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Thursday, 25 April, 2024
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कांग्रेस हो या भाजपा, हरेक पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र कायम होगा लेकिन वह समय कब आएगा?

किसी भी राजनीतिक दल में वंशवाद या आंतरिक साजिश का हमेशा के लिए बोलबाला कायम नहीं रह सकता.

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महात्मा गांधी से जब यह पूछा गया था कि पश्चिमी सभ्यता के बारे में उनके क्या विचार हैं, तब उन्होंने कुछ इस तरह जवाब दिया था— ‘मेरा ख्याल है कि यह एक अच्छा विचार हो सकता है.’ ऐसा ही कोई भाव मेरे मन तब उठता है जब भारत के राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र के बारे में सवाल उठाया जाता है. हां, यह एक अच्छा विचार हो सकता है क्योंकि आज उनमें ऐसा कुछ भी नहीं रह गया है.

राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र के अभाव को लेकर मेरी निराशा तब और गहरी हो गई जब मैंने ब्रिटेन की सत्ताधारी कंजर्वेटिव पार्टी (टोरी पार्टी नाम से मशहूर) में अगले नेता, और भावी प्रधानमंत्री के चुनाव के प्रक्रिया पर नज़र डाली. हर कोई हमेशा से यही कह रहा था कि लिज़ ट्रस ही चुनी जाएंगी, लेकिन अंत में ऋषि सुनक ने उन्हें अच्छी टक्कर दी. ट्रस ने 57 फीसदी वोट हासिल किए, जो कि अनुमानों से कम थे और उनके पूर्ववर्ती बोरिस जॉनसन को मिले वोटों से काफी कम थे. जॉनसन ने करीब 67 फीसदी पार्टी सदस्यों का समर्थन हासिल किया था. यहां तक कि डेविड केमरन ने भी पार्टी के भीतर 65 फीसदी वोट हासिल किए थे.

आप कह सकते हैं कि जनमत सर्वेक्षणों ने ट्रस के लिए समर्थन को बढ़चढ़कर आंका और विशेषज्ञों ने टोरी पार्टी के सदस्यों को आंकने में चूक की (‘वे श्वेत महिला को वोट देना सुरक्षित मानेंगे, न कि चिकने-चुपड़े भूरे शख्स को’). लेकिन यह भी हो सकता है कि यह पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र सक्रिय हो गया हो. क्या पता, चुनाव अभियान जैसे-जैसे आगे बढ़ा, कई लोगों ने सुनक को वोट देने का फैसला कर लिया हो?

वैसे, यह तो साफ है कि भारत में ऐसा कुछ कभी नहीं हो सकता. भारत में न केवल पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र—कम-से-कम नेता चुनने के मामले में—गायब है बल्कि आज़ाद भारत में शायद यह पहले भी कभी नहीं रहा.

गांधी परिवार के हाथ में कांग्रेस

जब जवाहरलाल नेहरू जीवित थे तब कोई सवाल ही नहीं था कि उनके सिवा और कोई कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व करेगा. नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने कमान संभाली तो पार्टी के भीतर असंतोष थोड़ा मजबूत हुआ। लेकिन असंतुष्ट खेमा उन्हें हटा सके, यह संदिग्ध ही था. उनके अचानक निधन के बाद भी कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र नहीं था. वरिष्ठ पार्टी नेताओं की मंडली ने इंदिरा गांधी को गद्दी पर बैठा दिया. और जब इंदिरा गांधी अपने बॉसों की सुनते-सुनते ऊब गईं तो उन्होंने अपनी ही कांग्रेस बना ली और हमेशा उसकी नेता बनी रहीं. वही उनका मॉडल रहा. 1977 में हार के बाद के वर्षों में उन्होंने पार्टी एक इसके बाद, इंदिरा गांधी ने अपने बेटे संजय गांधी को अपने उत्तराधिकारी के रूप में खड़ा कर दिया. संजय की असामयिक मौत के बाद उनकी जगह उन्होंने अपने एक और बेटे को सामने खड़ा कर दिया. जब इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई तो कांग्रेस राजीव गांधी का मुंह ताकने लगी मानो परिवार के बाहर का कोई व्यक्ति उनकी जगह नहीं ले सकता था. जब राजीव की हत्या की गई तो कांग्रेस ने उनकी पत्नी सोनिया गांधी की ओर मुंह कर लिया जिन्होंने राजनीति में कभी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी. जब उन्होंने माना ही कर दिया और नरसिंह राव का समर्थन किया तब उत्तराधिकारी पहली बार गांधी परिवार से बाहर के शख्स को चुना गया.

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यही वजह है कि पार्टी के अगले चुनाव को लेकर अधिकतर कांग्रेसी हतप्रभ-से हैं. जब परिवार के दो व्यक्ति कमान संभालने के लिए मौजूद हैं तब पार्टी अध्यक्ष पद के लिए भला दूसरा कोई दावेदारी कैसे कर सकता है? अगर वे दोनों कहते हैं कि उन्हें इसमें दिलचस्पी नहीं है, तब हरेक कांग्रेसी का फर्ज है कि वह उन्हें अपना मन बदलने के लिए राजी करे.


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एमजीआर से एनटीआर से भाजपा तक

वंशवाद लोकतंत्र को परास्त कर सकता है, यह मान्यता कांग्रेस के अलावा दूसरे दलों में भी प्रबल है. जब एम.जी। रामचंद्रन का निधन हुआ था तब उनके दो ही उत्तराधिकारी थे— उनकी पत्नी, और उनकी गर्लफ्रेंड. जब एन.टी. रामराव ने दोबारा शादी की तो उनकी नयी पत्नी ने बागडोर हथियाने की कोशिश की. अंततः, उनके दामाद ने संघर्ष किया और विजयी रहे. तेजस्वी यादव आज जहां हैं उसकी वजह यह है कि वे लालू प्रसाद यादव के बेटे हैं. तेलंगाना के के. चंद्रशेखर राव के जाहिर वारिस उनके बेटे हैं. जब कांग्रेस ने वाइ.एस.आर. रेड्डी के बेटे जगन को उनका उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया तो जगन ने अपनी अलग पार्टी ही बना ली और अंततः अपने पिता के उत्तराधिकारी साबित हुए.
यही हाल लगभग हरेक क्षेत्रीय दल का है. शिवसेना में आंतरिक लोकतंत्र उद्धव और राज ठाकरे के बीच होड़ के रूप में था. एकनाथ शिंदे ने सेना से रिश्ता कोई वोट करवाकर नहीं तोड़ा बल्कि अपने नेता की पीठ में छुरा भोंककर तोड़ा. एनसीपी में आज एक ही सवाल पूछा जा रहा है कि “कमान कौन संभालेगा? शरद पवार के भतीजे संभालेंगे? या उनकी बेटी?’

भाजपा दावा करती है कि वह सबसे अलग है. बेशक! जहां तक वंशवादी उत्तराधिकार का मामला है, उसका रेकॉर्ड दूसरों से बेहतर ही है. लेकिन उसमें भी नेतृत्व का फैसला लोकतांत्रिक मतदान से नहीं बल्कि शीर्ष स्तर पर नाटक से होता है. अटल बिहारी वाजपेयी वर्षों तक निर्विवाद नेता रहे और लालकृष्ण आडवाणी उनके वफादार सहयोगी बने रहे. अयोध्या आंदोलन के दौरान वाजपेयी को किनारे कर दिया गया लेकिन यह किसी लोकतांत्रिक बदलाव के तहत नहीं किया गया. बल्कि इसलिए किया गया कि उनके वफादार सहयोगी की महत्वाकांक्षा ज़ोर मारने लगी और वे खुद कमान थामना चाहने लगे.

बेशक, यह ज्यादा दिन तक नहीं चला. वाजपेयी फिर वापस आए, हालांकि दोनों नेताओं के बीच पहले वाला रिश्ता नहीं रह गया. वाजपेयी रिटायर हुए तो आडवाणी को कमान मिली मगर वे वह चुनाव हार गए जिसे उन्हें जीतना चाहिए था. तब भी उन्हें किसी लोकतांत्रिक मतदान से बाहर नहीं किया गया. उन्हें एक ‘तख्तापलट’ में उलट दिया गया और नरेंद्र मोदी दिल्ली लाए गए. और पुराने बादशाह जिस तरह अपने पूर्ववर्तियों को देशनिकाला दिया करते थे, उसी तरह मोदी ने आडवाणी को राजनीति के मैदान से बाहर करके ‘मार्गदर्शक मंडल’ में पहुंचा दिया. यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ज्यादा, एक नाटकीय प्रक्रिया थी.


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क्या भारत के राजनीतिक दल लोकतांत्रिक होंगे?

क्या वह दिन कभी आएगा जब भारत के राजनीतिक दलों में साजिश, छल, वंशवाद, पीठ में छुरा घोंपने जैसी बातों की जगह सच्चा आंतरिक लोकतंत्र स्थापित होगा? अधिकतर लोग इसे असंभव मानते हैं. लेकिन मैं बिलकुल ऐसा नहीं मानता. कांग्रेस को ही लीजिए. हां, उसमें आंतरिक लोकतंत्र नहीं है. लेकिन तर्क के लिए यह मान लें कि गांधी परिवार ने खुद को नेतृत्व की होड से अलग कर लिया. जब कोई परिवार सामने नहीं होगा जिसके सामने घुटने टेकने की मजबूरी हो, तब क्या कांग्रेस को चुनाव का सहारा नहीं लेना पड़ेगा? ‘मोदी के बाद कौन?’ जैसा सवाल कभी नहीं उठाया जाता क्योंकि मोदी कहीं जाने वाले नहीं हैं. लेकिन कल्पना के लिए ही सही, मान लें कि वे कहें कि वे गद्दी छोडना चाहते हैं. तब क्या यह सोचना नामुमकिन होगा कि भाजपा को अगला नेता लोकतांत्रिक ढंग से चुनना पड़ेगा? अभी कोई उत्तराधिकारी तो नहीं ही है.

नेता लोग पार्टी में लोकतंत्र नहीं चाहते, इसकी एक वजह यह है कि इससे वह नतीजा नहीं हासिल होता जो उन्हें पसंद होता है. अमेरिका में, प्राइमरी चुनावों की प्रथा पार्टियों को लोकतंत्र अपनाने को मजबूर करती है. कम ही ऐसे वरिष्ठ रिपब्लिकन नेता होंगे जो डोनाल्ड ट्रंप को फिर से उम्मीदवार बनते देखना चाहेंगे. लेकिन ऐसा हो सकता है.

समय लगता है मगर नेता लोग सीख जाते हैं कि सभी फैसले बंद कमरों में नहीं लिए जा सकते. अमेरिकी दलों में भी सच्चा आंतरिक लोकतंत्र 1960 के दशक में बहाल हुआ. ऐसा ही ब्रिटेन की कंजर्वेटिव पार्टी में हुआ, जो 1960 के दशक तक नेताओं का चुनाव नहीं करती थी क्योंकि उसका मानना था कि नेता तो भगवान के द्वारा चुने हुए होते हैं.

अंततः, बाहरी लोकतंत्र का तर्क पार्टियों को आंतरिक लोकतंत्र स्थापित करने पर मजबूर करता है. अफसोस कि भारत में यह ‘अंततः’ आने में लंबा समय लग सकता है. लेकिन मेरा विश्वास है कि एक दिन देश की राष्ट्रीय पार्टियों (वे नहीं जिन्हें मोदी राज्यों की ‘पारिवारिक पार्टियां’ कहते हैं) के पास अपने नेता का चुनाव पारदर्शी चुनावों के जरिए करने के सिवा कोई उपाय नहीं रह जाएगा.

वंशवाद और साजिश का हमेशा बोलबाला नहीं रहेगा. कम-से-कम इतनी उम्मीद तो मुझे है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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