इस बार के चुनावों में सबसे बड़े विजेता रहे गुजरात कांग्रेस के विधायक जिग्नेश मेवाणी. इस पर अगर आप आपत्ति करना चाहते हों तो जरा एक मिनट ठहरिए. मेवाणी का नाम मैं भारतीय राजनीति में आ रहे बदलावों को रेखांकित करने की उम्मीद में ले रही हूं. और यह इसलिए कि हमेशा की तरह सबसे बड़ी हार भारतीय राजनीति के विश्लेषण की हुई है.
दुनिया के सबसे शोरशराबे वाले लोकतंत्र में हरेक चुनाव का विश्लेषण घिसे-पिटे ढंग से ही किया जाता रहा है. आंकड़ों की जुगाली करने वाले उत्साही लोग हावी रहते हैं क्योंकि वे आप पर रंग-बिरंगी तालिकाओं और ग्राफ़ों के साथ हमला कर देते हैं. उनका ज़ोर मुख्यतः दो बातों पर रहता है—पार्टियों को मिले वोटों के प्रतिशत, वोटों के झुकाव का स्वरूप.
इसके साथ कुछ शोर जाति, या ‘सरकार विरोधी भावना’ का मचाया जाता है और समापन अगले चुनाव के लिए पार्टियों को नसीहतों तथा कुछ भविष्यवाणियों से किया जाता है. वर्तमान विश्लेषणों में एकमात्र निश्चित तत्व है— प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताकत. आप अगर सत्ताधारी भाजपा और मोदी के परम भक्त भी हैं तो भी यह पूरी तरह संतोषजनक नहीं है.
गुजरात के अपने प्रतिष्ठित गढ़ में भाजपा की जीत, और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की ठोस तथा बड़ी मेहनत से हासिल की गई जीत, ये दोनों नतीजे यही संकेत करते हैं कि व्यक्तिपूजा और लोकलुभावन राजनीति अपने शीर्ष बिंदु पर पहुंच चुकी है. इसे अगर चालू लहजे में कहें तो भक्ति और रेवड़ी दोनों का असर न केवल चूक चुका है बल्कि इनकी अति भी हो चुकी है. आम आदमी पार्टी (आप) के बड़बोले दावों और मीडिया के लगाव के बरक्स फीके प्रदर्शन ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि वह एक प्रत्याशी से ज्यादा एक खेल-बिगाडू है.
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व्यक्तित्व का मामला
हालांकि पहचान को लेकर दावों का बोलबाला बना हुआ है लेकिन एक नयी संभावित कहानी की ओर अभी ध्यान नहीं गया है, वह यह है कि राजनीतिक नेतृत्व का एक भिन्न सामाजिक नक्शा उभर सकता है. इसके लिए मेवाणी, और हिमाचल प्रदेश के कांग्रेस नेता सुखविंदर सिंह सुक्खू से ज्यादा दूर देखने की जरूरत नहीं है. सत्ता के बेहद सुरक्षित किलों को ढहाने के लिए आपको काडर वाली पार्टी होने की जरूरत नहीं है.
इसमें शक नहीं है कि मोदी सर्वशक्तिमान बने हुए हैं और इसमें उनके व्यक्तित्व का और उनकी इस छवि का योगदान है कि वे हमारे समय के नेताओं से कुछ अलग हैं. गुजरात में बड़ी सावधानी से किए गए उनके रोड शो ने केवल उनकी पार्टी को बड़ा जनादेश ही नहीं दिलाया. लोकसभा चुनाव हो या उनके अपने राज्य का चुनाव, मोदी शासन और जवाबदेही को लेकर उठने वाली सभी चिंताओं को बेमानी करने में सफल रहते हैं.
मोरबी पुल के ढहने के कारण हाल ही में रोकी जा सकने वाली मौतों हो या यहां तक कि वैश्विक कोविड-19 महामारी के लंबे समय से चले आ रहे क्रूर नतीजों के बावजूद मोदी की लोकप्रियता कायम है. नीतियों का पालन और शासन उनकी छवि के लिहाज से अब काफी फीका और बिलकुल साधारण ही दिखता है. मेरे हिसाब से मोदी कोई इंदिरा गांधी नहीं हैं. वे नये अमिताभ बच्चन हैं.
मोदी ने खुद को आज एक सुपर हीरो में तब्दील कर लिया है. वे एक राजनेता वाले व्यक्तित्व में भी दिखते हैं और खुद को चुनावों, पार्टी और सरकार से भी ऊपर और महान बताने वाली लोकलुभावन छवि में भी दिखते रहते हैं. इसलिए आश्चर्य नहीं कि वे इसी के मुताबिक सजते-संवरते हैं.
आखिर, जहां भी जाते हैं वहां उनके वाहन के ऊपर गुलाब की पंखुड़ियों की बारिश की जाती है. यह सब एक भव्य नज़ारा ही होता है. शुद्ध राजनीतिक लिहाज से तो यह उनकी पार्टी के लिए चिंता का कारण होना चाहिए क्योंकि होलोग्राम के सिवा वे हर कहीं मौजूद नहीं हो सकते. यह हिमाचल प्रदेश के चुनाव नतीजे से साफ हो चुका है.
कई विश्लेषक और शिक्षाविद विस्तार से और उचित ही इस बात की आलोचना कर चुके हैं कि भारतीय लोकतंत्र को आज केवल चुनावों के इर्दगिर्द सिमटा दिया गया है. आज ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जो भारतीय लोकतंत्र के लिए गलत और खतरनाक है. मैं यहां उन सबको गिनाऊंगी नहीं लेकिन कई विश्लेषकों के विपरीत मैं चुनावों को एक बड़ी कसौटी और खेल मानती हूं, हालांकि इसके खिलाड़ी खुद को बदलने की जगह खुद को खेल के मुताबिक ढाल रहे हैं.
नये सितारे
मामूली चायवाले से सर्वशक्तिमान बनने तक की मोदी की कहानी अब अनूठी नहीं रह गई है. यह सफर कई लोग तय कर रहे हैं, चाहे उनका पैमाना और उनकी सफलता तुलनात्मक रूप से छोटी दिखती हो.
बडगाम में मेवाणी ने क्राउड फंडिंग के बूते जो जोशीला अभियान चलाया वह गुजरात में सबसे कड़ा चुनावी मुक़ाबला था, भारत के प्रतिस्पर्द्धी लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत है. नीचे से ऊपर उठने के उनके सतत संघर्ष की कहानी लोकतंत्र की गरिमा में वृद्धि करती है. छात्र नेता, एक्टिविस्ट, पत्रकार, और अब दूसरी बार सत्ता में. मेवाणी ने पैसे, बाहुबल और राजनीति में सिद्धांतों के प्रति उपेक्षा से मुक़ाबला किया. यह परिवर्तन लाने की राजनीति की ताकत को खामोशी से और निश्चित रूप से रेखांकित करता है.
मेवाणी बाहरी हो सकते हैं क्योंकि उन्होंने भारतीय राजनीति में हावी चलन को तोड़ा है. हाल के एकेडमिक लेखन के मुताबिक, भारत में विविध सामाजिक तबके जब चुनाव प्रक्रिया में ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी करने लगे हैं तब राजनीतिक नेतृत्व विशिष्टतावादी होता जा रहा है.
सार यह कि मतदाताओं की मजबूत भागीदारी के बावजूद, विविधता से मुक्त व्यक्तित्व की ताकत भारतीय लोकतंत्र के प्रातिनिधिक स्वरूप को कमजोर कर रही है. बस ड्राइवर का बेटा होने के कारण साधारण पृष्ठभूमि का होने के बावजूद सुक्खू हिमाचल की सामंती राजनीति में उभरकर सामने आए. ये सब बेशक बाहरी रहे हों, लेकिन ये दोनों एक मिसाल के रूप में उभरे हैं क्योंकि वे बेहद खर्चीली, बेहद प्रतियोगी और हर तरह से पहुंच से परे चुनाव व्यवस्था में से उभरे हैं.
मेवाणी की जीत यह भी दर्शाती है कि भारत की दलीय राजनीति के सामाजिक आधार में स्पष्ट उथलपुथल हो रहा है. उनकी जीत ऐसे निर्णायक मोड़ पर हुई है जब दलित शक्ति ने अपनी मुख्य प्रतिनिधि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को लगभग खो दिया है. दलित राजनीति को मेवाणी के रूप में अंततः एक ऐसा युवा नेता मिल गया है जो बड़े मुक़ाबले जीत सकता है. साथ ही, भाजपा को गुजरात के जनजातीय क्षेत्रों में अभूतपूर्व समर्थन मिला है.
कांग्रेस ने उत्तर भारत के राज्य में ठोस जीत हासिल की है, और मीडिया अब उसे यूं ही खारिज नहीं कर सकता. ‘राष्ट्रीय पार्टी’ का सरकारी दर्जा हासिल करने के बावजूद आप अभी भी दिल्ली का दम ही भर रही है.
दलीय राजनीति के बदलते सामाजिक तथा क्षेत्रीय आधार पर विशेष चर्चा करने की जरूरत है. और मैंने विचारधारा की बात तक नहीं की है. अगर व्यक्तित्व ही सर्वोपरि है, तो अब वह एकमात्र संप्रभु नहीं हो सकता. मोदी ने खुद को इंदिरा गांधी के रूप में ढालने की कोशिश की होगी या नहीं भी की होगी. उनकी विशाल हस्ती की प्रतिक्रिया में भारत में बहु-दलीय लोकतंत्र का उभार हुआ, और अमिताभ बच्चन की सुपर स्टारडम के जवाब में मल्टी-स्टार ब्लॉकबस्टर फिल्मों का आगाज हुआ. अगर चुनाव अब जनता का नया मनोरंजन है, तो ताजा चुनाव यही संदेश देते हैं कि पिक्चर अभी बाकी है.
(श्रुति कपिला कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में इंडियन हिस्ट्री और ग्लोबल पॉलिटिकल थॉट की प्रोफेसर हैं. वह @shrutikapila पर ट्वीट करती हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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(अनुवाद: अशोक कुमार)
(संपादन: अलमिना खातून)
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