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Sunday, 22 December, 2024
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अशोक गहलोत कांग्रेस के दूसरे अहमद पटेल बन सकते हैं, शर्तें लागू…

अहमद पटेल और तरुण गोगोई की मृत्यु ने कांग्रेस और गांधी परिवार के लिए ऐसे काबिल नेताओं को तलाशने की दुष्कर चुनौती पेश कर दी है, इसे सुलझाने के लिए पार्टी में बहुत ही कम उम्मीदवार हैं.

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कांग्रेस के लिए अब सबसे कठिन सवाल यह है कि अगला अहमद पटेल कौन बनेगा? क्या अपने लंबे राजनीतिक अनुभव से तपे-तपाए नेता, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पार्टी के लिए राष्ट्रीय स्तर के मुख्य रणनीतिकार बन सकते हैं? या गांधी परिवार के लिए एक ही विकल्प रह गया है कि वह एक नया अहमद पटेल तैयार करे?

पटेल और तरुण गोगोई की मृत्यु ऐसे समय पर हुई है जिससे बुरा समय कांग्रेस के लिए दूसरा कोई नहीं हो सकता था. पार्टी के सामने एक अभूतपूर्व समस्या खड़ी हो गई है. इन दोनों नेताओं की कमी आसानी से कोई नहीं पूरी कर सकता है. वे दोनों अपनी-अपनी तरह से पार्टी के लिए अपरिहार्य थे.

आज जबकि कांग्रेस अपना वजूद बनाए रखने की जद्दोजहद में जुटी है, उसमें आमूलचूल बदलाव की जरूरत है; चुनावों में खुद को साबित करना, नये दोस्त बनाना और पुरानों को साथ बनाए रखना बेहद जरूरी है. ऐसे समय में पटेल की मौजूदगी बेहद महत्वपूर्ण होती.

अब पटेल की कमी की भरपाई कौन करेगा? क्या पार्टी में ऐसा कोई वरिष्ठ कोई नेता है, जो सियासत की समझ रखता हो, सभी दलों में जिसके प्रति सम्मान का भाव हो, और जिस पर राहुल गांधी को भरोसा हो? इस सवाल का जवाब आसान नहीं है, लेकिन राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत इन कसौटियों पर काफी हद तक खरे उतरते हैं.

जहां तक तरुण गोगोई की बात है, असम में कांग्रेस के वे एकमात्र असली नेता थे, जो विधानसभा चुनाव से चंद महीने पहले गुजर गए. अब कांग्रेस वहां अपना सफाया नहीं होने दे सकती. उसके लिए संकट एक जैसा है— निकट भविष्य में किसी विकल्प का न होना.


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अगले अहमद पटेल

यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अहमद पटेल के बिना कांग्रेस वही नहीं रह जाएगी, जो वह पहले थी. गुजरात के भड़ूच के इस नेता के अनूठे कौशल, भारतीय राजनीति पर उनकी पकड़, अंतरिम पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के लिए उनकी अपरिहार्यता के बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है. इसलिए, अब बड़ा सवाल यह है कि पटेल कांग्रेस के मुख्य रणनीतिकार, और आलाकमान के चतुर सलाहकार की जो भूमिका निभाते थे वह अब कौन निभाएगा? वास्तव में भाजपा के चाणक्य माने जाने वाले अमित शाह को अगर कोई तगड़ी चुनौती दे सकता था तो ये पटेल ही थे.

कांग्रेस के लिए विडंबना यह है कि पटेल की जगह लेने वाला उनकी टक्कर का शायद ही कोई नाम उसके सामने उभर रहा है. लेकिन सारे अहम विकल्पों पर नज़र डालने के बाद, भारतीय राजनीतिक परिदृश्य की गहरी समझ रखने वाले, इस कीचड़ में उतरने को तैयार, दोस्तों और दुश्मनों तक समान पहुंच रखने की क्षमता साबित कर चुके अनुभवी नेता अशोक गहलोत का नाम इस सवाल के जवाब के रूप में तुरंत सामने उभरता है.

गहलोत ने राजस्थान में काम करके दिखाया है, वे संगठन के पक्के नेता हैं, राजनीति की क्या मांगें हो सकती हैं इसकी उन्हें गहरी समझ है, और वे गांधी परिवार के प्रति वफादार हैं, पेचीदगियों से निबटने के मामले में वे जुगाड़ू हैं, सभी दलों के नेताओं का सम्मान उन्हें हासिल है, और सचिन पायलट प्रसंग ने साबित कर दिया है कि चाणक्य नीति के मामले में वे युवा नेताओं से कोसों आगे हैं.

गहलोत राहुल गांधी के भी चहेते हैं. अगर भविष्य में दोनों को मिलकर काम करना है तो इस लिहाज से यह बात बहुत महत्वपूर्ण है. दिग्विजय सिंह और कमलनाथ जैसे अपने समकालीनों की तुलना में गहलोत इस भूमिका के लिए सबसे उपयुक्त लगते हैं. दिग्विजय सिंह अस्थिर मिजाज के हैं और बयान देकर पलटने की आदत से ग्रस्त रहे हैं. कमलनाथ में मुश्किल स्थितियों से निबटने का कौशल तो है मगर मध्य प्रदेश में अपनी गद्दी न बचा पाने के कारण उनकी स्थिति काफी कमजोर पड़ चुकी है.

प्लान बी

पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह अच्छे उम्मीदवार हो सकते थे मगर वे 80 की उम्र छू रहे हैं, और अब वे ज्यादा समय तक राजनीति में सक्रिय नहीं रह सकते. छतीसगढ़ के भूपेश बघेल को राष्ट्रीय राजनीति का बहुत अनुभव नहीं है. जयराम रमेश जैसे नेता पर्दे के पीछे सलाहकार की भूमिका निभा सकते हैं मगर चुनावी राजनीति के दांवपेचों को इतना नहीं समझते कि संकटमोचन की भूमिका निभा सकें. मल्लिकार्जुन खड़गे अनुभवी नेता हैं मगर वे नियमों के हिसाब से चलने के लिए ज्यादा जाने जाते हैं, वे ठेठ सियासतदां वाली भूमिका में नहीं आ सकते. कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद जैसे वरिष्ठ नेताओं में वह राजनीतिक कौशल और दमखम नहीं है.

युवाओं में राहुल गांधी महासचिव रणदीप सिंह सुरजेवाला के करीब हैं, जो पूर्व पार्टी अध्यक्ष के भरोसेमंद सहायक के रूप में उभरे हैं. लेकिन सुरजेवाला में अनुभव की कमी है, उनकी वह पहुंच या प्रवृत्ति नहीं है जिसके लिए पटेल मशहूर थे. 2017 में गुजरात के चुनाव से ठीक पहले सुरजेवाला ने जिस तरह राहुल को ‘जनेऊधारी’ ब्राह्मण घोषित किया था वह कांग्रेस पार्टी को वर्षों तक परेशान करता रहेगा.

‘टीम राहुल’ में पर्दे के पीछे काम करने वाले कनिष्क सिंह से लेकर अलंकार सवाई तक सभी ‘टेक्नोक्रैट’, एमबीए टाइप प्लानर ज्यादा हैं, भारतीय राजनीति क्या चीज है इसकी उन्हें कम ही समझ है.

गहलोत सबसे उपयुक्त उम्मीदवार के रूप में तो उभरते हैं मगर वे भी सर्वश्रेष्ठ विकल्प नहीं नज़र आते. अगले साल वे 70 के हो जाएंगे, यानी उम्र के लिहाज से वे बहुत मजबूत नहीं हैं. चुनावी राजनीति के मामले में वे मुख्यतः राजस्थान में ही सीमित रहे हैं और पटेल के मुक़ाबले दिल्ली में उनकी पैठ बहुत गहरी नहीं है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सचिन पायलट जिस तरह उनके लिए चुनौती बने हुए हैं, उन्हें अपना गढ़ और अपनी गद्दी बचाने की ज्यादा फिक्र रहेगी.

जाहिर है, कांग्रेस को कोई दूसरा अहमद पटेल तैयार करना पड़ेगा. इतना तो तय है कि आज कांग्रेस के तमाम नेता यही कह रहे हैं कि ‘टीम राहुल’ में कोई ऐसा नहीं है जो इस भूमिका को निभा सके. उनका आकलन सही भी हो सकता है. लेकिन पटेल भी कोई जन्मजात ‘चाणक्य’ नहीं थे, उन्होंने खुद को इस भूमिका में ढाला, और सोनिया गांधी से पक्का तालमेल करके अपनी स्थिति चट्टान जैसी मजबूत बना ली थी.

त्रासदी यह है कि राहुल गांधी के पास इतना समय और इतनी छूट नहीं है कि वे एक नया पटेल तैयार कर सकें, जिसकी उन्हें तुरंत जरूरत है. कांग्रेस एक के बाद एक चुनाव और राज्य हार रही है, और अब उसके लिए सहयोगियों को भी एक के बाद एक खोने का खतरा पैदा हो गया है. उसे फौरन एक ऐसे रणनीतिकार की जरूरत है, जो कम-से-कम उसके वजूद को बनाए रखने में मदद करे.

तरुण गोगोई के बाद क्या?

अब राजस्थान से असम, उत्तर-पूर्व की ओर चलें. असम में तरुण गोगोई ही कांग्रेस के एकमात्र नेता बचे थे. बेहद कामयाब नेता और सबसे लंबे समय तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे गोगोई ने उत्तर-पूर्व के इस राज्य में पार्टी को हमेशा आगे बढ़ाया. लेकिन असम को एकजुट रखने वाले ताकतवर नेता गोगोई को कांग्रेस के दिग्गज नेताओं में हमेशा कमतर करके आंका जाता रहा.

सीधी बात यह है कि असम में कांग्रेस का असल में अब कोई नेता नहीं रहा. हिमन्त बिसवा सरमा को भाजपा में जाने देना उसके लिए आत्मघाती हुआ. और अब गोगोई के निधन से जो शून्य पैदा हुआ है वह बहुत बड़ा और वास्तविक है. गौरव गोगोई को राज्य में पार्टी का नेतृत्व संभालने और अपने पिता की क्षमता की बराबरी करने में अभी लंबा समय लगेगा. उन्हें राज्य को ज्यादा समय देना पड़ेगा, पार्टी संगठन पर पकड़ मजबूत बनानी पड़ेगी और चुनावों में अपना कौशल दिखाना पड़ेगा. रिपुन बोरा और विधानसभा में विपक्ष के नेता देबब्रत सैकिया जैसे वरिष्ठ नेताओं ने अभी तक कोई खास संभावनाएं नहीं उजागर की हैं. न तो वे गोगोई जैसे लोकप्रिय हैं, और न पार्टी संगठन पर उनकी वैसी पकड़ है.

असम में चुनावों को कवर करने के लिए व्यापक दौरे करते हुए मैंने देखा था कि गोगोई की लोकप्रियता कितनी व्यापक थी, चाहे वह 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले की बात क्यों न रही हो, जिसमें नरेंद्र मोदी ही छाये हुए थे और कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद बुरा रहा था. अब गोगोई सरीखे पुराने दौर के नेता मिलने मुश्किल हैं, जिन्हें पार्टी के पतन के बावजूद व्यापक सम्मान हासिल था और जनता में जिनका आकर्षण चुनावी नतीजों से प्रभावित नहीं होता था.

असम में कांग्रेस के लिए अब परीक्षा की घड़ी है. अगले साल के विधानसभा चुनाव में उसे बुरा प्रदर्शन करने से बचना होगा. भाजपा ने कम समय में ही राज्य पर पकड़ बना ली है. लेकिन कांग्रेस की बुरी पराजय निकट भविष्य में उसकी वापसी की संभावना को बेहद क्षीण कर देगी. उसे सम्मानजनक प्रदर्शन करना होगा, और राज्य में मैदान में बने रहना होगा. असम में अब दोहरी चुनौती है. असम गण परिषद और बदरुद्दीन अजमल की ‘एआइयूडीएफ’ भी हाशिये के खिलाड़ियों के रूप में मौजूद हैं. भाजपा ने खुद को वहां ताकतवर जरूर बना लिया है मगर असम दूसरा राजस्थान बन सकता है, जहां दो दल बार-बारी से सत्ता में आते रहते हैं, बशर्ते कांग्रेस अपना आधार साबुत बनाए रखे.

ऐसा लगता है कि अहमद पटेल और तरुण गोगोई की मृत्यु ने कांग्रेस और गांधी परिवार के लिए दुष्कर चुनौती पेश कर दी है, ऐसे काबिल नेताओं को तलाशने की चुनौती, जिनमें इन नेताओं द्वारा खाली की गई जगह को भरने की उस प्रतिभा का थोड़ा भी अंश हो जिसके बूते इन दोनों ने पार्टी के लिए बड़े योगदान दिए.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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