जातीय मसले अब नेपथ्य में चले गए हैं, असम के लोग शेष भारत के मतदाताओं से सहजता से जुड़ रहे हैं और उनकी तरह पानी, बिजली, सड़क, बुनियादी ढांचे, जनहित योजनाओं, रोजगार जैसे मसलों पर बात कर रहे हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि 2016 के बाद से असम के राजनीतिक डीएनए में भारी परिवर्तन हो गया है.
असम में यात्रा करते हुए मतदाताओं से नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के बारे में कुछ भी न सुन पाना अपने आप में एक मार्के की बात लगी. न तो कोई सीएए के बारे में बात करता मिला, न असम की पहचान की रक्षा के बारे में. इन मसलों के प्रति प्रतिक्रिया ठंडी दिखी और अधिकतर मतदाता यही कहते मिले कि यह अब कोई मुद्दा नहीं रह गया है.
इससे भी ज्यादा हैरत की बात यह है कि जातीय पहचान अब किसी बड़ी पहचान में समाहित हो रही है, जिसे कभी प्राथमिकता नहीं हासिल थी. सो, पूरा भारत जबकि यह मानता है कि असम के राजनीतिक माहौल में जातीय मसले ही हावी रहते हैं, जमीनी हकीकत तेजी से बदल रही है.
नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा असम में नुमाया बदलाव अधिक गंभीरता से लाने में सफल हुई है. सबसे पहले ध्यान इस ओर जाता है कि राज्य का चेहरा नया हो गया है— ज्यादा सड़कें, विशाल पुलें और मेडिकल तथा दूसरी पढ़ाई के लिए ज्यादा संस्थान. इन चौड़ी सड़कों और लंबे पुलों के नीचे एक बड़ा बदलाव दबा पड़ा है, जो असम के सामाजिक-राजनीतिक माहौल को जातीय पहचान के कट्टरपंथी मसलों से व्यापक और शायद धर्म-आधारित छतरी के नीचे ले जाता है.
जिस राज्य में जातीयता दशकों तक सामाजिक-राजनीतिक चिंतन और आंदोलन का मुख्य उत्प्रेरक रही हो, वहां पहचान के नाम पर चले जिहाद के मूल सिद्धांत के खिलाफ जाने वाला सीएए आज कोई मुद्दा नहीं रह गया है. भाजपा ने असम में सीएए का जुआ खेला मगर ऐसा लगता है कि इससे उसे खास नुकसान नहीं हुआ है.
मोदी-शाह की भाजपा नये क्षेत्रों में अपने पैर जमाना ही नहीं जानती है बल्कि वहां के माहौल को अपनी राजनीति और विश्वदृष्टि के हिसाब से बदलना भी जानती है. यह इस पार्टी को एक ऐसा सक्षम और सख्त प्रतिद्वंदी बनाती है, जो खेल के बीच में ही खेल के नियम बदल सकती है और जिसका अंदाजा उसके विरोधी नहीं लगा पाते.
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असम में स्पष्ट परिवर्तन
असम में ‘बहिरागतों’ के खिलाफ असंतोष का इतिहास बहुत पुराना है. ‘बहिरागत’ माने मूल असमी नहीं, बाहर से आकर बस गया आदमी. यह असंतोष धर्म या क्षेत्र पर आधारित नहीं था. 1980 और 1990 के दशकों में बंगालियों, मारवाड़ियों, बिहारियों, आदि के खिलाफ छह साल तक असम आंदोलन चला, जो हिंसक भी हुआ. राज्य के संसाधनों में हाथ डालने वाला कोई भी ‘विदेशी’ वहां के देसी लोगों को मंजूर नहीं था.
हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देने का वादा करने और असम में रह रहे लाखों ‘बिदेशियों’ को वैधता प्रदान करने का वादा करने वाला जो सीएए कानून दिसंबर 2019 में बनाया गया, उसका असम के कुछ हिस्सों में विरोध तो किया गया मगर चुनाव के दौरान ऐसा लग रहा है कि यह मुद्दा मतदाताओं के दिमाग में गौण हो गया है.
उदाहरण के लिए, नगांव में एक मतदाता ने साफ कहा कि सीएए से कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि यह हिंदू शरणार्थियों को कबूल करने के लिए है और भारत चूंकि एक हिंदू राष्ट्र है, तो इस समुदाय की फिक्र करना हमारा ‘दायित्व’ भी बनता है.
कई दूसरे लोग भी ऐसी ही भावना को प्रतिध्वनित करते हैं. हिंदू, भारत जैसे शब्दों ने, जो कभी असम के राजनीतिक, सामाजिक या सांस्कृतिक शब्दकोश में शामिल नहीं थे, आज ‘बिदेशी’, ‘असमिया मान्हू’ जैसे शब्दों की जगह ले ली है.
अगर यह अस्थायी दौर नहीं बल्कि दीर्घकालिक स्थिति है तो यह असम के लिए भारी बदलाव है. वास्तव में, आज के संदर्भ में देखें तो राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर में संशोधन की जो मांग असम आंदोलन के समय से की जा रही थी वह असमी बनाम ‘बहिरागत’ विवाद के समाधान में बाधा ही बन गई. देसी असमी लोगों की पुरानी मांग पूरी होने से संतुष्ट होने की जगह लोग इस अराजकता से ज्यादा परेशान थे. जातीयता का मसला तभी गौण हो गया था मगर हम इसके संकेत नहीं पढ़ पाए.
यह चुनाव इस तथ्य को और प्रमुखता से उभार रहा है. कुछ लोग कहते हैं कि सीएए विरोधी भावना अब गौण हो चुकी है. यह अगर सच भी हो तो यह बात काबिले गौर है कि जो भावना कभी इतनी मुखर थी वह आज गौण हो गई है. और यह बहुत कुछ कहती है.
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भाजपा का असर
वैश्वीकरण के इस दौर में जबकि आकांक्षाओं को बाहर की दुनिया से जोड़ने की जरूरत बढ़ गई है, जातीय पहचान के प्रबल आग्रह का गौण हो जाना कोई उलटी बात नहीं है. असम में, खासकर युवाओं में 1970 और 1980 वाली अलग दुनिया की जो प्रबल मांग थी वह आज शायद ही प्रासंगिक रह गई है.
मोदी और शाह की भाजपा ने इसे समझ लिया. यह पार्टी असम का हिस्सा नहीं रही है बल्कि एक तरह से ‘बहिरागत’ जैसी रही है. भाजपा के लिए भी जातीयता कभी एक बड़ा मुद्दा नहीं बनने वाली थी इसलिए उसे अपना सुर तेजी से बदलना ही था. मोदी-शाह और आरएसएस ने समझ लिया कि असम के बदलते सामाजिक-राजनीतिक माहौल का लाभ उठाने की जरूरत है और उन्होंने इस माहौल को अपने पक्ष में करने का फैसला कर लिया.
भाजपा-आरएसएस ने उन अधिक मौलिक मुद्दों को उभारने की व्यवस्थित कोशिश की है, जो हरेक मतदाता को छूते हैं. इसलिए मोदी और उनकी टीम सड़कों, पुलों, कॉलेजों, अस्पतालों और जनहित योजनाओं की बात करती है. इतना ही महत्वपूर्ण यह है कि वह हिंदू बनाम मुस्लिम, असम के ‘जिन्नाकरण’ और ‘लव जिहाद तथा जमीन जिहाद’ की भी बातें करती है. उन्होंने असम में एक नया विमर्श, एक नयी भाषा शुरू कर दी है, जो उसके मौजूदा राजनीतिक माहौल के लिए उपयुक्त है और जिसके जरिए वे अपनी ताकत से खेल सकते हैं.
इस पर गौर कीजिए. राज्य में भाजपा के दो बड़े नेता मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल और वरिष्ठ मंत्री हिमंता बिस्वा सरमा बाहर के ही हैं. उन्होंने छात्र राजनीति से अपनी शुरुआत की थी, जो असम में बहिरगतों के खिलाफ आंदोलन के केंद्र में थी. लेकिन आज इन्हीं नेताओं के तहत पार्टी के लिए जातीयता कोई मुद्दा नहीं है और वे मोदी-शाह की भाजपा की भाषा बोल रहे हैं.
यह भाजपा को एक खतरनाक प्रतिद्वंदी बनाता है. वह असम में सत्ता में वापस आए या न आए, राज्य का बदला हुआ सुर यही बताता है कि मोदी और शाह नये क्षेत्रों को जीतने, उसे अपना बनाने और वहां के लोगों को अपने सोच में ढालने की कला जानते हैं .
असम के हरदिलअजीज सांस्कृतिक ‘आइकन’ भूपेन हजारिका ने 16 साल की उम्र में ही लिख दिया था— ‘अग्निजुगोर फिरींगोती मोई, नोतुन असोम गोढ़िम’ (मैं अग्नियुग की चिनगारी हूं, मैं एक नया असम बनाऊंगा). दशकों बाद, ऐसा लगता है कि ऐसा ‘नया असम’ बनाना मोदी और शाह की भाजपा का मकसद बन गया है जिसकी हजारिका ने शायद ही कल्पना की होगी.
(व्यक्त विचार निजी हैं)
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लेखक की खुद की जातिवादी सोच देखिए….. देश की सबसे बडी जातिवादी पार्टी के जातिवाद को क्लीन chit दे रही