सीबीआई की एक विशेष अदालत ने 15 सितंबर को उदयपुर के लक्ष्मी विलास पैलेस होटल की बिक्री के 2002 के मामले में अरुण शौरी के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही चलाने का आदेश दिया है. तीन अन्य व्यक्तियों के साथ 1966 बैच के सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी प्रदीप बैजल को भी मामले में नामजद किया गया है. न्यायाधीश पूरन कुमार शर्मा ने सीबीआई की 2019 की क्लोज़र रिपोर्ट को खारिज करते हुए कहा कि अटल बिहारी वाजपेयी मंत्रिमंडल में विनिवेश मंत्री के तौर पर शौरी और उनके सचिव के रूप में बैजल ने ‘सामूहिक और स्वतंत्र रूप से अपने पदों का दुरुपयोग किया’ था, जिससे सरकार को 244 करोड़ रुपये का चूना लगा. मेसर्स कांति करमसी एंड कंपनी को भी आरोपित किया गया है, जिसने होटल की संपत्ति का मूल्यांकन 45 रुपये प्रति वर्ग फुट की दर से किया था. इस बारे में जज ने कहा कि ‘होटल का एक चम्मच भी इससे महंगा होगा.’ उनके अनुसार, होटल की बिक्री मामले में अभियुक्तों के खिलाफ प्रथमदृष्टया आपराधिक साजिश और धोखाधड़ी का मामला बनता है.
अगले नवंबर में 80 वर्ष के हो रहे शौरी अपनी व्यक्तिगत सत्यनिष्ठा और ईमानदारी के लिए जाने जाते हैं. उन्हें जानने वाले लोग इस बात की पुष्टि करेंगे कि वह सच बोलने और सच्चाई की राह पर चलने से कभी गुरेज नहीं करते. अमेरिका के सिरैक्यूज़ विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पीएचडी प्राप्त करने के बाद उन्होंने विश्व बैंक के लिए काम किया, और भारत लौटने के बाद इंडियन एक्सप्रेस के संपादक बने. इस अखबार का मालिक दुस्साहसी रामनाथ गोयनका थे, जो आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भिड़ने से भी नहीं डरे. गोयनका और शौरी की जोड़ी भारतीय राजनीति और लोकतंत्र की एक प्रबल ताकत बन गई थी. इंदिरा गांधी ने सारे हथकंडे अपना लिए, लेकिन वह उन्हें झुका तक नहीं सकीं, ध्वस्त करना तो दूर की बात है.
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आगे चलकर शौरी ने महाराष्ट्र के आठवें मुख्यमंत्री (9 जून 1980 – 12 जनवरी 1982) अब्दुल रहमान अंतुले के खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी अभियान चलाकर उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया. अंतुले की प्रसिद्धि इंदिरा गांधी के विश्वस्त और वफादार व्यक्ति के रूप में थी. उन्होंने शरद पवार को बेदखल कर मुख्यमंत्री की कुर्सी पाई थी. इससे पहले पवार और उनके प्रगतिशील लोकतांत्रिक मोर्चे ने 1978 में कांग्रेस के वसंतदादा पाटिल को अपदस्थ किया था. इसलिए अब कांग्रेस की बदला लेने की बारी थी.
आपातकाल के बाद कांग्रेस का विभाजन होने पर भी अंतुले इंदिरा गांधी का साथ देते रहे थे. वास्तव में, इंदिरा कांग्रेस या कांग्रेस (आई) की योजना अंतुले के निवास पर ही बनाई गई थी. जब 1980 में गांधी ने लोकसभा में 353 सीटों के साथ भारी बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की, तो अंतुले को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाकर पुरस्कृत किया गया. वह उस पद को हासिल करने वाले पहले मुस्लिम थे.
भ्रष्टाचार के खिलाफ शौरी की लड़ाई
इंडियन एक्सप्रेस का संपादक रहते अरुण शौरी से एक व्यक्ति ने गुप्त संपर्क किया, जिससे एक अस्पताल खोलने देने के एवज में अंतुले ने कथित रूप से 5 करोड़ रुपये की मांग की थी. यह पैसा इंदिरा गांधी प्रतिभा प्रतिष्ठान नामक एक नवगठित ट्रस्ट को जाता. शौरी और महाराष्ट्र टाइम्स के संपादक गोविंद तलवलकर ने इस मामले की पड़ताल शुरू कर दी. कोयना बांध पुनर्वास परियोजना के दो कर्मचारियों की मदद से, जिनका कार्यालय प्रतिष्ठान के बगल में था, शौरी और तलवलकर ने ट्रस्ट की खाता-बही हासिल कर ली. उन्होंने उन पन्नों की फोटोकॉपी बना ली जिनमें योगदान देने वालों का ब्यौरा, मय चेक नंबर, दर्ज था. उन्हें महाराष्ट्र में विभिन्न व्यवसायों में संलग्न 100 से अधिक संभावित लाभार्थियों, कंपनियों और व्यक्तियों से संबंधियां प्रविष्टियां मिली थीं. स्पष्ट था कि इंदिरा गांधी को अपनी नवगठित पार्टी के लिए बड़ी मात्रा में धन की आवश्यकता थी और इस कोष को इकट्ठा करने वालों में अंतुले अग्रणी थे.
लेकिन शौरी को इंदिरा गांधी प्रतिभा प्रतिष्ठान को किए गए भुगतान और बदले में सरकार की कृपा दृष्टि के बीच संबंधों की पुष्टि करने की ज़रूरत थी. महाराष्ट्र सरकार ने एक सर्कुलर में, जो उसके खिलाफ सबूत बना, चीनी और सीमेंट कंपनियों को ‘प्रति बोरी’ के हिसाब से ट्रस्ट को चंदा देने का निर्देश दिया था. उल्लेखनीय है कि उन दिनों चीनी और सीमेंट दोनों ही सरकार नियंत्रित वस्तुओं की श्रेणी में आते थे. यह सर्कुलर भ्रष्टाचार का पक्का सबूत था. कहा जाता है कि शरद पवार ने शौरी को सर्कुलर हासिल करने में मदद की थी. दो उद्योगपतियों ने देर रात हुई एक मुलाकात के दौरान उन्हें सारे ज़रूरी कागजात सौंपे थे.
इस संबंध में रिपोर्ट प्रकाशित होने से पहले की रात किसी तरह खबर लीक हो गई. ऐसे में गोयनका के लिए अंतुले का कॉल आया. उस समय शौरी उनके साथ थे. कहते हैं, एक्सप्रेस के जुझारू मालिक ने शौरी को निर्देश दिया, ‘उनको बता दीजिए कि मैं मौजूद हूं लेकिन उनसे बात नहीं करूंगा।’ जब अगली सुबह रिपोर्ट छपी, तो संसद में जमकर हंगामा हुआ. पूर्व राष्ट्रपति आर. वेंकटरमण सहित इंदिरा के वफादारों और संकटमोचकों ने यह दावा करते हुए उन्हें बचाने की कोशिश की कि उन्हें शौरी के खुलासे में उल्लिखित चंदे या बदले में फायदा पहुंचाए जाने की कोई जानकारी नहीं थी. इस पर शौरी ने सवाल किया कि एक ट्रस्टी के रूप में, वह ट्रस्ट में आने वाले फंड को लेकर कैसे अनजान रह सकती हैं? ट्रस्ट के कागजातों पर हस्ताक्षर करती इंदिरा गांधी की तस्वीर प्रकाशित करते हुए, उन्होंने सुर्खी लगाई, ‘आप झूठे हैं, मिस्टर वेंकटरमण’. अंत में, इस विवाद के चलते अंतुले को जाना पड़ा. इस्तीफा देने के बाद वह लंबे समय तक लगभग गुमनामी में रहे, जब तक कि सुप्रीम कोर्ट से क्लीन चिट मिलने के बाद, मनमोहन सिंह ने उन्हें कुछ समय के लिए अल्पसंख्यक मामलों का मंत्री नहीं बना दिया.
यदि आखिरी स्तंभ भी गिरा…
भारत में बदलाव के अप्रतिम दूत और नेता शौरी 30 से अधिक पुस्तकों के लेखक/संपादक हैं, तथा उन्हें 1982 में रेमन मैग्सेसे पुरस्कार और 1990 में पद्म भूषण से सम्मानित किया जा चुका है. इसी तरह, 30 जुलाई 2020 को, एक और प्रतिष्ठित वरिष्ठ नागरिक जया जेटली को, तहलका पत्रिका के स्टिंग ऑपरेशन से जुड़े लगभग 20 साल पुराने एक मामले में चार साल के कारावास की सजा सुनाई गई थी. हालांकि उसी दिन दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा सजा के आदेश पर स्टे लगा दिए जाने के कारण वह जेल जाने से बच गईं.
ये सच है, कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं है. लेकिन क्या हमारी न्याय प्रणाली को समाज के प्रमुख स्तंभों के साथ ऐसा सलूक करना चाहिए, और दशकों पुराने मामलों में लगभग 80 वर्षीय वरिष्ठ नागरिकों को सजा सुनानी चाहिए? अनीता गेट्स बेल: व्हाट आर आवर कोर्टस डूइंग? व्हाट शुड वी डू अबाउट देम? (2018) में शौरी अपनी पीड़ा का बयान करते हैं कि कैसे उनकी पार्किन्सन पीड़ित पत्नी, अनीता, परिवार की पहली सदस्य बनीं जो जमानत पर हैं, ‘उन सम्मनों की अवहेलना के लिए जो कभी प्राप्त ही नहीं हुए, उस घर की वजह से जारी सम्मन जो हमने कभी बनाया ही नहीं था, और उस प्लॉट पर बना घर जो हमारा था ही नहीं.’
यदि प्रतिष्ठित और प्रभावशाली लोग इतने लाचार हो सकते हैं, तो बाकियों का क्या हाल होगा? कहते हैं, न्यायपालिका हमारे समाज का आखिरी ईमानदार स्तंभ है. अगर वह गिरा, तो फिर बचेगा क्या?
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(लेखक शिमला स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में प्रोफेसर और निदेशक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @makrandparanspe है. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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जनमानस में यह धारणा प्रबल बनी ही रहती है कि सरकारी संपत्ति बेचने में बड़े बाबू लोग, राजनेता, बिचौलिए सब पैसा बनाते ही हैं लेकिन अरुण शौरी जी की ईमानदारी पर कभी किसी को शक नहीं हुआ!
प्रश्न तो उस प्रखर खोजी पत्रकार की पैनी नजर पर है जिसके कारण वो स्व. अटलजी की सरकार में शामिल किए गए थे! उनकी आँखों में मोतियाबिंद कैसे आ गया?
अरुण शौरीजी अपने बचाव में कह रहे हैं कि निर्णय कैबिनेट का था, उनका कोई दोष नहीं। नौकरी में रहा चपरासी भी सरकारी काम-काज के तरीके समझता है। मंत्रीजी, कैबिनेट में प्रेसी किसके मंत्रालय ने रखी थी? लक्ष्मी विलास होटल की कीमत कम आंकने का आरोप है। कीमत कम जोड़ी और जमीन छोड़ी! क्यों?
वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी और माननीय मंत्रीगण के रुतबे, सुख-सुविधाओं, ज्ञात-अज्ञात संबंधों, संपर्कों आदि पर लोक निधि से भरपूर धनराशि व्यय होती है लेकिन जब भी कुछ चूक, कमी, भ्रष्टाचार, घोटाले का आक्षेप आता है तो ये कथित बड़े लोग जवाबदेही से बचने का प्रयास करते हैं। इनकी नज़र और नाक के नीचे जब ये सब होता है तब इनकी देखने और सूंघने की उस क्षमता को क्या हो जाता है जिसके कारण ये वो पद धारण कर रहे होते हैं?