यह देखते हुए कि इन दिनों हमारे आसपास क्या हो रहा है, यानि कि हम क्या खा सकते हैं, इस पर प्रतिबंध से लेकर ‘स्वीकार्य’ किये जा सकने वाली कॉमेडी के बारे में कानून बनाने और बॉलीवुड के खिलाफ आतंक भरा अभियान चलाने तक; यह सत्तावाद और अधिनायकवाद (तानाशाही) के बीच के अंतर को फिर से बताये जाने का सही समय हो सकता है.
एक सत्तावादी समाज में असहमति के प्रति कोई सहिष्णुता नहीं होती, लोकतंत्र के लिए कोई सम्मान नहीं होता (भले ही वह इसकी जुबानी प्रसंशा करते रहें), और उसे इस बात की चाह होती है कि हम सब वैसा ही करें जैसा की हमें बताया जाता है.
अधिकांश राजशाहियां और तानाशाही शासन उनकी मूल प्रकृति में सत्तावावादी होती हैं. उदाहरण के लिए, मध्य पूर्व में कुछ लोकतंत्र हैं, लेकिन वे केवल अलग-अलग हद तक सत्तावाद के संस्करण ही हैं.
सैन्य शासन द्वारा संचालित अधिकांश देश (उदाहरण के लिए, समय-समय पर पाकिस्तान) भी उनकी मूल प्रकृति में सत्तावादी ही होते हैं. हमारे पड़ोसियों में, म्यांमार सबसे अधिक सत्तावादी हो सकता है.
एक तानाशाही शासन भी इसकी मूल परिभाषा के अनुसार सत्तावादी ही होता है. लेकिन यह इससे कहीं आगे तक जाता है. यह केवल असहमति पर ही शिकंजा नहीं कसता, बल्कि पूर्ण आज्ञाकारिता की मांग करता है. यह इस बात को नियंत्रित करना चाहता है कि आप कैसे सोचते हैं, क्या तय करते हैं और यह भी कि आपकी जीवन शैली कैसी होगी.
तानाशाही शासन आमतौर पर प्रतिगामी विचारधाराओं से जुड़े होते हैं. नाज़ी भी अधिनायकवादी थे. आपको उनके फर्जी इतिहास (एक महान आर्य जाति के बारे में) पर विश्वास करना होता था. थर्ड रेइच का गुणगान करना होता था, और यदि आप एक यहूदी होते, तो आप गिनती के लायक इंसान ही नहीं होते (और अंत में, आप मर चुके होते).
हाल के दिनों में, साम्यवाद ने सबसे खराब प्रकार के अधिनायकवाद को जन्म दिया है. माओ त्से तुंग के चीन में, कोई भी अच्छा रेस्तरां नहीं थे (हाउते किसिने या कौशलपूर्ण पाक कला को क्रांतिकारी का विरोधी माना जाता थे, इसलिए इनके शेफ को ‘फिर से शिक्षा ग्रहण करने’ के लिए ग्रामीण इलाकों में भेजा दिया जाता था.); आपको एक ही तरह के कपड़े पहनने पड़ते थे और यदि आप पार्टी लाइन से जरा भी विचलित होते थे, यहां तक कि अपने निजी जीवन में भी, तो आपके स्थानीय समुदाय द्वारा आपकी ‘आलोचना’ की जाती थी और किसी-न-किसी प्रकार के बहिष्कार का सामना करना पड़ता था. स्टालिन के तहत का रूस भी बहुत कुछ वैसा ही था. और तालिबान ने तो दुनिया का सबसे खराब अधिनायकवादी समाज तैयार किया है.
जाहिर है, सत्तावाद जितना बुरा है, अधिनायकवाद उससे भी ज्यादा ही बुरा है. अब जबकि चीनियों और रूसियों को ‘अधिनायकवाद’ से मुक्त कर दिया गया है और उन्हें सिर्फ सत्तावाद के प्रतिबंधों को झेलना पड़ रहा है, वे ऐसे व्यव्हार करते हैं मानों उनका सबसे बुरा वक्त बीत चुका है. लेकिन, निश्चित रूप से, दोनों देश अभी भी कठोर सत्तावादी समाज बने हुए हैं.
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मध्य वर्ग और सत्तावाद
भारत में, हालांकि हम स्वतंत्रता और लोकतंत्र के बारे में बहुत सारी बातें करते हैं, लेकिन सच्चाई तो यह है कि हममें से कई लोगों को सत्तावाद से बिल्कुल भी ऐतराज नहीं है. हम इसे स्वीकार करना पसंद तो नहीं करते हैं, लेकिन हमारे मध्य वर्ग ने लगभग अंत-अंत तक, इंदिरा गांधी द्वारा थोपे गए आपातकाल का समर्थन किया था. उन्हें इस बात की कतई परवाह नहीं थी कि समूचे विपक्ष को जेल में बंद कर दिया गया था, नागरिक स्वतंत्रता को निलंबित कर दिया गया था और प्रेस पर भी सेंसर लगा दिया गया था.
इसके बजाय, आप लोगों को इस बारे में बात करते सुनते कि कैसे मुद्रास्फीति (महंगाई) को काबू में कर लिया गया था, कैसे भ्रष्टाचार कम हो गया था और कैसे आपातकाल ने भारत की अराजकता के ऊपर सुव्यवस्था को आरोपित कर दिया था. जब श्रीमती गांधी साल 1977 का चुनाव हारीं, तो उनकी पराजय मुख्य रूप से उत्तर भारत में सीमित थी जहां के लोग संजय गांधी के जबरन नसबंदी के कार्यक्रम से काफी खफा थे. इंदिरा गांधी तीन साल से भी कम समय के बाद वापस सत्ता में आ गईं और वास्तव में मध्य वर्ग का उनके प्रति प्यार कभी कम नहीं हुआ.
जब कुछ लोग आज के भारत के बारे में बात करते हुए असंतोष के अत्यधिक दमन, विरोधियों को निशाना बनाने आदि की ओर इशारा करते हैं, तो उन्हें यह जानकर आश्चर्य होता है कि इस सब से मध्य वर्ग (अमीरों को तो बात हीं छोड़ दें) या आम जनता को बहुत कम फर्क पड़ता है.
क्योंकि, और यहां हमें ईमानदारी दिखानी होगी, मध्य वर्ग को लोकतंत्र और स्वतंत्रता की परवाह तो है – लेकिन केवल एक खास सीमा तक ही. जब तक उनके पास एक ऐसा नेता हो जिसके बारे में उन्हें लगता है कि उसने भारत को मजबूत बनाया है (जैसा कि इंदिरा गांधी ने किया था) और देश में कुछ अनुशासन कायम किया है, वे अधिकतर खुश ही रहते हैं.
हालांकि, अब मुझे इस बात का आभास हो रहा है कि हम एक नए दौर में प्रवेश कर रहे हैं, एक ऐसा दौर जो चिंताजनक रूप से अधिनायकवाद के करीब होता जा रहा है. इसके संकेत हमेशा से मौजूद थे. सत्तावादी समाज इस बात की परवाह नहीं करते कि आप क्या खाते हैं. लेकिन भारत में हम बिना वजह गोमांस खाने, न खाने के प्रति जुनूनी दिखते हैं. सत्तावादियों को अपना मज़ाक उड़ाया जाना पसंद नहीं है. लेकिन अधिनायकवादी इसे (रोकने को) एक जुनून में बदल देते हैं. नाजी जर्मनी में, एडॉल्फ हिटलर के पास विदेशी फिल्म निर्माताओं और हास्य कलाकारों के कुत्सित इरादों को ‘उजागर’ करने के लिए समर्पित दर्शक दीर्घाएं थीं. यह हाल चीन का भी था जहां ‘क्षयोन्मुख (विनाश की तरफ जाती हुई)’ पश्चिमी कला और वहां की लोक संस्कृति के खिलाफ अभियान चलाए गए थे.
शायद, आप भारतीय हास्य कलाकारों के उत्पीड़न को लेकर सत्तावाद के साधारण स्वरूप को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं. मगर, यह सिर्फ मुनव्वर फारूकी के साथ किये गए शर्मनाक व्यवहार की बात नहीं है. यह अब किसी पर भी आम तरीके से किया जा रह हमला है, जिसे हिंदू विरोधी के रूप में चित्रित किया गया है. हाल ही में, कॉमेडियन कुणाल कामरा, जिनके शो को धमकियां और बहिष्कार की चेतावनियां मिली हैं, ने एनडीटीवी को बताया, ‘हमारे संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या है, कौन सी बात धार्मिक कट्टरता है और कौन सी बात हिंसा को भड़काने के लायक होती है. इसका फैसला करने के लिए अदालते हैं. उन्हें तय करने दें कि क्या यह हिंदू विरोधी है.’
हालांकि, जैसा कि मुनव्वर फारूकी मामले से पता चलता है, अदालतें भी हमेशा हास्य अभिनेताओं की स्वतंत्रता को बरकरार नहीं रख पाती हैं.
बॉलीवुड का बहिष्कार
बॉलीवुड के खिलाफ व्यवस्थित रूप से चलाया जा रहा संगठित अभियान एक और उदाहरण है. हिंदी फिल्म उद्योग भारत की ‘सॉफ्ट पावर’ का सबसे बड़ा उदाहरण है. हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में, इसे बहिष्कार और मादक पदार्थों से जुड़े फर्जी आरोपों के जरिए याचना करने वाले मुद्रा में आने को मजबूर कर दिया गया है.
जब मैं यह लिख रहा हूं, सोशल मीडिया पर ‘ब्रह्मास्त्र’ के खिलाफ एक (स्पष्ट रूप से असफल) अभियान चल रहा है. ऐसे अभियानों का पसंदीदा निशाना बनने वाले अभिनेता आमिर खान को भी अपनी पिछली फिल्म के बहिष्कार का सामना करना पड़ा है. और यहां तक कि अक्षय कुमार, जो इतने प्रसिद्ध अभिनेता कि वे प्रधानमंत्री के साथ भी आमों के ऊपर गुफ्तगू कर सकते हैं, को भी उनकी कुछ फिल्मों के बहिष्कार के आह्वान से प्रभावित होना पड़ा है.
वास्तव में तो आपको अपना बहिष्कार करवाने के लिए हिंदुओं को नाराज करने की भी आवश्यकता नहीं है. ‘ब्रह्मास्त्र’ के खिलाफ चलाया जा रहा अभियान इस फिल्म के विषय से जुड़ा नहीं है. जाहिर तौर पर इसकी वजह यह है कि इस फिल्म में काम करने वाले स्टार कलाकार रणबीर कपूर ने सालों पहले कहा था कि उन्हें बीफ (गोमांस) पसंद है. इस बहिष्कार के आयोजक वे लोग नहीं हैं जिन्हें इस बात से ठेस पहुंची है. वे तो वे लोग हैं जो ‘ठेस पहुंचाए जाने’ की तलाश में लगे रहते हैं.
इस बात को देखना काफी आसान है कि यहां क्या कुछ चल रहा है. वे बॉलीवुड को डराना चाहते हैं ताकि वह उनकी बताई लाइन का पालन करें और इसकी विषय वस्तु पर नियंत्रण रखा जा सके. आखिरकार, निर्देशक कुछ भी ऐसा करने से डरेंगे जो इन बहिष्कार के पैरेकारों को ‘ठेस पहुंचाता’ हो और कंपनियां ऐसे अभिनेताओं को काम पर रखने के प्रति अनिच्छुक होंगी जो ब्रांड एंबेसडर या एंडोर्सर्स (अनुमोदकों) के रूप में विवाद को आकर्षित कर सकते हैं.
यह राजनीति या केवल सत्तावाद की परिधि से परे की बात है. चिंता शासन पर हमले को लेकर नहीं है. इनका इरादा हमारे जीवन, हमारी कला और हमारे मनोरंजन पर सोचने के एक खास तरीके को थोपना है.
यहां दो बातों पर जोर दिए जाने की जरूरत है. पहला तो यह कि हम अभी भी अधिनायकवाद से बहुत दूर हैं. (यदि हम उस हालत में पहुंच गए होते मैं यह कॉलम नहीं लिख पाता.) लेकिन हां, ऐसे संकेत हैं कि अब हम उसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं.
और दूसरा, ये बहिष्कार आधिकारिक रूप से प्रायोजित नहीं है. इस बात का कोई सबूत नहीं है कि सरकार उनका समर्थन करती है. लेकिन हां, वे सरकार के प्रति सहानुभूति रखने वाले समूहों से ही उत्पन्न होते हैं और कम से कम एक मंत्री (दिवंगत मनोहर पर्रिकर) ने इनका अनुमोदन भी किया था.
निःसंदेह अधिनायकवाद की तरफ होते इस खिसकाव को रोकने और यह स्पष्ट करने का एक आसान तरीका है कि शासन थॉट-पुलिस (विचारों की निगरानी) को स्वीकार नहीं करता है. सरकार को बस इतना करना है कि उसे जो हो रहा है उसके खिलाफ बोलना है.
पर क्या वे ऐसा करेंगें?
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(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)
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