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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतअशोका यूनिवर्सिटी का असली मुद्दा फंड करने वाले 'सूट' और इसे चलाने वाले 'बूट' के बीच टकराव है

अशोका यूनिवर्सिटी का असली मुद्दा फंड करने वाले ‘सूट’ और इसे चलाने वाले ‘बूट’ के बीच टकराव है

अशोका की गवर्निंग बॉडी को सुशोभित करने वाले 'सूट' ढीले कुर्ते त्यागने पर अच्छा काम करेंगे. पेपर की खूबियों के बजाय प्रबंधन की विनम्रता चर्चा का विषय बन गई.

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भारत की प्रमुख उदार कला संस्थानों में से एक, अशोका यूनिवर्सिटी का भविष्य संकट में है. यह कोई बढ़ा-चढ़ा कर कही गई बात नहीं है. विडंबना यह है कि यूनिवर्सिटी को इस संकटमय स्थिति में लाया उसके एक सहायक प्रोफेसर सब्यसाची दास द्वारा लिखे गए अतिशयोक्तिपूर्ण शोध पत्र ने. लेकिन, इस मुद्दे का मूल इस रिसर्च की विश्वसनीयता नहीं है बल्कि लिबरल आर्ट्स यूनिवर्सिटी को फंड करने वाले ‘सूटों’ और इसे चलाने वाले ‘बूटों’ के बीच संस्कृति, लोकाचार और उद्देश्य का टकराव है.

‘डेमोक्रेटिक बैकस्लाइडिंग इन द वर्ल्डस लार्जेस्ट डेमोक्रेसी’ टाइटल वाले रिसर्च पेपर में दास ने स्थापित शोध विधियों का इस्तेमाल करके भारतीय चुनावों के अनोखे और रचनात्मक डेटासेट का विश्लेषण किया है. लेकिन विश्लेषण से कुछ भी नया या ठोस पता नहीं चलता, 2019 के लोकसभा चुनाव में हेरफेर के सबूत तो दूर की बात है. चुनाव डेटा और शोध विधियों की उचित जानकारी रखने वाला कोई भी व्यक्ति आसानी से अनुमान लगा सकता है कि युवा प्रोफेसर विश्लेषण में बह गए और उन्होंने बड़ी तस्वीर खो दी.

अगर उद्देश्य भारत में ‘डेमोक्रेटिक बैकस्लाइडिंग’ का प्रमाण प्रस्तुत करना था, तो प्रोफेसर को हम विपक्ष में किसी एक से बात करनी थी ठोस उदाहरणों और घटनाओं के लिए. उन्हें डेटा की ऐसी विकृतियों का सहारा नहीं लेना पड़ता. यह स्थापित करना कि भारतीय लोकतंत्र को नरेंद्र मोदी के अधीन दबाया जा रहा है उतना ही आसान है जितना यह स्थापित करना कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका में संस्थानों को नष्ट किया — इसके लिए जटिल विश्लेषण की आवश्यकता नहीं है.


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पेपर को अशोका की दख़लअंदाज़ी की ज़रूरत नहीं थी

रिसर्च पेपर के अतिशयोक्तिपूर्ण शीर्षक ने सोशल मीडिया पर सबका ध्यान आकर्षित किया और तीखी बहस छिड़ गई. यह स्वाभाविक था कि सत्तारूढ़ बीजेपी के सदस्य, जो बाज़ की तरह सोशल मीडिया पर होने वाली बातचीत पर नज़र रखते हैं, हरकत में आएंगे और संभवतः प्रतिक्रिया देने के लिए यूनिवर्सिटी के प्रबंधन को धमकाएंगे. हुआ भी ऐसा ही. व्यवसायी लोग, जो मुख्य रूप से अशोका यूनिवर्सिटी को इसके प्रशासनिक परिषद के माध्यम से फंड देते हैं और संचालन करते हैं, जब उन्हें झुकने के लिए कहा गया तो वे रेंगने लगे, ठीक उसी तरह जैसे इंडिया इंक के ‘सूटों’ ने पिछले नौ वर्षों में किया है.

अशोका यूनिवर्सिटी ने एक भयभीत बयान जारी करके ना सिर्फ प्रोफेसर और उनके रिसर्च दोनों से खुद को अलग कर लिया बल्कि इस बहस का हिस्सा बन गए. इसकी कोई जरूरत ही नहीं थी. इसने घटनाओं का चक्रव्यूह खड़ा कर दिया, जिसके बाद अशोका यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र, अंग्रेजी, पॉलिटिकल साइंस और समाजशास्त्र विभाग ने सार्वजनिक रूप से प्रबंधन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया, और अधिक शैक्षणिक स्वतंत्रता की वकालत करने लग गए. यानी, भारत के प्रमुख लिबरल आर्ट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर उन ‘सूटों’ से अधिक स्वतंत्रता की मांग कर रहे हैं जो उन पर शासन करते हैं.

रिसर्च पेपर का मूल्यांकन ‘शैक्षणिक प्रतिष्ठा बाज़ार’ में अन्य विद्वानों के द्वारा समीक्षाओं और आलोचनाओं के जरिए किया जा रहा होता. उचित रूप से कुशल ‘प्रतिष्ठा बाजार’ में दास के पेपर को सनसनीखेज माना गया होता जिससे प्रोफेसर की अकादमिक विश्वसनीयता दांव पर लगती. लेकिन धमकाए जाने पर अपने एक बयान से अशोका यूनिवर्सिटी के प्रबंधन ने विकृत प्रोत्साहन शुरू कर दिया और पेपर के मूल्यांकन की बात कहीं खो गई. पेपर की खूबियों के बजाय प्रबंधन की अधीनता चर्चा का विषय बन गई. यह व्यवसायियों का क्लासिक कॉर्पोरेट रिस्पॉन्स था. एक संवेदनशील मुद्दा जो अनावश्यक राजनीतिक ध्यान आकर्षित करता है, उसे तुरंत दबा देना चाहिए – या तो खुद को अलग करके या माफी मांगकर. यह कॉर्पोरेट संचार की मानक संचालन प्रक्रिया है. फ़र्क़ सिर्फ इतना ही है कि यह एसओपी (स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर) लिबरल आर्ट यूनिवर्सिटी में काम नहीं करता.


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ढीले कुर्ते को टाइट सूट की जगह लेनी चाहिए

दक्षता एक जन्मजात गुण है जो कॉर्पोरेट क्षेत्र में अधिकांश फैसलों का केंद्रबिंदु है. कॉर्पोरेट या फर्म दक्षता के सिद्धांत के समक्ष संगठित होते हैं. दक्षता प्रक्रियाओं और नियमों द्वारा निर्धारित अनुरूपता और आज्ञाकारिता के जरिए हासिल की जाती है. कॉर्पोरेट के सन्दर्भ में देखा जाए तो गैर-अनुरूपता या अवज्ञा मौजूदा संतुलन और दक्षता को बाधित करने का खतरा पैदा करता है. यही कारण है कि निगमों ने ऐतिहासिक रूप से यूनियनों का विरोध किया क्योंकि यह संगठित अवज्ञा का प्रतिनिधित्व करता है, जो दक्षता के लिए अभिशाप है. इससे यह भी पता चलता है कि ज्यादातर निगम सामाजिक मुद्दों में शामिल होने या मजबूत स्थिति लेने से क्यों कतराते हैं, जिसे उनके दक्षता पथ से विचलन के रूप में देखा जाता है. इस तरह के विचलन की कोई भी झलक ‘प्रबंधन’ को बाध्य करती है कि संस्था को तत्काल स्थापित पथ पर वापस लाया जाये.

यह मूल रूप से एक लिबरल आर्ट यूनिवर्सिटी के उद्देश्य के उलट है, जो असहमति, अव्यवस्था और विचलन को प्रोत्साहित करता है, जिससे ‘विचार बाजार’ को प्रक्रियाओं और नियमों के माध्यम से निर्देशित करने के बजाय एक निश्चित संतुलन पर पहुंचने की अनुमति मिलती है. मौलिक रूप से भिन्न बातें कहना या परंपरा को चुनौती देना लिबरल आर्ट्स यूनिवर्सिटी का रिवाज़ होता है. बेशक, ये सब शांति और सामाजिक सद्भाव बनाए रखने की व्यापक अनिवार्यता के तहत होना चाहिए. यह कॉर्पोरेट प्रबंधन की आज्ञाकारिता, अनुरूपता और दक्षता के प्रति जन्मजात प्रवृत्ति से टकराता है.

यह पहली बार नहीं है कि अशोका यूनिवर्सिटी खुद को स्वतंत्रता और आज्ञाकारिता के कटघरे में खड़ा पा रहा है. इससे पहले यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर प्रताप भानु मेहता ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दमन के कारणों से इस्तीफा दे दिया. कैंपस में ‘स्वतंत्रता’ के मुद्दे पर प्रबंधन के खिलाफ छात्रों के विरोध प्रदर्शन के  भी कई मामले सामने आए. हालांकि अशोका की प्रशासनिक परिषद को व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं या लोकप्रियता के लिए विश्वविद्यालय को एक सीढ़ी की तरह उपयोग करने वाली फैकल्टी और छात्रों के बारे में उचित शिकायतें हो सकती हैं, लेकिन यह अवज्ञाकारी ‘कर्मचारियों’ के खिलाफ कॉर्पोरेट-शैली ‘प्रबंधन कार्रवाई’ की गारंटी नहीं देता है. एक लिबरल आर्ट्स यूनिवर्सिटी के फैकल्टी किसी ‘फर्म’ के कर्मचारी नहीं हैं, न ही कोई यूनिवर्सिटी किसी कॉर्पोरेट अर्थ में एक संगठन है.

कॉर्पोरेट जगत के विपरीत, यूनिवर्सिटी के प्रबंधन को हस्तक्षेप करने और विचलन के हर प्रतीत होने वाले कार्य को ‘सही’ करने के प्रलोभन का विरोध करना होगा. अफसोस की बात है कि बार-बार हस्तक्षेप से अशोका यूनिवर्सिटी के प्रबंधन ने अपनी फैकल्टी, छात्रों और इच्छुक छात्रों को यूनिवर्सिटी के भविष्य के बारे में गलत और चिंताजनक संकेत भेजे हैं.

अशोका यूनिवर्सिटी के संस्थापक और इसका प्रबंधन प्रशंसा के पात्र हैं कि उन्होंने बहुत ही कम समय में इतनी प्रतिष्ठा और दृढ़ता वाला संस्थान बनाया जो वैश्विक शिक्षा जगत में भारत को गौरवान्वित करता है. इस शानदार उपलब्धि के पीछे उनका आदर्श ज़रूर दक्षता हासिल करना रहा होगा. लेकिन शायद, अब समय आ गया है कि वे एक उदार कला विश्वविद्यालय के प्रबंधन में कॉर्पोरेट गुणों की सीमाओं को पहचानें. अशोका की ‘गवर्निंग बॉडी’ को सुशोभित करने वाले ‘सूट’ को त्याग कर ढीले कुर्ते अपनाने होंगे.

प्रवीण चक्रवर्ती पॉलिटीकल इकॉनिमिस्ट हैं और कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारी हैं. इनका ट्विटर हैंडल @pravchak है. विचार व्यक्तिगत हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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