तोपखाने को प्रायः ‘जंग का शहंशाह’ कहा जाता है. इसकी वजह यह है कि युद्ध में तोपें हमला और बचाव, दोनों ही मामले में भारी असरदार साबित होती हैं. वास्तव में, पूर्व सोवियत नेता जोसफ स्टालिन ने तो यहां तक कहा था कि तोपखाना तो ‘जंग का खुदा’ है. किसी लक्ष्य को निशाना बनाने के लिए गोलाबारी करने के मामले में तोपों का कोई सानी (मुकाबला) नहीं है. लागत के हिसाब से सबसे ज्यादा लाभ देने के मामले में भी तोपों का कोई जवाब नहीं है. निशाने पर सटीक वार करने के लिए निर्देशित हथियारों, ड्रोन से भेजे जाने वाले हथियारों, लंबी दूरी तक मार करने वाले गोलों, ड्रोन, जीपीएस सिस्टम, माउंटेड तोप, आदि के रूप में विकसित नयी टेक्नोलॉजी और सिस्टम्स ने युद्ध में तोपखाने की भूमिका को विविधता और ताकत प्रदान की है. यूक्रेन जिस तरह ज्यादा तोपों और एम-142 ‘हिमार्स’ नामक लॉन्ग-रेंज रॉकेट आर्टिलरी सिस्टम की मांग कर रहा है उससे इस तथ्य की और पुष्टि ही होती है.
21वीं सदी में तोपखाने का भविष्य कई बातों से तय होगा, मसलन युद्ध का स्वरूप और देशों की सेनाओं के सामने खड़े खतरे. कुछ लड़ाइयों के लिए ऐसी तोपों की जरूरत पड़ेगी जो ज्यादा सटीक मार कर सकें और तेजी से दूरी तय कर सकें. लंबी चलने वाली लड़ाई में गोलाबारी की ज्यादा ताकत, ज्यादा टिकाऊ और मारक क्षमता की जरूरत होगी. चूंकि लड़ाई के स्वरूप और उसकी अवधि के बारे में पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता इसलिए सभी आकस्मिक जरूरतों के लिए तैयारी रखनी होगी. संसाधन की उपलब्धता, ऑपरेशन को चलाने के लिए साजोसामान, तोपखाने की लागत सहित रखरखाव की व्यवस्था, गोलों की गुणवत्ता, ईंधन, कलपुर्ज़ों, और सैनिकों की तैनाती आदि भी प्रमुख बातें होंगी.
इसका सामान्य नियम यह है कि एक बटालियन की ओर से किए जानेवाले हमले के लिए करीब 100 तोपों की जरूरत होती है ताकि उसे सुरक्षा भी दी जा सके. इनमें से हरेक तोप विभिन्न निशानों पर करीब 100 राउंड गोलाबारी करती हैं यानी 24 घंटे में 10,000 गोले दागने पड़ेंगे. तीन बटालियन को मिलाकर बनी ब्रिगेड के लिए रोज 30,000 राउंड की, और तीन ब्रिगेड को मिलाकर बने एक डिवीजन के लिए 90,000 राउंड गोलों की जरूरत पड़ेगी. और लड़ाई कई दिनों तक खिंच सकती है. ये आंकड़े आपके होश उड़ा सकते हैं, लेकिन ये अभी जारी यूक्रेन युद्ध समेत विभिन्न युद्धों में हुई वास्तविक खपत पर आधारित हैं.
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तोपों को बरसने दीजिए
तोपों का संचालन तोपखाने के सैनिकों के लिए एक चुनौती होती है, और इससे भी बड़ी चुनौती उसके साजोसामान की सप्लाई चेन को जिंदा रखने की होती है. तोपों के पर्याप्त समर्थन के अभाव में ऑपरेशन की गति बनाए रखना मुश्किल होता है और वह संभव है रुक जाता जैसा की यूक्रेन में हुआ , जहां रूसी हमले को शुरू में तो कामयाबी मिली लेकिन तोपों के समर्थन के अभाव में वह बिखर गया. साजोसामान की सप्लाई चेन, गोला-बारूद बनाने वाले कारखाने से शुरू होकर सामरिक क्षेत्र के सप्लाई चेन के हलक़ों और संचार ज़ोन के विभिन्न डिपो तक फैली होती है. ये डिपो युद्ध की अवधि और गोला-बारूद की खपत का अंदाजा लगाकर उन्हें तत्काल उपलब्ध कराते हैं. लेकिन इतना बड़ा भंडार बनाकर रखना अपने आप में बहुत मुश्किल काम है.
तोपों सहित तमाम तरह के गोला-बारूद को विभिन डिपो में जमा करके रखना होता है. ये डिपो सुरक्षा के अंतरराष्ट्रीय मानदंडों का पालन करते हैं. इनके लिए मनुष्य की बसाहट से काफी दूर काफी बड़ी जमीन चाहिए जिस पर जरूरी माप के शेड बनाए जा सकें. भंडार की समय-समय पर जांच करनी पड़ती है, खराब हुए गोला-बारूद को नष्ट किया जाता है और उनकी भरपाई दूसरे स्टॉक की जीवन क्षमता के आधार पर करनी पड़ती है. इन सबके लिए पैसा चाहिए. इसलिए कोई भी देश एक निश्चित मात्रा में ही गोला-बारूद का भंडार बना सकता है. इसका समाधान यही है कि जरूरत के समय उत्पादन बढ़ाने की क्षमता हो. चूंकि मौजूदा आयुध कारखाने उस हद तक उत्पादन नहीं बढ़ा सकते इसकी असैनिक औद्योगिक आधार की मदद लेनी पड़ेगी. भारत अमेरिका के उदाहरण को ध्यान में रख सकता है, जिसकी चर्चा आर्थर हरमन ने अपनी किताब ‘फ्रीडम्स फ़ोर्ज’ में की है. किताब में बताया गया है कि दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका ने उपभोक्ता सामग्री बनाने वाले उद्योग को सेना के पावरहाउस में बदल दिया था जिसे फौजी-औद्योगिक परिसर कहा जाता है. ऐसा लगता है कि रूस ने इससे सबक सीखा और जैसा कि ‘बिजनेस इनसाइडर’ ने खबर दी, पश्चिमी स्रोतों का दावा है कि रूस भविष्य में टॉप के 20 लाख गोलों तक का उत्पादन कर सकता है.
चुनौतियां
अपने शानदार अतीत के बावजूद, तोपखाना को युद्ध के बदलते स्वरूप के साथ तालमेल बिठाना ही होगा. युक्रेन में वह जिन चुनौतियों का आज सामना कर रहा है या भविष्य में कर सकता है उनमें से कुछ तो ‘एंटी-ऐक्सेस/एरिया डिनायल (ए-2/एडी) सिस्टम’ के कारण हैं, जो टीबीए में तोपों को शामिल करने में कटौती कर सकती है और युद्ध के बदलते परिदृश्य के मुताबिक तोपों की यूनिटों की तैनाती और पुनः तैनाती में बाधा डाल सकती है. दुश्मन पर जवाबी बमबारी (सीबी) का ज़ोर तोपों के इलाके पर रहेगा, इसलिए ऐसी तोपें चाहिए जो दुश्मन द्वारा ‘जवाबी बमबारी’ से बचने के लिए तेजी से स्थान बदल सकें. बोफोर्स सरीखी कुछ आधुनिक तोपों में ‘दागो और भागो’ की क्षमता सीमित है, लेकिन वे मूलतः खींच कर ले जाई जाने वाली, ‘टाव्ड गन सिस्टम’ (टीजीएस) हैं जैसी अधिकतर तोपें हैं जिनमें एम-777, अमेरिका से हासिल 155 एमएम अल्ट्रा लाइट तोपें शामिल हैं. लेकिन इन तोपों में भविष्य के रणक्षेत्रों के लिए जरूरी क्षमता और गतिशीलता नहीं होगी.
वक़्त की मांग है कि खींच कर ले जाई जाने वाली तोपों से ‘माउंटेड’ तोपों (एमजीएस) की ओर प्रगति की जाए, जिसमें टॉप और और उसे ढोने वाला ट्रक आपस में जुड़े होते हैं. इससे तोपों को हरकत में आने में न केवल कम समय लगेगा बल्कि वे लंबी दूरियां तय कर सकती हैं, जो कि मौजूदा ‘दागो और भागो’ वाली विशेषता का नया संस्करण हो सकता है. भारत फ़ोर्ज और एल ऐंड टी जैसी कई भारतीय कंपनियों ने ‘एमजीएस’ तोपों के 105 एमएम और 155 एमएम वाले संस्करण बना भी चुकी हैं और उनका आकलन किया जा रहा है. आगे का रास्ता यही है, कालातीत करने की योजना के तहत, खींचकर ले जाई जाने वाली तोपों को धीरे-धीरे लुप्त करने की जरूरत है. के-9 वज्र जैसी ‘ट्रैक्ड’ तोपें ज्यादा गतिशील हैं, लेकिन वे काफी महंगी हैं. इसलिए, ‘माउंटेड’ तोपें खींचकर ले जाई जाने वाली तोपों और ‘ट्रैक्ड’ तोपों के बीच ऑपरेशन संबंधी खाई को भर सकती हैं.
निष्कर्ष यह कि तोपखाना आधुनिक युद्ध का अहम तत्व है, जो सेना को निर्णायक बढ़त दे सकता है. लेकिन तोपखाना के सामने कई चुनौतियां और अनिश्चितताएं भी हैं जिनके कारण उसे निरंतर बदलाव और सुधार करने की जरूरत है. तोपखाना का भविष्य इस पर निर्भर है कि वह 21वीं सदी की मांगों और हकीकतों के मद्देनजर अपनी भूमिका और क्षमताओं में किस तरह संतुलन बनाता है. हथियारों के अधिग्रहण की जो योजनाएं बनाई जा रही हैं उनमें अगले कुछ दशकों में उभरने वाले युद्ध क्षेत्र की मांगों का ध्यान रखना पड़ेगा, और खींचकर ले जाई जाने वाली तोपें इस योजना के तहत एक बोझ साबित हो सकती हैं.
(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. यहां व्यक्त उनके विचार निजी हैं.)
(संपादन: पूजा मेहरोत्रा)
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