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Sunday, 28 April, 2024
होममत-विमत'वह गुस्सा था जिसकी वजह से मैंने आर्टिकल 15 लिखी, प्लॉट तो साधनमात्र है'

‘वह गुस्सा था जिसकी वजह से मैंने आर्टिकल 15 लिखी, प्लॉट तो साधनमात्र है’

इस फिल्म को दर्शकों का भी ढेर सारा प्यार मिला है और बॉक्स ऑफीस पर इसे शानदार सफलता मिल रही है. यह मेरे लिए एक अचरज की बात है.

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जहां तक मुझे याद है, भारत मे कदम-कदम पर व्याप्त विचलित कर देने वाले भेदभाव की पहली झलक मुझे 1970 के दशक यानी की अपने बचपन मे हीं मिल गयी थी.

उन दिनो, हमारे घरों में आज की तरह के सेरेमिक से बने चमकदार टायलेट्स, जिनमे फ्लश भी लगा होता है, नही होते थे. एक औरत एक लंबी सी झाड़ू और एक पानी की बाल्टी के साथ हमारे घरों के टायलेट्स साफ करने आती थी. उसके जाने के बाद मेरे घर की महिलाएं उसके आने और जाने के रास्ते को धोती थीं.

तब शायद मुझे पता नही था कि यह वर्गभेद है या जातिभेद. सच कहूं तो आज भी ज़्यादा कुछ नही जानता. मेरी अपनी एक कॉन्स्पिरेसी थियोरी है कि यह सब कुछ वर्ग-आधारित भेदभाव के अंदर ही आता है और हम अपनी सुविधा के अनुसार इसे कई नामों – जैसे कि वर्गभेद अथवा जातिभेद – मे बांट इसे न्यायोचित ठहराने का प्रयास करते रहतें हैं. हम सब के मन की दबी इच्छा एक राजा अथवा रानी जैसे जीने की होती है जिनकी सेवा मे सदैव सैकड़ों गुलाम लगे रहते हैं. इसी मनोदशा की तरफ एक इशारा है मेरी फिल्म आर्टिकल 15 का यह संवाद, ‘अगर सब बराबर हो जाएंगे तो राजा कौन बनेगा?’

मेरी फिल्म आर्टिकल 15 के निर्माण के पीछे दो तरह की प्रेरणाएं काम कर रहीं थी. एक तो मेरे खुद के इतिहास मे देखी और महसूस की गयीं घटनाएं और दूसरी हाल मे देखी गयीं कुछ विचलित और स्तब्ध करे देने वाली तस्वीरें. ऐसी ही एक तस्वीर थी एक सीरियाई बच्चे की तस्वीर जो लाल टी-शर्ट के साथ युरोप के समुद्र तट पर बह कर आ गयी थी. उसका आर्टिकल 15 के निर्माण के कोई सीधा संबंध नही है परंतु मेरे लिए वह तस्वीर एक प्रेरणा श्रोत थी और रहेगी. क्या यह दुनिया इस लिए नही बनाई गयी थी कि हम सभी मानव एक साथ हंसी ख़ुशी रह सकें? क्या खुशहाली इसके निर्माण का सबसे बड़ा कारक नही थी? पर अगर ऐसा ही है तो हम इन तस्वीरों को क्या समझें जिनमे उत्तर प्रदेश के बदायूं ज़िले की दो किशोरियों के शव पेड़ पर टांगे दिखतें हैं?’


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उन तस्वीरों मे जो चीज़ मुझे सबसे ज़्यादा परेशान करती है वह है इस नज़ारे को देख रहे लोगों के चेहरों पर व्याप्त शांति? सबके चेहरों पर अजीब सी शांति थी, और शायद गहरा झांकने पर ज़रा सा असंतोष झलक रहा था. इस चुप्पी से हीं पैदा होता है वह सबसे बड़ा सवाल जिसका सामना आज हम सभी कर रहें हैं, समाज से लगभग विलुप्त हो रही हकदारी की भावना. उनमे इस घिनोने अपराध के प्रति कहीं कोई आक्रोश नही था, काफ़ी हद तक वे इसे नियति मान स्वीकार करने को भी तैयार दिखते हैं. वास्तव मे, उनमे से एक लड़की के पिता ने एक इंटरव्यू मे कहा भी, ‘अगर रात भर रख के छोड़ देते तो भी ठीक था.’ मैने इस वाक्य को अपनी फिल्म मे भी इस्तेमाल किया है. इसके अलावा ऊना मे बुरी तरह पीटे जा रहे लोगों का एक वीडियो भी सामने आया था. उनके आस-पास जमा लोग वीडियो बनाने मे व्यस्त थे, पर किसी मे पास इस घटना का विरोध करने का साहस अथवा इच्छा शक्ति नही थी.

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इन्ही यादों और तस्वीरों के बीच कहीं छुपे बैठे थे आर्टिकल 15 के निर्माण के बीज. इनमे से ज़्यादतर एक तरह के गुस्से की अभिव्यक्ति है. कथानक तो इसे जाहिर करने का मात्र एक ज़रिया है. आक्रोश हीं यहां सबसे बड़ा कारण है.

जब मैने इस फिल्म पर काम करना शुरू किया तो मेरे युवा सहयोगियों मे से अधिकांश का मानना था की जाति अब बीते जमाने की बात हो चली है. मैं उनसे सिर्फ़ इतना पूछना चाह रहा था क्या वो अख़बार पढ़ते भी हैं या नही? मेरे अंदर का गुस्सा और भड़कता जा रहा था. जनवरी 2017 मे ‘मुल्क’ फिल्म की पहला मसौदा लिखने के पूर्व ही मैने सप्ताहांत की छुट्टियों मे ‘कानपुर देहात’ नाम से एक पटकथा का शुरुआती खाका तैयार कर लिया था. मुल्क का निर्माण करने के दौरान भी यह पटकथा मुझे अंदर से झंझोड़ती रहती थी. मैं जनता था की मुझे इस पटकथा पर और काम करने की ज़रूरत है और इसके लिए मुझे और भी बहुत कुछ जानना था.

मैं इस बारे मे किताबों मे पढ़ रहा था और लगातार लोगों से भी मिल रहा था, पर मुझे अच्छे से पता था की इसे लिखने के लिए मुझे एक लिए मुझे एक खास सहयोगी की आवश्यकता होगी. और फिर मेरी मुलाकात हुई गौरव सोलंकी से जो एक जाने माने प्रकाशक और लेखक हैं और जिन्हे कई बड़े अवॉर्ड भी मिल चुके हैं. हमारी पहली मुलाकात का अनुभव कभी अच्छा रहा. गौरव ने मेरे द्वारा तैयार किया गया मसौदा देखा और बोले, ‘हमें इसे ज़रूर बनाना चाहिए.’ और इसके बाद हमने पूरे एक साल तक पूरी शिद्दत से इस पटकथा पर काम किया.

हमने इस पटकथा के तकरीबन 15 तरह के ड्राफ्ट पर पटकथा सलाहकार अंजुम राजबली से चर्चा की. हम जानते थे कि हम कुछ बहुत ही खास काम करने जा रहें हैं, इसलिए हम इस काम मे बिना रुके, बिना थके लगे रहे. उस वक़्त तक हमारे दिमाग़ मे नायक के लिए किसी खास अभिनेता का विचार नही था. तभी, आयुष्मान खुराना को कहीं से इस पटकथा की भनक मिली और उन्होने इसे एक तरह से हाइजॅक हीं कर लिया. आज मैं बहुत खुश हूं की उन्होने ऐसा किया. वो इस कहानी को अपने माध्यम से बयान करने के बारे मे इतने आश्वश्त थे की मुझे उनके दृढ़ विश्वास के आगे हार माननी हीं पड़ी. हालांकि मुझे यह स्वीकार करने मे कोई हिचक नही है कि उस समय मुझे उनमे अयान की कोई झलक देखने को नही मिलती थी. पर इस फिल्म विषय वस्तु मे उनका पूर्ण विश्वास था और इसने कमाल कर दिया. अब पीछे मुड़कर देखें तो अयान की भूमिका के लिए उनसे बढ़िया कोई हो ही नही सकता था.

इस फिल्म को दर्शकों का भी ढेर सारा प्यार मिला है और बॉक्स ऑफिस पर इसे शानदार सफलता मिल रही है. यह मेरे लिए एक अचरज की बात है. मैं जानता था कि लोग, खास तौर पर फिल्म समीक्षक, इस फिल्म को पसंद करेंगे पूर मुझे आम लोगों से इस फिल्म के प्रति इतनी सकारात्मक प्रतिक्रिया की अपेक्षा नही थी. हालांकि आयुष्मान हमेशा से मानते थे की ऐसा हीं होगा. दर्शकों और समीक्षकों के इस प्यार से हमारे फिल्म की पूरी टीम अभिभूत है. मुझे बताया गया है कि हमारी फिल्म को 4.5 से अधिक की औसत रेटिंग दी गयी है.


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इस फिल्म से जुड़ी कई तरह की चर्चाएं भी जोर पकड़ रहीं हैं. इनमे से कुछ तो वास्तविक हैं और कई के पीछे एक खास मक़सद है. मेरी उम्र के इस पड़ाव पर मेरे अंदर इतनी समझ आ चुकी है कि मैं किसी खास मक़सद से की जा रहीं बातों को पहचान सकूं और मुझे पता है कि इन्हे किस तरह अनदेखा करना है? पर इस से जुड़े कुछ वास्तविक सवाल भी काफ़ी अच्छे हैं.

एक सवाल जो मुझसे बार-बार पूछा जा रहा है वो यह है कि क्या अयान का सवर्ण समाज से होना ज़रूरी था? शायद, उसे एक दलित होना चाहिए था? पर तब शायद यह एक बिल्कुल अलग तरह की फिल्म हो जाती. शायद, निषाद को जीतना चाहिए था? मैं नही जानता की तब क्या होता? शायद, सीवर मे काम कर रहे आदमी का एक असली सफाई कर्मचारी होना आवश्यक नही था? मैं इस बारे मे भी ज़्यादा नही जानता.

पर क्या आपको पता है कि मुझे इस फिल्म के बारे मे कौन सी खबर सबसे अच्छी लग रही है? इस फिल्म के प्रदर्शन के बाद लाखों लोगों ने संविधान के आर्टिकल 15 के बारे मे जानने की इच्छा दिखाई और इसके बारे मे पढ़ा. आप मे से सैकड़ों लोग इस बारे मे खुलकर सवाल भी पूछ रहे हैं. आख़िर इस फिल्म के निर्माण के पीछे मेरा सबसे बड़ा उद्देश्य यही तो था. मैं अपने युवा सहयोगियों को यह बताना चाहता था की यह (जातिय भेदभाव) कोई गुज़रे जमाने की बात नही है. मुझे इस बात से काफ़ी खुशी मिली है कि भारी संख्या मे युवा वर्ग इस फिल्म तो देखने सिनेमा घरों तक आया. यह वही वर्ग है जिसे इन सवालों के सही जवाब तलाशने हैं और एक नये भारत का निर्माण करना है. तब तक इस विषय मे एक निरंतर और त्वरित परिचर्चा होती रहनी चाहिए, क्योंकि इस तरह की परिचर्चा को आरंभ करना हीं आर्टिकल 15 के निर्माण से जुड़े मूल उद्देश्यों मे से एक था.

(लेखक डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और पटकथा लेखक हैं. यह उनके निजी विचार हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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