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Tuesday, 17 December, 2024
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ओम प्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ से जानिए जाति का ताप

आयुष्मान खुराना ने एक इंटरव्यू में ये कहा है कि इस रोल की तैयारी करने के क्रम में उन्होंने जूठन किताब को पढ़ा और उन्हें कई रातों तक नींद नहीं आई. कल्पना कीजिए उस व्यक्ति के बारे में जिसने ये जिंदगी जी होगी

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बॉलीवुड की शुगरकोटेड सीमाओं के अंदर जातिवाद के दंश को समझ पाना आसान नहीं है. जाति की जलन को समझने के लिए उस भोगे हुए यथार्थ से गुजरना जरूरी है, जो किसी धधकते ज्वालामुखी से होकर गुजरने से कमतर अनुभव नहीं है.

मेरी सलाह है कि आप ओम प्रकाश वाल्मीकि (30 जून 1950-17 नवंबर, 2013) की आत्मकथा जूठन जरूर पढ़ें. दिलचस्प है कि आर्टिकल 15 के लीड एक्टर आयुष्मान खुराना ने एक इंटरव्यू में ये कहा है कि इस रोल की तैयारी करने के क्रम में उन्होंने जूठन किताब को पढ़ा और उन्हें कई रातों तक नींद नहीं आई. कल्पना कीजिए उस व्यक्ति के बारे में जिसने ये जिंदगी जी होगी.

‘जूठन’ का नायक किसी मिथकीय महाकाव्य का अवतारी पुरुष नहीं है. वह सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की राम की शक्तिपूजा का राम नहीं है, न ही मुक्तिबोध की अंधेरे में कविता का सर्वहारा नायक है. वह आधुनिक युग के प्रेमचंद रचित महाकाव्य गोदान का होरी भी नहीं है; अज्ञेय का शेखर होने का सवाल ही नहीं उठता, न ही वह हावर्ड फास्ट के उपन्यास आदिविद्रोही का स्पार्टकस है; न ही गोर्की के उपन्यास मां का पावेल है.

इसमें से कुछ भी होने के लिए इंसान होने का औपचारिक दर्जा प्राप्त होना जरूरी है. इनमें से कोई भी किरदार ऐसा नहीं, जिसका स्पर्श भी वर्जित रहा हो, जिसे खुद ईश्वर ने शास्त्रों के जरिए मानव होने के सभी अधिकारों से वंचित किया हो. किसी ऐतिहासिक महानायक से यदि ‘जूठन’ का नायक मेल खाता है, तो वह डॉ. आंबेडकर हैं. जूठन के प्रकाशन के 22 साल बाद भी ओम प्रकाश वाल्मीकि की ये आत्मकथा आज भी आलोड़न पैदा करती है.

इसे ‘जूठन’ नाम हंस के संपादक राजेंद्र यादव ने दिया था. पहले खंड की लोकप्रियता का आलम यह है कि अब तक इसके तेरह संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और 2015 में पहली बार प्रकाशित होने वाले दूसरे खंड के भी चार संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं. ‘जूठन’ का देश और दुनिया की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुआ. कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में इसे शामिल किया गया. इस पर बहुत सारे शोध-कार्य हुए.

जाति के चक्रव्यूह में लहूलुहान जूठन का नायक

इस आत्मकथा के नायक ने ऐसे समाज में जन्म लिया है, जिसमें इंसान होने का हक प्राप्त करने के संघर्ष में ही उसकी पूरी जिंदगी गुजर जाती है. वह जाति-व्यवस्था के पिरामिड की सबसे निचली सतह में जन्मा व्यक्ति है. वह स्वयं कहता है कि “जाति पैदा होते ही व्यक्ति की नियति तय कर देती है. पैदा होना व्यक्ति के अधिकार में होता, तो मैं भंगी के घर पैदा क्यों होता?” (जूठन, भाग-एक, पृष्ठ-163).

भारतीय समाज की संरचना का जिसे थोड़ा भी ज्ञान होगा, वह समझ सकता है कि ‘भंगी’ होने का अर्थ क्या होता है. यह सब यदि किसी को भी पता न हो, तो वह ओम प्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ जरूर ही पढ़ ले. जूठन’ का नायक जाति द्वारा तय नियति को बार-बार चुनौती देता है. जीवन के हर मोड़ पर उसे मनु-याज्ञवल्क के बनाए जाति के चक्रव्यूह में प्रवेश करना होता है और उसे तोड़कर निकलना होता है. महाभारत का नाबालिग अभिमन्यु चक्रव्यूह में एक बार प्रवेश करता है और मारा जाता है.


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लेकिन, ‘जूठन’ के ओम प्रकाश वाल्मीकि के सामने बार-बार यह चक्रव्यूह उपस्थित है और उसे तोड़कर वे आगे बढ़ते हैं. उनके ऐसा करने से कई बार पिरामिड के शीर्ष तक हलचल होती है. वे अपनी प्रतिभा और संघर्ष के बलबूते पिरामिड के शीर्ष पर हजारों वर्षों से विराजमान लोगों की पंक्ति में पूरे हक के साथ विराजमान हो जाते हैं. लेकिन, उनकी उपस्थिति से आस-पास के लोगों को भूकंप का झटका-सा महसूस होता है. न चाहते भी उन्हें ऐसे व्यक्ति को बर्दाश्त और स्वीकार करना पड़ता है, जिसके नाम से ही वे नफरत करते हैं. उसके साथ रहना व जीना कौन कहे, वे उसका नाम भी नहीं सुनना चाहते.

ओमप्रकाश वाल्मीकि की दो खंडों में प्रकाशित आत्मकथा ‘जूठन’ दलितों में भी सबसे नीचे क्रम की जाति में पैदा होने की यातना और उससे उबरने के संघर्ष का सुलगता दस्तावेज है. यह एक व्यक्ति की आपबीती होते हुए भी एक पूरे-के-पूरे समुदाय की आपबीती बन जाती है.

बाबा साहब और वाल्मीकि की जीवनी में समानताएं

आप आंबेडकर की आत्मकथा ‘वेटिंग फॉर वीजा’ और जूठन में बहुत सारी समानताएं देख सकते है. जो भी इस आत्मकथा से गुजरता है, उसे महसूस होता है कि जैसे वह धधकते ज्वालामुखी में कूद पड़ा हो. इस आत्मकथा का पहला खंड 1997 में और दूसरा खंड 2015 में प्रकाशित हुआ. इसे लिखने के पहले प्रेरणा स्रोत प्रख्यात पत्रकार राजकिशोर बने थे जिन्होंने आगे चलकर बाबा साहब की चर्चित रचना एनिहिलेशन ऑफ कास्ट का सरल हिंदी में अनुवाद किया, जो जाति का विनाश नाम से प्रकाशित हुआ.

ओम प्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ हिंदी साहित्य जगत और समाज में एक विस्फोट की तरह सामने आई. इसने हिंदी साहित्य में यथार्थ के नाम पर परोसे जा रहे झूठ का पर्दाफाश कर दिया. भारतीय समाज के उन सारे आवरण को तार-तार कर दिया, जिनकी ओट में महान भारतीय संस्कृति का गुणगान किया जाता था. ‘जूठन’ ने हिंदी के जातिवादी प्रगतिशीलों और गैर-प्रगतिशीलों, दोनों के सामने एक ऐसा आईना प्रस्तुत कर दिया, जिसमें वे अपना विद्रूप चेहरा देख सकते हैं. इस आत्मकथा की पहली पंक्ति इन शब्दों से शुरू होती है- ‘दलित-जीवन की पीड़ाएं असहनीय और अनुभव-दग्ध हैं. ऐसे अनुभव, जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान नहीं पा सके. ऐसी समाज-व्यवस्था में हमने सांस ली है, जो बेहद क्रूर और अमानवीय है.’ (वही, पृ.-7)


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पंक्ति-दर-पंक्ति यह आत्मकथा वर्ण-जाति व्यवस्था के क्रूर एवं वीभत्स चेहरे को परत-दर-परत उजागर करती है. जिस समुदाय में ‘जूठन’ का नायक जन्म लेता है, उसके प्रति अन्य लोगों का नजरिया क्या है, उसका वर्णन वह इन शब्दों में करता है- ‘अस्पृश्यता का ऐसा माहौल कि कुत्ते-बिल्ली, गाय-भैंस को छूना बुरा नहीं था; लेकिन चूहड़े का स्पर्श हो जाए, तो पाप लग जाता था. सामाजिक स्तर पर इंसानी दर्जा नहीं था. वे सिर्फ जरूरत की वस्तु थे. काम पूरा होते ही उपयोग खत्म. इस्तेमाल करो, दूर फेंको.’ ( वही, पृ-12).

वे बताते हैं कि हमारे नायक के टोले में शिक्षा की रोशनी लेकर कोई सरस्वती देवी नहीं, बल्कि ईसाई मिशनरी सेवकराम आते हैं; क्योंकि शिक्षा के दरवाजे इस समाज के लिए बंद कर दिए गए थे. कुछ दिनों बाद पिता के द्वारा बार-बार की गई मिन्नतों और जी-हुजूरी के बाद ओम प्रकाश वाल्मीकि को किसी तरह गांव की प्राइमरी पाठशाला में प्रवेश तो मिल जाता है; लेकिन छात्रों और शिक्षकों द्वारा बात-बात अपमान, गाली और पिटाई का जो सिलसिला शुरू होता है, वह लंबे समय तक चलता रहता है, जब तक कि बारहवीं में पढ़ने के लिए वे देहरादून नहीं आ जाते. यहां भी जाति और गरीबी उनका पीछा नहीं छोड़तीं; फिर भी काफी राहत मिल जाती है. पढ़ाई के दौरान के संघर्षों को याद करते हुए वे लिखते हैं कि “तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते थे; ताकि मैं स्कूल छोड़कर भाग जाऊं और मैं उन्हीं कामों में लग जाऊं, जिनके लिए मेरा जन्म हुआ था. उनके अनुसार, स्कूल आना मेरी अनाधिकार चेष्टा थी.” (वही, पृ.-13)

उन्हें रोशनी तब मिलती है, जब उनके हाथ डॉ. आंबेडकर की जीवनी लगती है. यह किताब उन्हें देहरादून के एक दलित साथी हेमलाल ने दी थी. पुस्तक का नाम था- ‘डॉ. आंबेडकर : जीवन-परिचय’, लेखक चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’. इस किताब के असर का वर्णन वे इन शब्दों में करते हैं-  ‘कई दिन और रातें बेचैनी में काटीं. मेरे भीतर की छटपटाहट बढ़ गई थी. मेरी चुप्पी जो रोम-रोम को जड़ बना रही थी, अचानक पिघले लगी थी. उस पुस्तकालय में अम्बेडकर की लिखी जो भी पुस्तकें थीं, वे सभी पढ़ डाली थीं… इन पुस्तकों के अध्ययन से मेरे भीतर एक प्रवाहमयी चेतना जाग्रत हो उठी थी. इन पुस्तकों ने मेरे गूंगेपन को शब्द दे दिए. व्यवस्था के प्रति विरोध-भावना मेरे मन में इन्हीं दिनों पुख्ता हुई थी.’ (वही, पृ.-90).

अपने जीवन के निर्माण में वे मार्क्सवादी साहित्य की भूमिका भी स्वीकार करते हुए लिखते हैं कि ‘अम्बेडकर और मार्क्सवादी साहित्य ने मेरी सोच बदल दी थी.’ (वही, पृ.-114). गोर्की का उपन्यास ‘मां’ और राजेन्द्र यादव का ‘सारा आकाश’ उनकी पसंदीदा किताबें थीं. लेकिन, भारतीय वामपंथियों की वर्ण-जातिवादी सोच और भारतीय जीवन-यथार्थ से उनकी दूरी ओम प्रकाश वाल्मीकि को कचोटती थी.

वाल्मीकि जाति व्यवस्था के पिरामिड को ढाहना चाहते थे, ताकि एक ऐसी समतल भूमि बने, जिसमें सब इंसान समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व से जी सकें. उनकी आत्मकथा इसका सबूत पेश करती है.

(लेखक हिंदी साहित्य में पीएचडी हैं और फ़ॉरवर्ड प्रेस हिंदी के संपादक हैं.)

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