महिला आरक्षण बिल, जातीय जनगणना, राजनीति में पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व, न्यायिक तथा सरकारी पदों में समान प्रतिनिधित्व जैसे गंभीर विषय पर कांग्रेस व अन्य पार्टियां क्यों चुप्पी साधती रही हैं ? क्या इसका सीधा सा संबंध संगठन में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के जातीय हितों से है, जो उनके व्यक्तिगत व सामाजिक हित के कारण उपरोक्त महत्वपूर्ण मुद्दों पर उन्हें खामोश करता रहा है?
हालांकि, आज पिछड़े वर्ग को भी जरूरत इस बात की है कि सत्ता की चाभी किसी राजनीतिक पार्टी को सौंपने से पहले अपने जमात के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने का प्रयास जरूर करें.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है और आज़ादी के लगभग पांच दशक बाद तक सत्ता का भोग भी किया है. कांग्रेस सदैव ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ तथा लोकतांत्रिक समावेशी मूल्यों के साथ-साथ अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति तथा जनजाति को केंद्र में रखकर राजनीति करती आई है. सत्ता के चौखट तक पहुंचने के लिए, कांग्रेस शायद पुनः उन्हीं राजनीतिक पहलुओं को ध्यान में रखते हुए पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी के नेतृत्व में आगामी उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव (2022) लड़ने का फैसला लिया है.
य़ह भी पढ़ें: भारत में सारी राजनीतिक चर्चा 2024 के इर्द-गिर्द घूम रही है लेकिन साल 2025 है उससे भी ज्यादा खास
उत्तर प्रदेश में सत्ता की चाभी और महिलाएं
आगामी विधानसभा चुनाव में प्रियंका गांधी मुख्य भूमिका में होंगी तथा पार्टी के आलाकमान यह भी सुनिश्चित कर चुके हैं कि बिना महिलाओं की समुचित भागीदारी (40 प्रतिशत) से उत्तर प्रदेश में सत्ता की चाभी पाना नामुमकिन है.
हालांकि, अप्रत्यक्ष रूप से अन्य पिछड़ा वर्ग के प्रतिनिधित्व पर कांग्रेस के पदाधिकारी सदैव चुप्पी साधते रहे हैं. अब प्रश्न यह उठता है कि प्रियंका गांधी 40 प्रतिशत महिला उम्मीदवारों में कितने प्रतिशत सीटें अन्य पिछड़े वर्ग से आने वाली महिलाओं के लिए आरक्षित रखेंगी.
देश की लगभग आधी से ज्यादा आबादी पिछड़े वर्गों की है तथा आज़ादी से लेकर आज तक उनके हितों व संवैधानिक अधिकारों का निर्णय कांग्रेस तथा उसकी सरकार में विभिन्न पदों पर आसीन प्रायः सवर्ण जातियों के नेताओं के द्वारा अनमने ढंग से किया जाता रहा.
इसलिए बहुजनi समाज के युवा वर्ग अकसर यह कहते नजर आते थे कि, ‘वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा – नहीं चलेगा.’
यह शायद एक अबूझ पहेली रही है कि देश के बहुसंख्यक पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधित्व कांग्रेस पार्टी के शीर्ष निर्णय लेने वाली समितियों में प्रतिनिधित्व ना के बराबर क्यों रहा है, चाहे वह अखिल भारतीय कांग्रेस समिति (AICC) हो या कांग्रेस कार्य समिति (CWC).
पिछड़ा वर्ग (OBCs) का प्रतिनिधित्व पार्टी के ‘महिला मोर्चा’ और ‘युवा विंग’ में भी ना के बराबर होना यह दर्शाता है कि कांग्रेस आज भी पिछड़े वर्ग के समुचित प्रतिनिधित्व को लेकर बहुत गंभीर नही है. यहां यह सवाल उठना भी लाजमी है कि क्या कांग्रेस को पिछड़े वर्ग से आने वाली एक भी महिला में कोई काबिलियत नहीं दिखी तथा आज़ादी के कई दशक बीत जाने के बाद भी अब तक ‘महिला मोर्चा’ अध्यक्ष पद के लिए कोई पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली एक भी महिला नहीं मिली ? उपरोक्त तथ्यों को जिसे नीचे दी गई तालिका के माध्यम से स्पष्ट तरीके से समझा जा सकता है.
इसी क्रम में यदि हम अब तक चुने गए कांग्रेस अध्यक्ष की सामाजिक पृष्ठभूमि का अवलोकन करें तो हमें ज्यादातर चुने गए अध्यक्ष ब्राह्मण समुदाय से देखने को मिलते हैं. पिछड़ी जाति की भागीदारी का सवाल शायद कभी कांग्रेस अलाकमानों के मानसपटल पर आया ही नही. इस संदर्भ में यह कहना उचित होगा, ‘उन्हें कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, वर्ना यूं ही कोई बेवफा नही होता .’
उत्तर प्रदेश के टंडवा गांव के रहने वाले दुर्गा प्रसाद यादव कहते हैं कि मुझे अभी भी याद है, मेरे बचपन वे दिन जब ग्रामीण दलित-बहुजन महिलाएं स्थानीय भाषाओं में लोकगीत गाते हुए वोट डालने जाती थी, और गाने का मुखड़ा होता था- ‘चला सखी वोट दय आयी, मुहर ‘पंजा’ पर लगाई .’
दुर्गा प्रसाद कहते हैं कि ये ग्रामीण महिलाएं प्रायः कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से थी, जिन्हें अपने समाज के राजनीतिक अधिकारों तथा राजनीतिक प्रतिनिधित्व से कुछ लेना-देना नहीं था. क्योंकि यह मेहनतकश वर्ग दिनभर खेत में व्यस्त रहता था तथा उसका कभी भी औपचारिक शिक्षा से पाला नहीं पड़ा. प्रायः सवर्ण जाति के लोग उन्हें बहला-फुसला कर अपने पक्ष में वोट डलवा लेते थे. कांग्रेस के स्थानीय नेता भी कभी ‘सामाजिक न्याय’, ‘समान प्रतिनिधित्व’ या ‘जातीय भागीदारी’ की बात नही करते थे. जिसके फलस्वरूप, आज भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) को दलित-बहुजन समाज की हकमारी का ब्याज चुकाना पड़ रहा है तथा धीरे-धीरे पूरे देश में कांग्रेस पार्टी, दलित-बहुजन समुदाय के बीच अपनी पैठ खोती जा रही है, सिर्फ चुनाव के समय 40 प्रतिशत सीट महिलाओं के लिए आरक्षित रखने की बात करना, जमीनी असलियत से कोशों दूर एक ‘चुनावी सिगूफा’ ज्यादा नजर आता है.
बहुसंख्यक पिछड़े समाज में व्याप्त जागरूकता का अभाव तथा अशिक्षा के कारण यह वर्ग कई दशकों तक राजनीति की मुख्य धारा से विमुख रहा तथा इन्हें सवर्ण जातियों द्वारा लिए गए फैसले पर भरोसा करने के आलावा कोई विकल्प नहीं मिल पाया. परिणामस्वरूप, यह समाज भारतीय राजनीति में कई दशकों तक मूकदर्शक बना रहा.
जेपी आन्दोलन और कांग्रेस जनित ‘इमरजेंसी’ (25 जून 1975 से 21 मार्च 1977) से देश में एक नया सामाजिक-राजनीतिक माहौल बना. समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, अपना दल, आदि राजनीतिक पार्टियां जोर-शोर से पिछड़े वर्ग के हितों की बात राजनीतिक मंचों से उठाना प्रारंभ किया.
मंडल कमीशन लागू होने के बाद इस बड़े हिस्से के लिए स्वर्णिम काल शुरू हुआ और 1990 के दशक के बाद पिछड़े वर्ग को राजनीतिक-प्रतिनिधित्व प्राप्त करने का मौका मिलना शुरू हुआ. इस संदर्भ में क्रिस्टोफ़ जाफ्रेलॉट (एक राजनीतिक विश्लेषक), केसी यादव, एमएसए राव, लूसिया मिच्लेत्ति, आदि लेखकों ने अपनी पुस्तकों में भारतीय राजनीति में व्याप्त व्यापक जातीय असमानता को रेखांकित किया.
काशीराम, कर्पूरी ठाकुर, बीपी मंडल, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, मायावती जैसे दूरदर्शी नेताओं ने राजनीति में व्याप्त सामाजिक असमानताओं और असमान सामाजिक प्रतिनिधित्व की तरफ़ लोगों का ध्यान खींचा. जहां एक तरफ, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का नारा देने वाले माननीय कांशीराम सत्ता को दलित की चौखट तक लाना चाहा .
वहीं दूसरी तरफ, लालू प्रसाद यादव ने दलित-बहुजन को एक ‘वेक-अप कॉल’ दिया, जिसे उनके भाषण से समझा जा सकता है: ‘हे गाय चराने वालों / ओ बाकरी चराने वालों / ओ ताड़ी पीने वालों / वोट देना सीखो!’ जिसके परिणामस्वरूप, जीतनराम मांझी और कुछ अन्य दबे-कुचले जातियों के स्थानीय नेताओं को उभरने में बल मिला.
यह भी पढ़ें: ‘योगी जीतेंगे’: UP में इस बात को कैसे फैला रहे हैं ‘माहौली’, चुनावों में क्या है इनकी भूमिका
निष्कर्ष
हाल ही में चर्चित रहा – चाहे 13 बिंदु वाला रोस्टर का मामला हो या जीबी पंत शोध संस्थान में नियुक्ति में हुई गड़बड़ी का मामला हो – यह बहुसंख्यक वर्ग अपने हितों के लिए एकजुट होता दिखाई दिया. आज यह वर्ग अपना अगूंठा कटता हुआ देखकर, ऐकलब्य की तरह चुप नहीं रहता. यह श्रमजीवी वर्ग, शैक्षणिक एवं राजनीतिक पदों पर बैठे द्रोणाचार्यों को कटघरे में खड़ा करना सीख चुका है तथा एक समान सामाजिक भागीदारी को लेकर प्रतिष्ठित पदों पर बैठे हुए हुक्मरानों से सामाजिक न्याय की गुहार कर रहा है.
यदि हम महिलाओं की सामाजिक भागीदारी की बात करें, तो हमें ज्ञात होता है कि राजनीतिक सशक्तिकरण सूचकांक में भारत के प्रदर्शन में गिरावट आई है तथा महिला मंत्रियों की संख्या वर्ष 2019 के 23.1 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2021 में 9.1 प्रतिशत तक पहुंच गई है (ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट, 2021). ऐसे में प्रियंका गांधी द्वारा उठाया गया 40 प्रतिशत आरक्षण देने का मुद्दा काबिले तारीफ है.
हालांकि, जहां एक तरफ़ कांग्रेस महिला सशक्तीकरण का नारा लगा रही है, महिलाओं को सरकारी नौकरियों में आरक्षण तथा लड़कियों को स्मार्ट फोन देने की बात कर रही है, तो दूसरी तरफ़ महिला कांग्रेस अध्यक्ष सुष्मिता देव पार्टी छोड़ कर तृणमूल कांग्रेस में और रायबरेली सदर चुनावी क्षेत्र की विधायक अदिति सिंह का बीजेपी में शामिल हो जाना कांग्रेस की अंदरूनी हालात को बयां करता है.
हालांकि, महिला वोटरों को रिझाने का यह एक सराहनीय सकारात्मक राजनीतिक प्रयास है, जिसका आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा (2022) में कोई लाभ मिलता नहीं दिख रहा है, परन्तु देश के आम चुनाव (2024) में इसका लाभ कांग्रेस को अवश्य बढ़त दिला सकता है. एक बात तो अब स्पष्ट है कि अन्य राजनीतिक पार्टियां भी कांग्रेस के धोषणा-पत्र को पूर्णतया नकार भी नही सकती, उन्हें भी अपने-अपने घोषणा-पत्र में महिला मतदाताओं के लिए कुछ लोक-लुभावने वादे करने ही पड़ेगे .
कांग्रेस पार्टी में पदासीन लोगों को अब यह बात अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि बहुजन समाज में अपनी पैठ बनाने के लिए उसे ‘फूट सोल्जर’ या सिर्फ ‘झंडा ढ़ोने वाला वर्ग’ समझने की भूल करना आत्म-घातक साबित हो सकता है. आज इस बहुसंख्यक वर्ग के पास हर राज्य में कई विकल्प मौजूद हैं और यह वर्ग आज कांग्रेस से एक समान भागीदारी की आशा लगाए बैठा है. उत्तर भारत में इस बहुसंख्यक वर्ग का ज्यादा समय तक अनदेखी करना कांग्रेस को मंहगा पड़ेगा.
हालांकि, जिस तरह से प्रियंका गांधी ने कार्यकर्ताओं में एक नई जान फूंकी है और कांग्रेस के पुराने जनाधार ‘पिछड़े वर्ग’ को लुभाने के लिए उत्तर प्रदेश की कमेटी को सामाजिक संतुलन और समावेशी जातीय समीकरण के आधार पर तैयार की हैं.
जमीनी स्तर पर पिछड़ी जाति का प्रतिनिधित्व करने वाले अजय कुमार लल्लू को उत्तर प्रदेश की कमान सौपकर प्रियंका गांधी ने एक सार्थक कदम उठाया है, जिसका फायदा आने वाले समय में पूर्वी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मिल सकता है.
लेखक हैदराबाद विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग में डॉक्टरेट फेलो हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.
यह भी पढ़ें: कांग्रेस के लिए एक और अमरिंदर बन सकते हैं गुलाम नबी आजाद, पीएम मोदी ने भी खोल रखे हैं दरवाजे