीब है और लगभग उसी क्षेत्र में बोली जाती है.

काफी हद तक राष्ट्रवाद की तरह, पहाड़ी-गूजरी के बीच टकराव भी अंततः ऐसा विवाद है जिसे सिगमंड फ्रायड के शब्दों में ‘छोटी-छोटी चीजों को लेकर आत्ममोह’ कहा जाता है. दो समुदायों के बीच अंतर जितने मामूली होते हैं, उन्हें दूर करना उतना ही ज्यादा मुश्किल हो जाता है. चुनावी राजनीति और राज्य के संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा ने जाति और समुदाय के कुलीनों को भाषा और धर्म को हथियार बनाने के लिए प्रेरित किया है—ठीक उसी तरह जैसे मुगलों शासकों ने अपनी वैधता कायम करने के लिए किया था.

पहचान की राजनीति में उन्मत नेताओं के लिए जहांगीर की ये बात किसी चेतावनी की तरह ही है. उन्होंने लिखा था, ‘मैंने शराब पीना शुरू किया और दिन-ब-दिन इसकी मात्रा बढ़ाता गया, जब तक कि अंगूर की बेटी मुझे ही नहीं पी गई, फिर मैंने अर्क पीना शुरू किया. बीस प्याले, 14 दिन में और बाकी रात में.’ अनुमान के मुताबिक इसका अंजाम भी सामने था, ‘अपने हाथ अत्यधिक कांपने की वजह से मैं प्याला भी नहीं पकड़ पाता था.’

कश्मीर की जहरीली राजनीति के कारण पीढ़ियों से विभाजित इन समुदायों के बीच एक वास्तविक संवाद की जरूरत है—न कि सत्ता की राजनीति के लिए उन्हें बांटने वाली कोई नई जंग छेड़ने की.

लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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